जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल 2014 का वह सत्र याद कर रही हूँ जब पौराणिक कथाओं के रचयिता नरेन्द्र कोहली ऊर्जा से भरपूर दिखाई दिए थे। इस सत्र में नरेन्द्र कोहली ने 'कुंभ स्नान' शीर्षक की व्यंग्य रचना पढ़कर और महाभारत' की प्रासंगिकता पर अपनी बेबाक शैली से दर्शकों का दिल जीत लिया था।
बाद में इंदौर लिट्रेचर फेस्टिवल में उनसे रुबरु होने का सौभाग्य मिला ....बात नहीं हो पाई....
जयपुर लिट्रेचर फेस्टिवल में यशस्वी तेजस्वी नरेन्द्र कोहली ने 'महाभारत' की प्रासंगिकता को रोचक उदाहरणों के साथ प्रस्तुत किया था....वे बोले थे द्रौपदी का दर्द सबको है, मुझे भी है लेकिन तब भी भरी सभा में वस्त्र खींचे गए थे और इस काल में विधानसभा में एक नेत्री की साड़ी खींची गई थी और जब वे मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने भी तत्कालीन नेता की धोती खुलवा दी थी तो आप ही बताएं कि राजनीति कहां बदली?
जब 'महाभारत' के अपने प्रिय पात्र के बारे में उनसे पूछा तो बोले थे कि कृष्ण के सिवा कौन हो सकता है? लेकिन मुझे धर्मराज युधिष्ठिर भी पसंद हैं। जब धर्मराज ने कहा कि मुझे धर्म चाहिए, सत्ता नहीं तो कृष्ण ने कहा कि जनता को ऐसा ही राजा चाहिए।
किस पात्र को पसंद नहीं करते हैं...
उनका जवाब था जिस पात्र से मैं दूर रहना चाहूंगा वह है धृतराष्ट्र।
उनके अनुसार परिवर्तन का खेल सालों में नहीं, हजारों सालों में होता है। जब सब असह्य हो जाता है, तब कृष्ण अवतरित होता है। जिसे सत्य का लोभ है, धर्म का लोभ है लेकिन सत्ता का लोभ नहीं है वही आज के दौर का श्रीकृष्ण होगा।
उस दौर के स्त्री-विमर्श और आज के स्त्री-विमर्श को लेकर उनका कहना था कि ना तब स्त्री की इच्छा पूछी जाती थी और ना ही आज पूछी जाती है। द्रौपदी उस वक्त की स्वतंत्र नारी होकर भी स्वतंत्र नहीं थी। पांडवों के साथ इतनी रानियों में से कोई नहीं जाती, पर वह जाती है। वह युधिष्ठिर से भी खुलकर सवाल करती है। वह पांचों को डांट-डपट सकती है...।
उन्होंने प्रासंगिकता के आधार पर सैरंध्री की कथा पेश की थी।
'वेबदुनिया' ने सवाल किया था कि सैरंध्री तब भी असुरक्षित थी और आज भी है, तो क्या उसे भी दंड और क्षमा में से किसी एक को चुनना चाहिए?
कोहलीजी ने जवाब दिया था कि यह व्यवस्था का दोष है... सैरंध्री क्या, आज कोई भी सुरक्षित नहीं है। नरेन्द्रजी ने माना था कि स्वयं नारी को भी सशक्त होना होगा।
क्या वाचिक परंपरा से 'महाभारत' में बदलाव आया है? तब उन्होंने आकर्षक अंदाज में जवाब दिया कि तुलसी का ज्ञान और दर्शन वाल्मीकि की रामायण से इस तरह से जुड़ा कि वह पूर्व से श्रेष्ठतम होकर समाज तक पहुंचा।
मिलेजुले सवालों पर उनके सटीक जवाब थे : जो दुर्बल होता है, उसे हर युग में दबाया जाता है। धन, पद और कद की वजह से किसी को यह अधिकार नहीं मिल जाता है कि वह धर्म की मर्यादा का उल्लंघन करे। जो राजा अपने-पराए में भेद करता है वह न जनप्रिय है, न धर्मप्राण। कोई लेखक अपने समय से स्वतंत्र नहीं होता।
कितनी बातें,कितने सम्वाद, कितने शब्द और कितने विचारों के साथ आज उनके चाहने वाले उन्हें याद कर रहे हैं...आज साहित्य का दमदार वनराज खामोश हो गया है...पौराणिक और ऐतिहासिक चरित्रों को अपनी सम्पूर्ण कुशलता से गुंथ कर वे महाप्रयाण कर गए हैं लेकिन कहाँ जा सकेंगे अपने पाठकों के दिल से.... तमाम पौराणिक चरित्र की तरह ही उन्हें फिर फिर रचने वाला भी अमर ही रहेगा...