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Written By BBC Hindi
Last Updated : बुधवार, 31 जनवरी 2024 (07:49 IST)

नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी: क्या हमेशा के लिए मिट जाएंगी दूरियां?

नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी: क्या हमेशा के लिए मिट जाएंगी दूरियां? - nitish kumar and narendra modi : will the distance disappear forever?
आदर्श राठौर, बीबीसी हिन्दी के लिए
रविवार 28 जनवरी को जब नीतीश कुमार ने बीजेपी विधायकों के समर्थन से मुख्यमंत्री पद की शपथ ली तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक्स (पहले ट्विटर) पर उन्हें बधाई दी। उन्होंने लिखा, 'बिहार में बनी एनडीए की सरकार राज्य के विकास और यहां के लोगों की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी।'
 
इसके बाद, नीतीश कुमार ने एक्स पर पीएम का धन्यवाद किया और कहा कि वह उनके सहयोग के लिए हृदय से धन्यवाद करते हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र और राज्य में एनडीए की सरकार होने से विकास कार्यों को गति मिलेगी और राज्यवासियों की बेहतरी होगी।
 
दोनों राजनेताओं के बीच हुआ यह संवाद बहुत ही सौहार्द भरा नज़र आता है, लेकिन क्या यही बात उनके रिश्तों को लेकर कही जा सकती है?
 
एक-दूसरे के ख़िलाफ़ तीखी भाषा इस्तेमाल करते रहे इन नेताओं के बारे में क्या यह कहा जा सकता है कि अब उन्होंने पुरानी तल्ख़ी ख़त्म कर रिश्ते में नई शुरुआत कर दी है?
 
यह सवाल इसलिए भी अहम है क्योंकि इससे नीतीश कुमार और बीजेपी के रिश्ते के भविष्य का भी आकलन किया जा सकता है।
 
ऐसा इसलिए, क्योंकि नीतीश और बीजेपी का तीन दशक का नाता नरेंद्र मोदी के बीजेपी के राष्ट्रीय नेतृत्व के शिखर पर पहुंचते ही 'लव-हेट रिलेशनशिप' में बदल गया था।
 
बीजेपी से 'दोस्ती', मोदी से 'बैर'
साल 1994 में नीतीश कुमार जनता दल से अलग हुए और जॉर्ज फर्नांडीस के साथ मिलकर समता पार्टी की नींव रखी। इसके बाद वह भारतीय जनता पार्टी के क़रीब आ गए।
 
समता पार्टी ने साल 1996 और 1998 के लोकसभा चुनाव बीजेपी के साथ मिलकर लड़े थे। नीतीश कुमार वाजपेयी सरकार में मंत्री भी रहे।
 
फिर साल 2000 के बिहार विधानसभा चुनाव में एनडीए को 151 सीटें मिलीं, जबकि आरजेडी को 159। दोनों दल बहुमत से दूर थे फिर भी नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। बहुमत साबित न कर पाने की वजह से सात दिन के अंदर उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा।
 
इस बीच, वह केंद्र की वाजपेयी सरकार में मंत्री बने रहे। उस समय तक नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री बन चुके थे।
 
दिसंबर 2003 में बतौर रेल मंत्री नीतीश कुमार गुजरात के कच्छ में एक रेल परियोजना का उद्घाटन करने पहुंचे थे। उस दौरान नीतीश ने नरेंद्र मोदी की तारीफ़ करते हुए उन्हें भावी राष्ट्रीय नेता बताया था।
 
भारतीय जनता पार्टी ने अपने आधिकारिक यूट्यूब चैनल पर उस भाषण का वीडियो डाला है। इसमें नीतीश कह रहे हैं, “मुझे पूरी उम्मीद है कि बहुत दिन गुजरात के दायरे में सिमटकर नरेंद्र भाई नहीं रहेंगे, देश को इनकी सेवाएं मिलेंगी।”
 
लेकिन वही नरेंद्र मोदी जब बाद में जब राष्ट्रीय राजनीति में दस्तक देने लगे, तब नीतीश ने बीजेपी से रास्ता अलग कर लिया था।
 
विज्ञापन और डिनर पर विवाद
साल 2003 में समता पार्टी और जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) का विलय हो गया। साल 2005 के बिहार विधानसभा चुनाव में जेडीयू और बीजेपी ने मिलकर सरकार बनाई। नीतीश कुमार ने फिर मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। दोनों दलों के बीच सबकुछ ठीक चलता रहा।
 
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी बताती हैं, "2010 तक नीतीश कुमार भावी प्रधानमंत्री के रूप में देखे जाते थे। ऐसा कहा जाता था कि उनमें क्षमता है। उन्हें सुशासन बाबू का कहा जाता था। सांप्रदायिक संतुलन बनाकर रखते थे। मैंने बिहार में घूमकर देखा है कि एनडीए में होने के बावजूद मुसलमान उन्हें काफ़ी पसंद करते थे।"
 
इसके बाद साल 2010 में ऐसी घटना घटी, जिससे पहली बार एहसास हुआ कि नीतीश कुमार और बीजेपी के बीच सबकुछ ठीक नहीं है।
 
जून 2010 में बिहार के पटना में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक थी। नीतीश कुमार ने एनडीए की सहयोगी पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया, लेकिन बाद में इसे रद्द कर दिया गया।
 
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी बताती हैं, "2010 में इस बैठक में हिस्सा लेने आए बीजेपी के वरिष्ठ नेताओं को भेजा गया न्योता इसलिए वापस ले लिया गया था, क्योंकि इसमें नरेंद्र मोदी का भी नाम था। एक मुख्यमंत्री की ओर से ऐसा किया जाना, उस समय बड़ी बात थी।"
 
इस डिनर को रद्द किए जाने की एक और वजह बताई जाती है। वह है, उसी दिन पटना के स्थानीय अख़बारों में छपा एक विज्ञापन जिसमें बिहार में आई बाढ़ के लिए गुजरात की ओर से आर्थिक सहायता दिए जाने के लिए नरेंद्र मोदी का शुक्रिया किया गया था।
 
इस विज्ञापन में नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी की एक तस्वीर थी, जिसमें दोनों ने एक-दूसरे का हाथ पकड़ा था।
 
मगर दोनों के बीच दोस्ती दिखाने वाली ये तस्वीर 2009 में लोकसभा चुनाव से पहले प्रचार की थी, जब पंजाब के लुधियाना में एनडीए के घटक दलों के दोनों नेता मौजूद थे।
 
नीतीश कुमार इससे इतने नाराज़ हुए कि उन्होंने गुजरात सरकार की ओर से दी गई पांच करोड़ रुपये की सहायता भी वापस कर दी थी।
 
नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए उन्होंने कहा था, “आपदा के समय दी गई मदद को इस तरह जताना भारतीय संस्कृति और नैतिकता के ख़िलाफ़ है। ये विज्ञापन बिना मेरी अनुमति के छापा गया है।"
 
मोदी का उभार और नीतीश का अलगाव
साल 2013 के जून महीने में गोवा में बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक हुई, जिसमें नरेंद्र मोदी को अगले साल होने जा रहे लोकसभा चुनाव को देखते हुए चुनाव प्रचार समिति की कमान सौंपी गई।
 
इसके बाद नीतीश कुमार ने नरेंद्र मोदी को 'सांप्रदायिक नेता' बता दिया। उन्होंने एनडीए से दूरी बना ली और अपनी सरकार से बीजेपी के मंत्रियों को हटा दिया।
 
नीतीश कुमार वामदलों, निर्दलीय विधायकों और अन्य के समर्थन से अल्पमत की सरकार चलाते रहे।
 
इस बीच, सितंबर 2013 में बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट घोषित कर दिया। इसके बाद नीतीश कुमार नरेंद्र मोदी को लेकर और आक्रामक हो गए।
 
जब 2014 के लोकसभा चुनाव के प्रचार के लिए नरेंद्र मोदी बिहार गए तो उन्होंने भी नीतीश कुमार पर करारे वार किए।
 
एक जनसभा में मोदी ने नाम लिए बिना कहा था, "जब बिहार में बाढ़ आई थी तो गुजरात के लोगों ने दिल से आपकी मदद के लिए राशि भेजी थी, लेकिन उस नेता के अहंकार ने दर्द के दिनों में उस मदद को ठुकरा दिया। लोकतंत्र में इतना अहंकार कभी जनता माफ़ नहीं करती है।"
 
फिर, 2014 लोकसभा चुनाव के परिणाम आए तो बीजेपी पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में आई और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने।
 
बार-बार यू टर्न
पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं, "जब बीजेपी ने नरेंद्र मोदी को पीएम कैंडिडेट बनाया था, तब नीतीश कुमार ने कहा था कि हम उनसे मिलेंगे तक नहीं। फिर वह अकेले लोकसभा चुनाव लड़े और हार गए। फिर उन्होंने हार की ज़िम्मेदारी लेकर जीतनराम मांझी को सीएम बनाया लेकिन 2015 के विधानसभा चुनावों से पहले दोबारा ख़ुद मुख्यमंत्री बन गए।"
 
2015 में नीतीश कुमार ने अपने चिरप्रतिद्वंद्वी लालू प्रसाद यादव की पार्टी आरजेडी के साथ 'महागठबंधन' बनाकर चुनाव लड़ा और सीएम बने।
 
डीएम दिवाकर कहते हैं, "2015 में जीतने के बाद नीतीश ने कहा था मिट्टी में मिल जाएंगे, लेकिन बीजेपी से हाथ नहीं मिलाएंगे। मगर 2017 में आरजेडी से अलग हो गए और फिर बीजेपी के साथ हो गए। 2020 में बीजेपी और नीतीश ने मिलकर चुनाव लड़ा, जीते भी मगर 2022 में फिर से पाला बदल लिया।"
 
2022 में बीजेपी से दूरी बनाकर फिर से आरजेडी के साथ मिलकर सरकार बनाने के बाद नीतीश कुमार ने फिर कहा कि अब तो कभी बीजेपी के साथ नहीं जाना है। वहीं, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने अप्रैल 2023 में कहा था कि नीतीश कुमार के लिए एनडीए के दरवाज़े हमेशा को बंद हो गए हैं।
 
डीएम दिवाकर कहते हैं कि नीतीश कुमार को कोसने के मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पीछे नहीं रहे।
 
वह कहते हैं, "अभी ज़्यादा पहले की बात नहीं है। नीतीश कुमार ने यौन शिक्षा पर बात करते हुए बिहार विधानसभा में जो कहा, उस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि इंडिया गठबंधन का एक नेता देश को बदनाम कर रहा है।"
 
वह कहते हैं कि इतनी 'तू-तू, मैं-मैं' के बावजूद नीतीश कुमार बिना कोई ठोस कारण बताए अचानक बीजेपी के साथ चले गए।
 
वह कहते हैं, "यह सिर्फ़ नीतीश कुमार नहीं पलटे हैं। पीएम मोदी ने उन्हें बधाई दी, अमित शाह और जेपी नड्डा तो शपथ ग्रहण समारोह में आ गए। गिरिराज सिंह, विजय सिन्हा और सम्राट चौधरी भी पलट गए। ये बीजेपी का भी यू-टर्न है। ये सब अवसर के हिसाब से बदले हैं और सभी का एक ही लक्ष्य है- सत्ता हमारे हाथ में रहनी चाहिए।"
 
'मजबूरी' भरा रिश्ता
नीतीश कुमार जब 2022 में बीजेपी से अलग हुए थे, तो उनका आरोप था कि उनकी पार्टी को तोड़ने की कोशिश हो रही थी।
 
वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं, "राजनीति में व्यक्तिगत नहीं, राजनीतिक रिश्ते मायने रखते हैं। आज वे दोस्त हैं, कल दुश्मन दिखेंगे और फिर से दोस्त हो जाएंगे। सिर्फ नीतीश कुमार के नरेंद्र मोदी से ही नहीं, बल्कि लालू यादव से रिश्तों में भी ऐसा ही देखने को मिला है।"
 
डीएम दिवाकर भी कहते हैं कि नीतीश और मोदी के रिश्तों में बदलाव अवसर के हिसाब से होता रहा है। वे ज़रूरत के हिसाब से एक-दूसरे की कड़वी आलोचना भी कर देते हैं और फिर ज़रूरत के हिसाब से साथ भी आ जाते हैं।
 
वह कहते हैं, "इतना कुछ कहा गया, इतना कुछ किया गया। अब इन दोनों के रिश्ते को देखने के बाद तो लगता है कि राजनीति में कोई रिश्ता होता ही नहीं है। ये रिश्ते ज़रूरत के हिसाब से बदलते हैं और लोग भी ख़ुद को अवसर के हिसाब से बदल लिया करते हैं।"
 
2022 में बीजेपी से नाता तोड़ते समय नाम लिए बिना कहा था, 2014 में जो आए थे, वो 24 तक आगे रह पाएंगे कि नहीं, यह नहीं पता।
 
फिर, अब 2024 के चुनाव से ठीक पहले उनका 2014 में पीएम बने नरेंद्र मोदी के साथ आने का कारण क्या है, जबकि नीतीश कुमार ने ही विपक्षी दलों के गठबंधन 'इंडिया' की नींव रखी थी?
 
इसके जवाब में डीएम दिवाकर कहते हैं, "राजनीति में कामना ख़त्म नहीं होती। नीतीश 'इंडिया' गठबंधन बनाने आए थे कि प्रधानमंत्री बन पाएं। उन्होंने लोगों को जुटाया, लोग जुटे भी। पटना में बैठक हुई, लेकिन जब उनकी जगह मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम आना शुरू हुआ वो तो बीच बैठक से उठकर आ गए। बाद में खड़गे को चेयरमैन बना दिया गया। नीतीश इतने नाराज़ हुए कि संयोजक बनना भी स्वीकार नहीं किया। उन्हें चेयरमैन या प्रधानमंत्री पद से नीचे कुछ स्वीकार नहीं था।"
 
नीरजा चौधरी भी यही मानती हैं कि इतना कुछ कहे जाने के बावजूद फिर से बीजेपी के पास आना नीतीश का 'मजबूरी' भरा फैसला है,
 
वह कहती हैं, "जब 2015 में नीतीश महागठबंधन में आए थे तब कांग्रेस ने उन्हें तवज्जो नहीं दी थी। तब उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर प्रॉजेक्ट करने की बात हुई थी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। इस बार भी 'इंडिया' गठबंधन के लिए उन्होंने सारी पहल की। वह इस गठबंधन में सबसे ज़्यादा कंट्रोल चाहते थे। जब ऐसा नहीं हुआ तो उन्हें निराशा हुई।"
 
नीतीश से क़रीबी में मोदी का क्या हित?
नीरजा चौधरी बताती हैं कि नीतीश कुमार के साथ मिलकर बिहार में बीजेपी के सत्ता में आने से तीसरी बार प्रधानमंत्री बनने का लक्ष्य लेकर चल रहे नरेंद्र मोदी को लोकसभा चुनाव में भी फ़ायदा होगा।
 
वह कहती हैं, "नीतीश कुमार के साथ रहने पर एनडीए को बिहार की अगड़ी जातियों, अन्य पिछड़ा वर्ग, अति पिछड़ों, महादलित और पसमांदा मुसलमानों के वोट हासिल हुए थे। ये जिताऊ वोट बैंक है। 2010 में जो जातियां सुशासन बाबू के राज के लिए इकट्ठा हुई थीं, बीजेपी को लगता है कि उन्हें साथ लाने की ज़रूरत है।"
 
"और फिर यह देखा गया है कि लोकसभा चुनाव में अक्सर उस दल को फ़ायदा होता है, जिसकी राज्य में सरकार होती है। इसके अलावा, अगले साल बिहार में विधानसभा चुनाव होंगे। बीजेपी चाहेगी कि यूपी ही नहीं, बिहार में भी उसकी पकड़ हो।"
 
एक और संभावित कारण की ओर इशारा करते हुए नीरजा चौधरी कहती हैं, "ऐसा लगता है कि बीजेपी और नरेंद्र मोदी चाह रहे हैं कि पुराने एनडीए को फिर साथ लाया जाए। शिवसेना (उद्धव), अकाली दल और जनता दल उससे छिटक गए थे। इन पार्टियों के बिना बीजेपी को चुनाव जीतने में ख़ास दिक्कत नहीं होगी, लेकिन चुनाव के बाद ज़रूरी विधेयक पारित करने या संविधान संशोधनों के लिए उसे दोनों सदनों में ज़्यादा संख्याबल चाहिए, ताकि कोई दिक्कत न हो। "
 
बनी रहेगी मिठास?
तो क्या अब यह उम्मीद की जा सकती है कि अब नीतीश कुमार और बीजेपी की राहें अलग नहीं होंगी और नरेंद्र मोदी के साथ उनकी तल्ख़ी ख़त्म हो जाएगी?
 
इस पर वरिष्ठ पत्रकार नीरजा चौधरी कहती हैं कि राजनीतिक वास्तविकता नेताओं के लिए सबसे बड़ी शिक्षक होती है और उन्हें इसी कारण कड़वे घूंट पीने पड़ते हैं।
 
वह कहती हैं, "नीतीश को लगा होगा कि यहां बीजेपी के साथ कम से कम एक साल तो मुख्यमंत्री पद पर बने रहेंगे। उनकी सीटें चुनाव दर चुनाव कम होती गई हैं। उन्हें लगा कि हो सकता है कि 2025 में बीजेपी के साथ चुनाव लड़ने के बाद भले वह सीएम न बन पाएं, लेकिन शायद उन्हें राष्ट्रपति या राज्यपाल बना दिया जाए। क्योंकि हर नेता चाहता है कि जब तक वह जीवित है, प्रासंगिक बना रहे, कहीं गुमनानी में न चला जाए।"
 
हालांकि, उनका यह भी मानना है कि इस पूरे मामले में नेताओं की विश्वसनीयता कम हुई है।
 
पटना में एएन सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज़ के पूर्व निदेशक डीएम दिवाकर कहते हैं कि आगे क्या होगा, यह तो कहा नहीं जा सकता लेकिन इतना स्पष्ट है नीतीश एनडीए में रहकर मोदी के साथ प्रतियोगिता नहीं कर सकते।
 
वह कहते हैं, "नीतीश कुमार ने भले स्पष्ट तौर पर यह नहीं कहा कि वह पीएम पद के उम्मीदवार हैं, लेकिन उनकी उम्मीदें बनी रहीं। वह नरेंद्र मोदी को अपना प्रतियोगी समझते रहे हैं। लेकिन 'इंडिया गठबंधन' में भी जब तवज्जो नहीं मिली तो लगा कि पीएम पद का ख़्वाब को दूर की बात है, तेजस्वी को सीएम बना दिया तो यह पद भी चला जाएगा। ऐसे में उन्होंने एनडीए में लौटना ठीक समझा।"
 
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रिश्ते को कैसे परिभाषित करेंगे?
 
इस सवाल पर डीएम दिवाकर कहते हैं, "राजनीतिक रिश्ते मौक़े के हिसाब से बदलते हैं और इसी तरह नीतीश और मोदी के लिए एक-दूसरे के रुख़ में बदलाव होता रहा है। मैं कहूंगा कि यह संबंध अवसरवादिता का संबंध है।"
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