भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को गणेश चतुर्थी कहते हैं। इस से 10 दिवसीय गणेश उत्सव प्रारंभ हो जाते हैं जो अनंत चतुर्दशी तक चलते हैं। अंग्रेजी कैलेंडर के अनुसार इस बार यह त्योहार 10 सितंबर 2021 शुक्रवार से प्रारंभ होगा और 19 सितंबर तक चलेगा। आओ जानते हैं कि इस बार कौनसे शुभ संयोग बन रहे हैं और क्या है पर्व की 10 खास बातें।
मुहूर्त : ज्योतिषियों के अनुसार ग्रह, नक्षत्र व पंचांग की श्रेष्ठ स्थिति में गणेश पूजन करें : गणेश पूजन के लिए मध्याह्न खास मुहूर्त 11:03:03 से 13:32:58 तक रहेगा।
शुभ संयोग :
1. इस बार चतुर्थी पर पांच ग्रह अपनी श्रेष्ठ स्थिति में विद्यमान रहेंगे। इनमें बुध कन्या राशि में, शुक्र तुला राशि में, राहु वृषभ राशि में, केतु वृश्चिक राशि तथा शनि मकर राशि में विद्यमान रहेंगे। बाजार में उन्नती होगी।
2. इस बार 10 सितंबर को चित्रा-स्वाति नक्षत्र के साथ रवियोग रहेगा। चित्रा नक्षत्र शाम 4.59 बजे तक रहेगा और इसके बाद स्वाति नक्षत्र लगेगा। वहीं सुबह 5.42 बजे से दोपहर 12.58 बजे तक रवि योग रहेगा।
3. इस बार मंगल बुधादित्य योग भी रहेगा। सूर्य, मंगल और बुध तीनों ग्रह का एक ही राशि में युति कृत होने से इस योग का निर्माण होता है। यह योग नए कार्य के आरंभ के लिए अति श्रेष्ठ है।
3. इस बार चतुर्थी पर सुबह 11 बजकर 9 मिनट से रात 10 बजकर 59 मिनट तक पाताल निवासिनी भद्रा रहेगी। कहते है कि यह स्थिति धन देने वाली गई है। भद्रा का असर गणेशजी को विराजित करने और उनकी पूजा करने पर नहीं पड़ेगा।
4. भादो मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी शुक्रवार के दिन चित्रा नक्षत्र, ब्रह्म योग, वणिज करण व तुला राशि के चंद्रमा की साक्षी में आ रही है। वणिज करण की स्वामिनी माता लक्ष्मी हैं। अर्थात गणेश के साथ माता लक्ष्मी का आगमन होगा। भगवान गणेश रिद्धि सिद्धि व शुभ लाभ के प्रदाता मने गए हैं।
आओ जानते हैं 10 खास बातें :
1. शिव पुत्र पार्वती नंदन गणेशजी की दो पत्नियां हैं रिद्धि और सिद्धि। यह दोनों विश्वकर्मा की पुत्रियां थीं। उनके पुत्रों का नाम है लाभ और शुभ और उनकी पुत्री का नाम है संतोषी माता।
2. गणेशजी के 12 प्रमुख नाम हैं- सुमुख, एकदंत, कपिल, गजकर्णक, लम्बोदर, विकट, विघ्ननाशक, विनायक, धूम्रकेतु, गणाध्यक्ष, भालचन्द्र और गजानन। उनके प्रत्येक नाम के पीछे एक कथा है।
3. गणेशजी ने सतयुग में महोत्कट विनायक नाम से अवतार लेकर और देवतान्तक का वध किया था। त्रेतायुग में मयूरेश्वर नाम से अवतार लेकर सिंधु नामक दैत्य का विनाश किया था। द्वापर युग में गजानन या गजमुख नाम से अवतार लिया और सिंधुरासुर का वध किया। साथ ही उन्होंने महाभारत भी लिखी।
4. पंजदेवों में गणेशजी की भी पूजा की जाती है। ये पंच देव है शिवजी, विष्णुजी, दुर्गाजी, सूर्यदेव और गणेशजी।
गणेश जी की पूजा वैदिक और अति प्राचीन काल से की जाती रही है।
5. गणेशजी के जन्म के दो सिद्धांत ज्यादा प्रचलित है। पहला यह कि माता पार्वती ने पुत्र की प्राप्ति के लिए पुण्यक नामक उपवास या व्रत किया था। इसी उपवास के चलते माता पार्वती को श्री गणेश पुत्र रूप में प्राप्त हुए। बाद में जब सभी पुत्रों को देखने आए तो शनि की दृष्टि पड़ने से उनका मस्तक कटकर चंद्रलोक में चला गया। तब उनके धड़ पर हाथी के बच्चे का मस्तक लगाया गया। दूसरी कथा के अनुसार माता पार्वती ने जया और विजया के कहने पर अपने मेल से गणेशजी की उत्पत्ति की और उन्हें द्वार पर पहरा देने के लिए नियुक्त कर दिया। वहां शिवजी पहुंचे और गणेशजी ने उन्हें भीतर जाने से रोक दिया। तब शिवजी ने उनका मस्तक काट दिया। माता पार्वती के क्रोध के बाद उनके धड़ पर हाथी के बच्चे का सिर लगाया गया।
6. एक बार शिवजी की तरह ही गणेशजी ने कैलाश पर्वत पर जाने से परशुरामजी को रोक दिया था। उस समय परशुमरा कर्तवीर्य अर्जुन का वध करके कैलाश पर शिव के दर्शन की अभिलाषा से गए हुए थे। वे शिव के परम भक्त थे। गणेशजी के रोकने पर परशुरामजी गणेशजी से युद्ध करने लगे। गणेशजी ने उन्हें धूल चटा दी तब मजबूर होकर उन्होंने शिव का दिए फरसे का उन पर प्रयोग किया जिसके चलते गणेशजी का बायां दांत टूट गया। तभी से वह एकदंत कहलाने लगे।
7. कहते हैं कि भगवान श्रीकृष्ण पर स्यमन्तक मणि की चोरी करने का झूठा आरोप लगा था जिसके चलते वे अपमानित हुए थे। इस कलंक से मुक्ति के लिए नारदजी ने बताया कि आपने भाद्रपद शुक्लपक्ष की चतुर्थी को भूलवश से चंद्र दर्शन कर लिया था। इसलिए आप पर यह कलंक लगा है। क्योंकि इस दिन चंद्रमा को गणेश जी ने श्राप दिया था। इसलिए जो इस दिन चंद्र दर्शन करता है उसपर झूठा आरोप लगता है। इस कलंक से मुक्ति के लिए अब आपको गणेश चतुर्थी का व्रत करना होगा तभी आप दोष मुक्त हो पाएंगे। तभी से चतुर्थी के दिन चंद्र का दर्शन नहीं किया जाता है।
8. प्रत्येक मास के कृष्णपक्ष की चतुर्थी को संकष्टी गणेश चतुर्थी और शुक्लपक्ष की चतुर्थी को वैनायकी गणेश चतुर्थी मनाई जाती है। परंतु भाद्रपद के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को उनका जन्म हुआ था इसलिए यह खास दिवस है। अगर मंगलवार को यह गणेश चतुर्थी आए तो उसे अंगारक चतुर्थी कहते हैं। जिसमें पूजा व व्रत करने से अनेक पापों का शमन होता है। अगर रविवार को यह चतुर्थी पड़े तो भी बहुत शुभ व श्रेष्ठ फलदायी मानी गई है।
9. एक बार विष्णु भगवान ने अपने विवाह में शिवजी सहित सभी देवताओं को निमंत्रण भेजे गए, परंतु गणेशजी को नहीं। भगवान विष्णु की बारात जाने के समय सभी देवता आपस में चर्चा करने लगे कि गणेशजी नहीं है? फिर सभी ने विष्णुजी से पूछा तो उन्होंने कहा कि हमने गणेशजी के पिता भोलेनाथ महादेव को न्योता भेजा है। यदि गणेशजी अपने पिता के साथ आना चाहते तो आ जाते। बाद में जब यह बात गणेशजी को पचा चली तो उन्होंने अपनी मूषक सेना आगे भेजकर मार्ग को भीतर से पोला करवा दिया। जब बारात वहां से निकली तो रथों के पहिए धरती में धंस गए। लाख कोशिश करें, परंतु पहिए नहीं निकले। तब नारदजी ने कहा- आप लोगों ने गणेशजी का अपमान करके अच्छा नहीं किया। यदि उन्हें मनाकर लाया जाए तो आपका कार्य सिद्ध हो सकता है और यह संकट टल सकता है। फिर शंकर भगवान ने अपने दूत नंदी को भेजा और वे गणेशजी को लेकर आए। गणेशजी का आदर-सम्मान के साथ पूजन किया, तब कहीं रथ के पहिए निकले।
10. पूर्वकाल में पार्वती देवी को देवताओं ने अमृत से तैयार किया हुआ एक दिव्य मोदक दिया। मोदक देखकर दोनों बालक (कार्तिकेय तथा गणेश) माता से मांगने लगे। तब माता ने मोदक के महत्व का वर्णन कर कहा कि तुममें से जो धर्माचरण के द्वारा श्रेष्ठता प्राप्त करके सर्वप्रथम सभी तीर्थों का भ्रमण कर आएगा, उसी को मैं यह मोदक दूंगी। माता की ऐसी बात सुनकर कार्तिकेय ने मयूर पर आरूढ़ होकर मुहूर्तभर में ही सब तीर्थों का स्नान कर लिया। इधर गणेश जी का वाहन मूषक होने के कारण वे तीर्थ भ्रमण में असमर्थ थे। तब गणेशजी श्रद्धापूर्वक माता-पिता की परिक्रमा करके पिताजी के सम्मुख खड़े हो गए।
यह देख माता पार्वतीजी ने कहा कि समस्त तीर्थों में किया हुआ स्नान, सम्पूर्ण देवताओं को किया हुआ नमस्कार, सब यज्ञों का अनुष्ठान तथा सब प्रकार के व्रत, मन्त्र, योग और संयम का पालन- ये सभी साधन माता-पिता के पूजन के सोलहवें अंश के बराबर भी नहीं हो सकते। इसलिए यह गणेश सैकड़ों पुत्रों और सैकड़ों गणों से भी बढ़कर है। अतः यह मोदक मैं गणेश को ही अर्पण करती हूँ। माता-पिता की भक्ति के कारण ही इसकी प्रत्येक यज्ञ में सबसे पहले पूजा होगी।