Ramakrishna Paramahamsa Jayanti : सनातन परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति थे स्वामी रामकृष्ण परमहंस
भारत के एक महान संत एवं विचारक रहे स्वामी रामकृष्ण परमहंस का जन्म फाल्गुन शुक्ल द्वितीया को हुआ था। उनका बचपन का नाम गदाधर चट्टोपाध्याय था। तारीख के अनुसार उनका जन्म 18 फरवरी 1836 को बंगाल के एक प्रांत कामारपुकुर गांव में हुआ था। पिता का नाम खुदीराम तथा माता का नाम चंद्रमणि देवी था।
वे भारत के एक महान संत और विचारक थे। उन्होंने अपने जीवनकाल में सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया। वे मानवता के पुजारी थे। हिन्दू, इस्लाम और ईसाई आदि सभी धर्मों पर उसकी श्रद्धा एक समान थी, ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने बारी-बारी सबकी साधना करके एक ही परम-सत्य का साक्षात्कार किया था।
अपने बचपन से ही उन्हें विश्वास था कि भगवान के दर्शन हो सकते हैं, अतः भगवान प्राप्ति के लिए उन्होंने कठोर साधना और भक्ति की तथा सादगीपूर्ण जीवन बिताया। अपने जीवन में उन्होंने स्कूल के कभी दर्शन नहीं किए थे। उन्हें न तो अंग्रेजी आती थी, न वे संस्कृत के जानकार थे। वे तो सिर्फ मां काली के भक्त थे। उनकी सारी पूंजी महाकाली का नाम-स्मरण मात्र था।
माना जाता है कि उनके माता-पिता को उनके जन्म से पहले ही अलौकिक घटनाओं का अनुभव हुआ था। उनके पिता को एक रात दृष्टांत हुआ, जिसमें उन्होंने देखा कि भगवान गदाधर ने स्वप्न में उनसे कहा था कि वे विष्णु अवतार के रूप में उनके पुत्र के रूप में जन्म लेंगे तथा माता चंद्रमणि को भी ऐसे ही एक दृष्टांत का अनुभव हुआ था, जिसमें उन्होंने शिव मंदिर में अपने गर्भ में एक रोशनी को प्रवेश करते हुए देखा था।
रामकृष्ण परमहंस सिर से पांव तक आत्मा की ज्योति से परिपूर्ण थे। उन्हें आनंद, पवित्रता तथा पुण्य की प्रभा घेरे रहती थीं। वे दिन-रात चिंतन में लगे रहते थे। सांसारिक सुख, धन-समृद्धि का भी उनके सामने कोई मूल्य नहीं था। जब उनके वचनामृत की धारा फूट पड़ती थी, तब बड़े-बड़े तार्किक भी अपने आप में खोकर मूक हो जाते थे।
उनकी वचनामृत की शैली वैसी ही थी जैसी कि भारत के प्राचीन ऋषि-मुनि, महावीर और बुद्ध की थी और जो परंपरा से भारतीय संतों के उपदेश की पद्धति रही है। रामकृष्ण परमहंस अपने उपदेशों में तर्कों का सहारा कम लेते थे, जो कुछ समझाना होता वे उसे उपमा और दृष्टांतों से समझाते थे।
ऐसे सनातन परंपरा की साक्षात प्रतिमूर्ति कहे जाने वाले महात्मा थे रामकृष्ण परमहंस। सन् 1885 के मध्य में उन्हें गले की बीमारी के चिह्न नजर आए और शीघ्र ही बीमारी ने गंभीर रूप धारण किया जिससे वे मुक्त न हो सके और 16 अगस्त सन् 1886 को उन्होंने महाप्रस्थान किया। विवेकानंद ने स्वामी रामकृष्ण परमहंस द्वारा दी गई शिक्षा से पूरे विश्व में भारत के विश्व गुरु होने का प्रमाण दिया।