5 mistakes india did with pok: कश्मीर का नाम सुनते ही संघर्ष और राजनीति का एक जटिल ताना-बाना सामने आता है। इस विवाद का एक बड़ा हिस्सा है पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (POK)। यह वो क्षेत्र है जिसे पाकिस्तान अवैध रूप से नियंत्रित करता है, जबकि भारत इसे अपना अभिन्न अंग मानता है। लेकिन सवाल यह उठता है कि आखिर कैसे भारत के हाथ से POK निकल गया? क्या ऐसी कुछ गलतियाँ थीं जो तत्कालीन भारत से हुईं और जिनके कारण यह मामला आज तक उलझा हुआ है? आइए जानते हैं ऐसी 5 प्रमुख गलतियों के बारे में, जिनकी वजह से POK का मुद्दा आज भी एक जटिल चुनौती बना हुआ है।
1. संयुक्त राष्ट्र में जल्दबाजी: एक रणनीतिक चूक
1947 में जब पाकिस्तानी कबायलियों ने कश्मीर पर हमला किया, तब महाराजा हरि सिंह ने भारत के साथ विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए। भारतीय सेना ने तेजी से मोर्चा संभाला और घुसपैठियों को खदेड़ना शुरू किया। लेकिन तभी, तत्कालीन भारतीय नेतृत्व ने एक बड़ी रणनीतिक चूक करते हुए संयुक्त राष्ट्र (UN) का दरवाजा खटखटाया। यह सोचा गया था कि UN जल्द हस्तक्षेप कर शांति स्थापित करेगा।
यह एक ऐसी गलती थी जिसने मामले को अंतरराष्ट्रीय मंच पर पहुंचा दिया और इसे द्विपक्षीय मुद्दा बनाने के बजाय एक जटिल अंतरराष्ट्रीय विवाद बना दिया। पाकिस्तान ने इस मौके का फायदा उठाया और UN के प्रस्तावों का दुरुपयोग कर अपनी अवैध उपस्थिति को मजबूती दी। यदि भारत सैन्य कार्रवाई जारी रखता और पूरे कश्मीर को आजाद करा लेता, तो शायद आज POK का मुद्दा होता ही नहीं।
2. युद्ध विराम की घोषणा: अधूरा छोड़ा गया काम
जब भारतीय सेना POK के बड़े हिस्से को वापस लेने में सफल हो रही थी, तभी 1 जनवरी 1949 को युद्ध विराम की घोषणा कर दी गई। यह निर्णय उस समय लिया गया जब भारतीय सेना सैन्य बढ़त पर थी और POK के भीतर गहराई तक घुस चुकी थी। इस युद्ध विराम ने पाकिस्तान को उन क्षेत्रों पर नियंत्रण बनाए रखने का मौका दे दिया जिन पर उसने अवैध रूप से कब्जा कर रखा था।
कई विशेषज्ञों का मानना है कि यह एक अपरिपक्व और अदूरदर्शी निर्णय था। यदि सैन्य अभियान जारी रहता, तो शायद POK को पूरी तरह से भारत में मिलाया जा सकता था। युद्ध विराम ने एक ऐसी रेखा खींच दी, जिसे आज नियंत्रण रेखा (LoC) के नाम से जाना जाता है, और यह कश्मीर समस्या की जड़ बन गई।
3. जनमत संग्रह की पेशकश: एक और आत्मघाती कदम
संयुक्त राष्ट्र में जाते ही भारत ने जनमत संग्रह की पेशकश कर दी। हालाँकि भारत का इरादा कश्मीरियों की इच्छा का सम्मान करना था, लेकिन यह एक रणनीतिक भूल साबित हुई। पाकिस्तान ने इस पेशकश का इस्तेमाल अंतरराष्ट्रीय समुदाय को यह दिखाने के लिए किया कि कश्मीर एक विवादित क्षेत्र है और वहां के लोगों को अपना भविष्य तय करने का अधिकार है।
पाकिस्तान ने कभी भी जनमत संग्रह की शर्तों को पूरा नहीं किया और POK से अपनी सेना नहीं हटाई, जो जनमत संग्रह के लिए पहली शर्त थी। इस पेशकश ने पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर कश्मीर मुद्दे को जीवित रखने का एक बहाना दे दिया, और आज भी यह एक ऐसा हथियार है जिसका इस्तेमाल वह भारत के खिलाफ करता है।
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4. नेहरू-लियाकत समझौते की सीमाएं: विश्वासघात की नींव
1950 में नेहरू-लियाकत समझौता हुआ, जिसका उद्देश्य दोनों देशों के बीच अल्पसंख्यकों की सुरक्षा सुनिश्चित करना था। हालाँकि यह समझौता मानवीय दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण था, लेकिन यह POK की स्थिति को स्पष्ट करने में विफल रहा। पाकिस्तान ने इस समझौते का उपयोग POK में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए किया, जबकि भारत ने इस पर कोई ठोस कार्रवाई नहीं की।
यह समझौता POK पर भारत के दावे को और कमजोर करने वाला साबित हुआ, क्योंकि इसने पाकिस्तान को वहां अपनी प्रशासनिक और सैन्य उपस्थिति को वैधता प्रदान करने का अवसर दिया।
5. गिलगित-बाल्टिस्तान पर ढीली पकड़: रणनीतिक अनदेखी
गिलगित-बाल्टिस्तान (POK का उत्तरी भाग) रणनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। 1947 से पहले यह जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा था। लेकिन भारत ने इस क्षेत्र पर अपनी पकड़ मजबूत करने में चूक कर दी। पाकिस्तान ने इस क्षेत्र को अवैध रूप से अपने कब्जे में ले लिया और इसे अपने प्रांतों की तरह प्रशासित करना शुरू कर दिया, जबकि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह एक विवादित क्षेत्र है।
आज, चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) इसी क्षेत्र से होकर गुजरता है, जो भारत की संप्रभुता का सीधा उल्लंघन है। यदि भारत ने शुरुआत में ही गिलगित-बाल्टिस्तान पर अपनी दावेदारी को मजबूती से पेश किया होता और वहां की स्थिति को लेकर अधिक सक्रियता दिखाई होती, तो शायद आज यह चीन के हाथों में एक महत्वपूर्ण मोहरा नहीं होता।