कोलकाता। सांस्कृतिक पुनर्निर्माण मिशन की ओर से आयोजित हिन्दी मेला में भारतीय भाषा परिषद सभागार में सुपरिचित साहित्यकार अभिज्ञात के कविता संग्रह 'ज़रा सा नास्टेल्जिया' का लोकार्पण प्रख्यात आलोचक डॉ. विजय बहादुर सिंह ने किया। इस समारोह में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से जुड़े सुपरिचित आलोचक प्रो. सूर्यनारायण, भारतीय भाषा परिषद के निदेशक डॉ. शंभुनाथ, साहित्यकार प्रो. अंजुमन आरा विशेष तौर पर उपस्थित थे। कार्यक्रम का संचालन संजय जायसवाल ने किया।
डॉ. विजय बहादुर सिंह ने कहा कि जब कविता संग्रह ज़रा सा नास्टेल्जिया मिला तो मै चौंका कि जब आधुनिकता की आंधी बह रही हो तो नास्टेल्जिया के कवि किस हिम्मत से सामने आ रहे हैं। लेकिन बहुत विनम्रता से यह कह रहे हैं कि मैं ज़रा सा नास्टेल्जिक हूं। जब मैं कविताओं को पढ़ने लगा तो इन कविताओं ने मुझे पकड़ना शुरू किया।
हम आलोचकों की बहुत खराब आदत है कि हमारा जो स्वभाव, संस्कार और संवेदना और सोच का जो स्तर बन जाता है, उसमें सभी कविताएं हमको खींच नहीं पातीं, क्योंकि पूरी की पूरी परम्परा, पूरा का पूरा समय हमारे सामने रहता है। उस समय बहुत मुश्किल है कि कोई नयी आवाज़, नयी भाषा, नयी दृष्टि, नयी संवेदना हमको प्रभावित कर पाए। लेकिन जब मैं देखता हूं कि कोई कवि अपने समय में रहते हुए भी अपने समय से एक अलग निर्वाह रखता है और एक प्रकार से अलग प्रकार की अभिव्यक्ति को पा जाता है तब उसकी रचनाएं या उसका रचनात्मक लेखन हमें आकृष्ट करने लगता है, अभिज्ञात की कविताओं में मुझे यह दिखा।
मैंने देखा के वे अपने घर-परिवार से लेकर रोजमर्रा के संघर्षों को लेकर और जो समय है उसको लेकर लिखते हैं। उनकी कविताएं किसी बाहर की दुनिया पर लिखी कविताएं नहीं हैं। चूंकि ये गांव के हैं तो गांव की स्मृति इसमें है। ऐसे दौर में जब युवा वर्ग को बूढ़े मां-बाप भी पसंद नहीं रहे तो ऐसे में ज़रा सा नास्टेल्जिया महत्वपूर्ण हो जाता है। हमें वस्तुतः एक और दुनिया में लौटना चाहिए, जो बहुत मानवीय है, बहुत संवेदनशील है और जो केवल आत्मकेन्द्रित नहीं है। या फिर केवल व्यावसायिक सम्बंध पर निर्भर नहीं है।
हमें हमारी जो पुरानी दुनिया थी, उसमें लौटना चाहिए, वो चाहे जितनी पुरानी दुनिया हो। अगर आप प्रेमचंद का महाजनी सभ्यता वाला लेख पढ़ें तो उसमें रूसी लाल क्रांति की तारीफ़ के साथ साथ वे सामंतवादी मूल्यों की बहुत तारीफ़ भी प्रेमचंद कर रहे हैं। इसका मतलब है कि बहुत कुछ पुराना है यदि अच्छा है तो उसे लेकर और बहुत कुछ नया है जो जीने लायक नहीं है, उसे छोड़कर जो रास्ता निकलता है ज़िन्दगी का, शायद वही मनुष्यता का सबसे खूबसूरत रास्ता होता है।
अभिज्ञात की कविताओं को पढ़ते हुए यह लगता है। घर-परिवार, नाते-रिश्तेदारी, माता-पिता, आस-पास के लोग, शहर में अगल-बगल चलते लोग, चीज़ें, घटनाएं किस तरह से हमारी ज़िन्दगी को बनाती रहती हैं और हम निरंतर बनाए जाते रहते हैं और बनते रहते हैं, यह इस संग्रह को पढ़कर महसूस होता है। इस रूप में यह संग्रह मेरे लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है।
दूसरी बात यह कि इसमें संवेदना और विचार, दोनों बहुत ढंग से पिराए गए हैं। कभी-कभी लोगों के पास विचार बहुत होता है, जिससे निरसता आती है और कुछ लोगों को पास संवेदना बहुत होती है लेकिन दृष्टि बहुत बाधित करती है, जीने को। तो इसमें एक संतुलन भी पैदा करने की कोशिश की गयी है। पेशे से पत्रकार अभिज्ञात का सम्पर्क रोज बाहरी दुनिया से रहता है, उस दुनिया में केवल खबर ही सबसे बड़ी नायक होती है, दूसरी ओर कविता भी अपने समय की सबसे प्रामाणिक आवाज़ होती है, तो दोहरी जिम्मेदारी का आभास इस संग्रह को पढ़ते हुए भी होता है।