दक्षिण भारतीय फिल्म निर्माता-निर्देशकों के बीच जीतेन्द्र बेहद लोकप्रिय रहे हैं। एक समय ऐसा था जब वे गिनी-चुनी मुंबइया फिल्में करते थे। उनका एक पैर मुंबई में तो एक मद्रास (चेन्नई) में रहता था। दरअसल उस समय दक्षिण फिल्मों के निर्माता बेहद अनुशासित तरीके से फिल्में बनाते थे, इसलिए उनकी फिल्म कम समय में तैयार होकर रिलीज हो जाती थी। बॉलीवुड के अन्य सितारें जीतेन्द्र की तरह प्रोफेशनल नहीं थे, इसलिए जीतेंद्र की दक्षिण भारतीय निर्माताओं के साथ पटरी बेहतर तरीके से बैठी। जिस तरह खाने-पीने में जीतेन्द्र ने नियम-कायदों का पालन किया और हमेशा चुस्त-दुरुस्त रहे उसी तरह उन्होंने अपना काम भी पूरी गंभीरता और समर्पण के साथ किया। निर्माता को कभी तंग नहीं किया। यही कारण है कि सीमित प्रतिभा का होने के बावजूद जीतेन्द्र ने लंबी इनिंग खेलते हुए कई सफल फिल्में दीं।
पारिवारिक फिल्म बनाने वाले निर्माताओं की जीतू पहली पसंद थे। रेखा और रीना रॉय के साथ मिलकर उन्होंने महिलाओं को सिनेमाघरों में रुमाल से आंसू पोछने पर मजबूर किया। 1983 के आसपास उनका करियर डावांडोल चल रहा था। रास्ते प्यार के, मेहंदी रंग लाएगी, दीदार-ए-यार और सम्राट जैसी बड़ी फिल्में पिट गई थीं। उनके साथ काम करने वाली हीरोइनों का ग्लैमर फीका पड़ने लगा था। ऐसे समय के. राघवेन्द्र राव अपनी तेलुगु फिल्म ओरिकी मोनागादु का हिंदी रीमेक का प्रस्ताव लेकर जीतेन्द्र के पास पहुंचे। फिल्म का नाम रखा गया हिम्मतवाला और राघवेन्द्र ने बतौर हीरोइन श्रीदेवी का नाम सुझाया। श्रीदेवी उस समय दक्षिण भारत में अपने नाम का डंका बजा चुकी थी। हिंदी फिल्मों में बतौर नायिका उन्होंने सोलवां साल (1978) के जरिये प्रवेश किया था, लेकिन यह फिल्म सोलह दिन भी नहीं चल पाई। राघवेन्द्र उन्हें एक और अवसर देना चाहते थे। इस तरह जीतेन्द्र-श्रीदेवी की जोड़ी जम गई।
हिम्मतवाला के रिलीज होने के पहले किसी को उम्मीद नहीं थी कि यह फिल्म बॉक्स ऑफिस पर तहलका मचाने वाली है। इस सुपरहिट फिल्म ने हिंदी फिल्मों में कुछ परंपराएं शुरू कर दी। गानों में ढेर सारे डांसर्स नजर आने लगे, पृष्ठभूमि में बर्तन, साड़ियां, घड़े, आइने जैसी चीजों का चलन बढ़ गया, कादर खान-शक्ति कपूर-अमजद खान जैसे अभिनेताओं ने अपनी इमेज बदली, द्विअर्थी संवादों का बोलबाला हो गया और सबसे खास बात जीतेन्द्र-श्रीदेवी की जोड़ी सफलता की गारंटी माने जानी लगी। हिम्मतवाला की सफलता के बाद जीतेन्द्र-श्रीदेवी की सफलता को भुनाने के लिए निर्माता टूट पड़े और 1983 में ही उनकी तीन फिल्में जानी दोस्त, जस्टिस चौधरी और मवाली रिलीज हुईं और सभी ने कामयाबी के झंडे गाड़े।
जीतेन्द्र-श्रीदेवी की जोड़ी को लेकर सफलता का एक नुस्खा तैयार हो गया। हीरो-हीरोइन की थोड़ी चुहलबाजी, कादर-शक्ति की फूहड़ कॉमेडी और संवाद, आइस्क्रीम खाओगी-साथ मेरे आओगी, लडकी नहीं है तू लकड़ी का खंबा है बक-बक मत कर नाक तेरा लंबा है, बाप की कसम मां की कसम जैसे चलताऊ लेकिन सुपरहिट गाने और कहानी के नाम पर थोड़े बहुत उतार-चढ़ाव। इस नुस्खे ने दर्शकों पर नशा सा कर दिया। ये नशा जब तक उतरे उसके पहले दोनों की धड़ाधड़ फिल्में दर्शकों के सामने परोस दी दी गई। जीतेन्द्र और श्रीदेवी की साथ में की गई कई फिल्में स्तरीय नहीं कही जा सकती है, लेकिन उस वक्त कुछ दौर ही ऐसा था। बॉलीवुड पर वीसीआर का हमला हुआ था। धनवान और समझदार लोगों के ड्राइंगरूम सिनेमाघर में तब्दील हो गए थे। घर पर फिल्म देखना शान की बात मानी जाती थी। थिएटर में निचले तबके के लोग जाकर मनोरंजन करते थे। इसलिए उनकी पसंद की फिल्में बनने लगी थीं।
जीतेन्द्र-श्रीदेवी की जोड़ी को आम आदमी ने खूब पसंद किया। श्रीदेवी का मासूम चेहरा और भरा-पूरा बदन एक अनोखा कॉम्बिनेशन था। साथ ही उनकी चुलबुली अदाएं दर्शकों को घायल कर देती थी। दूसरी ओर जीतेन्द्र के किरदार कुछ गंभीरता लिए रहते थे, इसलिए यह जोड़ी आग और शोला जैसी लगती थी। दोनों के डांस मूवमेंट देखने लायक होते थे और गानों के फिल्मांकन में पूरी ताकत झोंक दी जाती थी। टाइट पेंट पहने जीतेन्द्र की ड्रेस फैंसी ड्रेस से कम नहीं होती थी। उस दौर में जीतेन्द्र ने जया प्रदा के साथ भी खूब फिल्में की, लेकिन श्रीदेवी और जयाप्रदा के साथ की गई फिल्मों में अंतर होता था। सीधी-सादी नायिका का रोल होता तो वो जया के खाते में जाता और बिंदास लड़की की भूमिका में श्रीदेवी को चुना जाता। जीतेन्द्र-जया प्रदा या जीतेन्द्र-श्रीदेवी का नाम पोस्टर पर पढ़कर आम दर्शक अंदाजा लगा लेता था कि किस तरह की फिल्म होगी।
जीतेन्द्र-श्रीदेवी की ज्यादातर फिल्में फायदे का सौदा साबित हुई। जीतेन्द्र ने भी अपनी और श्रीदेवी की जोड़ी की सफलता का लाभ उठाना चाहा। सरफरोश (1985) और आग और शोला (1986) उन्होंने श्रीदेवी के साथ बनाई जो बुरी तरह फ्लॉप रही। दरअसल जीतेंद्र ने निर्माता बन कई फिल्मों में अभिनय से कमाया गया पैसा गंवाया और बाद में उन्होंने फिल्म निर्माण से तौबा कर ली, लेकिन इसी जीतेन्द्र की बेटी एकता कपूर इस समय बॉलीवुड की सफल निर्माताओं में से एक है। निर्माता बन जो जीतेन्द्र हासिल नहीं कर पाए वो एकता ने कर दिखाया, इसीलिए उन्हें अपनी बेटी पर गर्व है।
जीतेन्द्र-श्रीदेवी ने पांच वर्ष में सोलह के करीब फिल्मों में काम किया। राज-नर्गिस या धरम-हेमा की जोड़ी टेस्ट क्रिकेट की तरह लंबी चली जबकि जीतू-श्री की जोड़ी की तुलना हम टी-20 क्रिकेट से कर सकते हैं जिसने कम समय में खूब सारी फिल्म कर धूम मचा दी। धीरे-धीरे जादू उतरने लगा। जीतेन्द्र के चेहरे पर उम्र के निशान गहरे हो गए और श्रीदेवी ने सनी देओल, अनिल कपूर जैसे नए हीरो का दामन थाम लिया। जीतेन्द्र का सहारा लेकर श्रीदेवी नंबर वन के सिंहासन पर विराजमान हो गईं। दूसरी ओर जीतेन्द्र ने अपने से बाइस वर्ष छोटी श्रीदेवी का सहारा लेकर अपने करियर को लंबा कर लिया। नंबर वन बनते ही श्रीदेवी चूजी हो गईं। हीरो की बराबरी का रोल मांगने लगी, लेकिन इससे दोनों के संबंधों में कोई कड़वाहट नहीं आई। दोनों इस बात से अच्छी तरह परिचित थे कि उनकी जोड़ी का रस पूरीर तरह निचोड़ा जा चुका है और साथ में फिल्म करने का कोई मतलब नहीं है।
जिस तरह राज कपूर-नरगिस की जोड़ी क्लासिक, धरम-हेमा की जोड़ी को मेड फॉर इच अदर और ऋषि-नीतू की जोड़ी युवा जोड़ी कहलाती है उसी तरह जीतू-श्रीदेवी की जोड़ी को हम चटक रंगों वाली ऐसी जोड़ी मान सकते हैं जिसने फुल्ली एंटरटेन किया।
प्रमुख फिल्में : हिम्मत वाला (1983), जानी दोस्त (1983), जस्टिस चौधरी (1983), मवाली (1983), तोहफा (1984), अकलमंद (1984), बलिदान (1985), सरफरोश (1985), आग और शोला (1986), सुहागन (1986), धर्माधिकारी (1986), घर संसार (1986), मजाल (1987), औलाद (1987), हिम्मत और मेहनत (1987)