मसाला फिल्म बनाना आसान बात नहीं है, लेकिन न जाने क्यों मिलाप ज़वेरी अपने आपको आज का मनमोहन देसाई मानने पर तुले हुए हैं और मसाला फिल्मों को ही बदनाम कर रहे हैं।
उनकी ताजा फिल्म 'मरजावां' 1980 में भी रिलीज होती तो भी शर्तिया नापसंद की जाती क्योंकि फिल्म में कुछ भी है ही नहीं देखने लायक। कॉपी-पेस्ट का काम किया है मिलन ने और फिर भी ढंग की फिल्म नहीं बना पाए।
मरजावां फिल्म देखते समय आपको कई फिल्मों की याद आएगी। किसी फिल्म से मिलाप ने सीन उड़ाए हैं तो किसी से किरदार। रकुल प्रीत का किरदार देख 'मुकद्दर का सिकंदर' की रेखा याद आएगी। मज़हर नामक कैरेक्टर आपको 'शान' के अब्दुल की याद दिलाएगा, जिसे मज़हर खान ने अभिनीत किया था।
फिल्म के डॉयलॉग मिलन ने पुराने हिट गीतों के मुखड़े से उठा लिए। बाप की हत्या के बाद रितेश बोलते हैं- 'कोई हमदम न रहा कोई सहारा न रहा, हम किसी के न रहे कोई हमारा न रहा।'
गानों पर हाथ साफ करने की बात तो अब बॉलीवुड में नई नहीं रही। फिरोज़ खान की 'जांबाज' और 'दयावान' के दो गानों को रिमिक्स की चक्की में पिस कर फिर से परोस दिया गया। बैकग्राउंड म्युजिक सुन कर आपको 'सिम्बा' और 'सिंघम' जैसी फिल्में याद आएंगी।
इन सबको कॉपी करने के बाद एक घटिया कहानी लिखी गई और किसी तरह इन दृश्यों, किरदारों, संवादों और गानों को इस कहानी में फिट करने की कोशिश की गई, लेकिन यहां पर भी लेखक और निर्देशक मिलन कामयाब नहीं रहे।
अब जो इतनी सारी 'प्रेरणा' पाकर भी ढंग की फिल्म नहीं बना पाए उसे कैसे 'फिल्मकार' कहा जा सकता है। आश्चर्य तो इस बात की है ऐसे लोगों को काम मिल रहा है और इन पर पैसे लगाने वाले लोग भी हैं।
फिल्म की कहानी और स्क्रीनप्ले की चर्चा करना ही फिजूल है। सीन और डायलॉग्स का कोई तालमेल ही नहीं है। कोई भी कभी भी कहीं से भी टपक जाता है। कहानी में इतने सारे अगर-मगर हैं कि याद नहीं रख सकते।
मरजावां पहले सीन से ही नकली लगती है और टॉर्चर का यह सिलसिला फिल्म के खत्म होने के बाद ही खत्म होता है। संभव है कि मरजावां जैसी फिल्म देखने के बाद आपका पूरा दिन खराब हो जाए।
सिद्धार्थ मल्होत्रा पर या तो खराब फिल्म करने का भूत सवार है या फिर उन्हें फिल्में नहीं मिल रही हैं इसलिए जो भी मिल रहा है उससे काम चला रहे हैं। कुछ महीनों पहले उनकी जबरिया जोड़ी के सदमे से दर्शक उबरे नहीं थे कि मरजावां हाजिर है। एक्टिंग करना भी वे भूल गए। केवल माचिस की तीली को मुंह में घुमा कर ही वे अपने आपको 'एंग्री यंग मैन' समझने लगे।
तारा सुतारिया को गूंगी बता कर निर्देशक ने तारा का काम आसान कर दिया, लेकिन फिर भी उनसे एक्टिंग नहीं हुई। फिल्म में उन्हें पढ़ी-लिखी समझदार लड़की बताया, लेकिन सड़कछाप और हत्यारे रघु (सिद्धार्थ) के किरदार में उन्हें क्या नजर आया जो वे उन पर मर मिटी, शायद ये सवाल तारा ने कहानी सुनते समय लेखक से पूछने की जुर्रत नहीं की होगी।
रकुल प्रीत सिंह के अभी इतने बुरे दिन तो नहीं हैं कि वे इस तरह के रोल के लिए हां कह दें। भोजपुरी दर्शकों को खुश करने के लिए रवि किशन को जगह दी गई है।
तीन फुट के विलेन रितेश देशमुख ने खूब कोशिश की, लेकिन खराब स्क्रिप्ट ने उन्हें कुछ भी करने नहीं दिया। यही हाल दक्षिण भारतीय कलाकार नासिर का रहा।
फिल्म में बार-बार रितेश का किरदार उम्मीद की हाइट, सोच की हाइट पर बात करता रहता है। तो उसकी बात से प्रेरित होकर कहा जा सकता है कि बकवास फिल्म की क्या हाइट होती है ये 'मरजावां' देख कर पता चलती है।