-डॉ. छाया मंगल मिश्र
कोरोना वायरस के संक्रमण से सारा विश्व हैरान-परेशान है। इसी संदर्भ में चीन का वुहान मार्केट सबकी नजरों में आया और वायरल हुए इस मार्केट के वीडियो पर नजर ठहर गई। साथ में कैप्शन में एक लाइन आपका ध्यान खींच लेगी- 'They will eat anything' (वे कुछ भी खा लेंगे)। दिल दहला देने वाला दृश्य था। कोई इतना स्वार्थी! इतना निर्दयी! इतना क्रूर और प्रकृति का नाशुक्रा कैसे हो सकता है?
धरती, आकाश, जल कहीं भी निवास करने वाला कोई भी पशु-पक्षी, कीड़े चाहे कैसे भी नन्ही-सी जान से लेकर के बड़े से बड़ा शरीरधारी जीव। सभी वहां कट-फटकर बिकाऊ हैं। जिंदा भी अपनी मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं पिंजरे में निरीह! बेचारे। लाचार! अपनों को जिंदा भूनते-कटते हुए देखते! कितना वीभत्स? कितना घृणास्पद?
याद आती हैं मुझे ये पंक्तियां-
धर्मराज यह भूमि किसी की, नहीं क्रीत है दासी,
हैं जन्मना समान परस्पर, इसके सभी निवासी।
सबको मुक्त प्रकाश चाहिए, सबको मुक्त समीरण,
बाधारहित विकास, मुक्त आशंकाओं से जीवन।
पर कहां होता है ऐसा? सर्वाधिक स्वार्थी इंसानों ने धरती, आकाश, जल सभी जगह अपना अतिक्रमण, नाजायज कब्जा जमा लिया है। कोई जगह ऐसी नहीं जहां बाकी के प्रकृति के बच्चे सुकून से जी पाएं। इंसानों की हैवानियत किसी को नहीं बख्श रही।
आकीर्णम् ऋषिपत्निनाम् अटजद्वार ओधिमि:।
अपत्य अरिवनिवार भागधेय:अर्चिते मृगै:।
रघुवंश वशिष्ठ के आश्रम का वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास ने कहा कि आदमी और जानवर में मां-बेटे का रिश्ता कायम था। आश्रम हिरणों से भरपूर था और वे अपने खाने के हिस्से के लिए बच्चों के माफिक अनाज अंदर ले जाती हुई ऋषि पत्नियों का रास्ता अधिकारपूर्वक स्नेह के साथ रोकते थे।
यह तो एक छोटा-सा उदाहरण है। शकुंतला पुत्र भरत तो शेरों के साथ खेला करते थे। ऐसा नहीं है कि सदैव ही आमिष-निरामिष का बंटवारा करके प्रकृति का कहर या महामारियां फैलती हों। पर इतना तो निश्चित है कि जब-जब प्रकृति के संतुलन में मानवों का नाजायज हस्तक्षेप हुआ है, प्रकृति ने हमेशा दंडित किया है।
याद है न 'माल्थस का जनसंख्या सिद्धांत'। 2012 में हम 7 अरब लोगों से अधिक हो गए हैं। 2050 तक 9.6 बिलियन तक पहुंचने की भविष्यवाणी की गई है। इन सभी अतिरिक्त लोगों को जीवित रहने के लिए भोजन, पानी, स्थान और ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
इस अभूतपूर्व विकास ने हमारे पर्यावरण, अर्थव्यवस्थाओं, सरकारों, आधारभूत संरचनाओं व सामाजिक संस्थानों पर भारी दबाव डाला है। हाल के वर्षों में विकसित देशों में वृद्धि अत्यंत धीमी हो चली है, लेकिन सदियों से अतिसंवेदनशीलता दुनियाभर में चिंता का विषय रही है।
पृथ्वी की सीमाओं को सार्वजनिक रूप से संबोधित करने वाले पहले व्यक्तियों में से एक और आबादी के विकास के खतरे से सावधान करने वाले थॉमस रॉबर्ट माल्थस 1766-1834 एक अंग्रेजी विद्वान और पादरी थे जिन्होंने अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि के खतरों के बारे में आगाह किया था, जो आज के परिदृश्य में सार्थक सिद्ध हो रहा है कि जब जब प्रकृति से छेड़खानी होगी वो अपना बदला भी क्रूरता से लेगी, क्योंकि-
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हंसती-हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हीं से रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दंड तो देती है,
पर बूढ़ों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है।
वैदिक सिद्धांत के अनुसार प्रकृति में मूल 3 वर्ग हैं- 'त्रय: कृंवति भुवनस्य रेत' (ऋग्वेद, 7/33/7) अर्थात वरुण, मित्र, अर्यमा। विज्ञान के अनुसार प्रकृति सदैव 3 रूपों में विद्यमान रहती है- कण, प्रतिकण व विकिरण और पंच महाभूतों में पृथ्वी, जल, तेज, वायु व आकाश ही दृश्य जगत में हैं।
हमारा शरीर भी इन्हीं पंच तत्वों का मिश्रण है। जिस अनुपात में ये ब्रह्मांड में विद्यमान हैं, उसी अनुपात में हमारे शरीर में भी विद्यमान हैं। चूंकि हम भी ईश्वर की अनुपम कृति हैं, तो ईश्वरीय लक्षण होना लाजिमी है। हमारे मनीषियों ने पंच तत्वों को याद रखने के लिए ही ये आसन तरीका निकाला कि 'भगवान' व 'अलइलअह' अर्थात अल्लाह।
इसका विश्लेषण- भ- भूमि, पृथ्वी। ग- गगन, आकाश। व- वायु, हवा। अ- अग्नि, आग। न- नीर, जल। अ- आब, पानी। ल- लाब, भूमि। इ- इला, दिव्य पदार्थ, वायु। अ- आसमान, गगन। ह- हरक, अग्नि।
पृथ्वी तत्व में त्रुटि आ जाने से लोग स्वार्थी हो जाते हैं, क्योंकि यह असीम सहनशीलता का द्योतक है। जल तत्व में विकार आने से सौम्यता कम हो जाती है, क्योंकि यह शीतलता प्रदान करता है। हमारी सोचने-विचारने की शक्ति का ह्रास होने लगता है, यदि अग्नि तत्व में विकार आ जाए। यह मस्तिष्क की भेद व अंतर परखने वाली ताकत को सरल बनाता है। वायु तत्व मानसिक व स्मरण शक्ति की क्षमता व नजाकत का पोषण करता है। इसका क्षय इन सभी शक्तियों को दुर्बल करता है। आकाश तत्व शरीर में आवश्यक संतुलन बनाए रखता है।
आइए विचार करें, पिछले कई दशक वर्षों से हम इनके दिए दंड ही बारी-बारी से भुगत रहे हैं।
2004 में हिन्द महासागर का सबसे बड़ा भूकंप जिसके कारण सुनामी, टोंगिवाई आपदा लहर, नेवादा डेल रुईस विस्फोट (1985), 2000 में आई मोजांबिक की बाढ़, उत्तराखंड में भूस्खलन 1998, केदारनाथ आपदा 2013, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया, न्यू साउथवेल्स विक्टोरिया, क्वींसलैंड ऑस्ट्रेलिया जिसने 5-10 वर्षों तक शहरी सूखा आपदा भोगी, 2006 में सिचुआन प्रांत, चीन के पशु व मानव पानी की कमी को झेल रहे हैं, यूरोप की ताप लहर को कैसे भूल सकते हैं?
चक्रवाती तूफान, ऊष्ण कटिबंधीय चक्रवात, आंधी, 1970 का हरिकेन तूफान, भोला चक्रवात, तूफान कैटरीना, संयुक्त राज्य अमेरिका के खाड़ी तट 2005, यही नहीं जंगल की आग की त्रासदी को तो विश्व ने अभी-अभी ही भुगता है। पूरा विश्व ऑस्ट्रेलिया के बुश फायर व अमेजन के जंगलों की आग की तपिश से झुलसा हुआ है। बिजली गिरना, सूखा, अक्षम्य मानवीय त्रुटियां भी इसके प्रमुख कारणों में से हैं।
अंतरिक्ष में किए जाने वाले हस्तक्षेप भी आपदाओं को आमंत्रण दे रहे हैं। 1908 के तुंगुस्का उल्कापात से पेड़ों का गिरना व सौर भड़काव इसी के उदाहरण हैं। इनके अलावा महामारी, जैसे काली मौत, 1918 में स्पेनिश फ्लू, 1957-58 में एशियाई फ्लू, 1968-69 में हांगकांग फ्लू, 2002-03 में सार्स, 1959 में एड्स, टीबी (तपेदिक), मलेरिया व इबोला जैसी कई अन्य बीमारियों की मार झेलनी पड़ी है।
और अब आया है कोरोना...। हमारी गलतियों, हमारी भूलों, निर्दयता, अतिक्रमण, क्रूरता, प्रकृति से कृतघ्नता, जीवों से उनके जीने का हक छीनने का दंड, कठोर दंड देने, सबक सिखाने। यदि अभी भी न सीखा, न समझा, न विचारा और न संभाला तो प्रकृति का तांडव तय है जिसके हम गुनहगार हैं इस सृष्टि की तबाही के, विनाश के।
अभी भी समय है समझें माल्थस के सिद्धांत को, पंच तत्वों के महत्व को और बनाएं अपनी सृष्टि सुंदर, सरस और भयमुक्त, स्वस्थ जीवन के साथ जीवन जीने योग्य और चुकाएं प्रकृति के इस अपूरणीय ऋण को नतमस्तक होकर।