प्रियंका झा, बीबीसी संवाददाता
बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर को भारत सरकार ने मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित करने का फ़ैसला किया है। ये घोषणा कर्पूरी ठाकुर की 100वीं जयंती से ठीक एक दिन पहले की गई, जिसके बाद बिहार से दिल्ली तक सियासी हलचल तेज़ हो गई।
कर्पूरी ठाकुर दो बार बिहार के सीएम रहे और उन्हें 'जननायक' कहा गया। उनका निधन 1988 में हुआ और इसके 36 साल बीतने के बाद उन्हें भारत का सर्वोच्च नागरिक सम्मान दिया जा रहा है।
राष्ट्रीय जनता दल प्रमुख लालू प्रसाद यादव ने कहा कि कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न बहुत पहले ही मिल जाना चाहिए था।
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने इस फ़ैसले के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद कहा। लालू और नीतीश दोनों कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत पर दावा करते हैं। नीतीश कुमार की पार्टी से कर्पूरी ठाकुर के बेटे रामनाथ ठाकुर राज्यसभा सांसद हैं। भारत रत्न के एलान के बाद से ही अलग-अलग राजनीतिक दल इसका श्रेय लेने में जुटे दिखे।
दिल्ली में गृह मंत्री अमित शाह ने कर्पूरी ठाकुर की जन्मशती पर आयोजित कार्यक्रम को संबोधित किया। वहीं पटना में नीतीश कुमार ने अति पिछड़ा रैली का आयोजन किया।
कुछ ही महीनों में लोकसभा चुनाव है और कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने को चुनाव से सीधा जोड़ा जा रहा है। कर्पूरी ठाकुर बिहार की अति पिछड़ी जाति नाई से ताल्लुक रखते थे। बिहार में अति पिछड़ी जातियां सबसे बड़ा जातीय समूह है।
जाति की राजनीति पर निशाना?
24 जनवरी, 1924 को समस्तीपुर के पितौंझिया में जन्में कर्पूरी ठाकुर बिहार में एक बार उपमुख्यमंत्री, दो बार मुख्यमंत्री और दशकों तक विधायक और विरोधी दल के नेता रहे।
उन्हें साल 1977 में दूसरी बार मुख्यमंत्री बनने के बाद मुंगेरीलाल कमिशन लागू करके राज्य की नौकरियों आरक्षण लागू करने के लिए हमेशा याद किया जाता है।
बीते साल दो अक्तूबर को बिहार सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए थे। इसके मुताबिक़ बिहार की कुल आबादी क़रीब 13 करोड़ है और इनमें सबसे अधिक संख्या अत्यंत पिछड़ा वर्ग की है। ये राज्य की आबादी के करीब 36 फ़ीसदी हैं। इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी आबादी पिछड़ा वर्ग की है, जो राज्य में 27।12 फ़ीसदी आबादी रखते हैं।
जातिगत सर्वे को कांग्रेस सहित अधिकांश विपक्षी दलों ने समय की ज़रूरत बताया और जितनी आबादी उतना हक़ जैसे नारे दिए।
नीतीश कुमार की सरकार ने सर्वेक्षण के बाद एक और बड़ा कदम उठाते हुए राज्य में आरक्षण का दायरा बढ़ाकर 75 फ़ीसदी कर दिया।
बिहार के ओबीसी वोट बैंक का एक बड़ा हिस्सा अब तक लालू यादव और नीतीश कुमार की पार्टियों के ही साथ रहा है।
पहले जातिगत सर्वे और फिर इसको आधार बनाते हुए आरक्षण बढ़ाने से ये चर्चा तेज़ हुई कि इसका फ़ायदा 2024 के लोकसभा चुनाव में महागठबंधन को हो सकता है।
जानकारों की नज़र में केंद्र सरकार कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देकर पिछड़ी जातियों के वोट बैंक को साधने की कोशिश कर रही है।
बिहार की राजनीति को दशकों तक करीब से देखने वाले वरिष्ठ पत्रकार सुरूर अहमद कहते हैं, "ये तो स्पष्ट है कि अति पिछड़ा वर्ग को अपनी ओर लाने के लिए, ख़ासकर के पिछले साल जो जातिगत सर्वे बिहार में आया, उसके असर की काट के लिए ये फ़ैसला किया गया है।"
उन्होंने कहा, "कर्पूरी ठाकुर का 1977-1978 में जो फॉर्मूला था, उसे ही आगे बढ़ाकर नीतीश कुमार की सरकार ने रिज़र्वेशन को 75 फ़ीसदी तक कर दिया है, जिसमें 10 फ़ीसदी आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए है। इन सबका बिहार पर असर तो पड़ ही रहा था। हो सकता है बिहार के बाहर भी इसका प्रभाव दिख रहा हो, तो बीजेपी सरकार ने सोचा होगा कि अभी ये एलान करना टाइमली होगा।"
"लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार जैसे नेता जो कर्पूरी ठाकुर के शिष्य रहे हैं, वो डिमांड तो करते ही रहे हैं कि उन्हें भारत रत्न मिले। ये फ़ैसला बहुत सटीक समय पर लिया गया है।"
कमंडल के बाद मंडल की राजनीति
22 जनवरी को अयोध्या में राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा की गई। राम मंदिर बनवाना बीजेपी के घोषणापत्र का हिस्सा रहा था।
इसलिए ये कहा गया कि अब राम मंदिर बन जाने से आने वाले चुनावों में बीजेपी को इसका फ़ायदा हो सकता है। हालांकि, बीजेपी हिंदू वोट बैंक को कितना साध पाएगी ये छह महीने बाद ही पता चल सकेगा।
लेकिन इसके 24 घंटे के अंदर कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के एलान को राजनीतिक विश्लेषक कमंडल के साथ मंडल वोट बैंक को बैलेंस करने की रणनीति से जोड़ रहे हैं।
ख़ासतौर पर बिहार में, जहाँ आने वाले चुनाव में बीजेपी के सहयोगी रह चुके नीतीश अब आरजेडी के साथ हैं।
राजनीति की भाषा में कमंडल को हिन्दुत्व और मंडल पिछड़ों के उभार से जोड़ा जाता है।
अंग्रेज़ी अख़बार द हिंदू की राजनीतिक संपादक निस्तुला हेब्बर का कहना है कि जातीय पहचान की राजनीति हिंदुस्तान की राजनीति में अहम मुद्दा है। कमंडल का तोड़ मंडल है और बीजेपी के फ़ैसले के पीछे एक बड़ी वजह ये तथ्य भी है।
उनका कहना है, "बीजेपी ने 1990 के दशक में सोशल इंजीनियरिंग शुरू की। उस दौर में पिछड़े वर्ग से आने वाले कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे लोगों को आगे किया गया और नरेंद्र मोदी भी अन्य पिछड़ा वर्ग से आते हैं। काफ़ी सालों से बीजेपी ये कोशिश कर रही है कि कमंडल की राजनीति का तोड़ कही जाने वाली मंडल की राजनीति को अपने में समाहित कर ले।"
हालांकि, वह ये भी कहती हैं कि चुनाव आ रहे हैं और बिहार बीजेपी के लिए एक समस्याओं से भरा राज्य है। बीजेपी के पुराने सहयोगी नीतीश कुमार, जिनका राज्य में अनुमान के अनुसार 11 फ़ीसदी कुल वोट है, ख़ासतौर पर पिछड़ों का, वह अब एनडीए से कट गए हैं और महागठबंधन में आ गए हैं।
प्रधानमंत्री मोदी ने राम मंदिर प्राण प्रतिष्ठा के दिन अपने भाषण में शबरी, निषादराज, गिलहरी और जटायु जैसे रामायण के पात्रों का ज़िक्र किया।
निस्तुला हेब्बर कहती हैं, "प्रधानमंत्री ने जो भाषण दिया, उसमें रामायण के जिन किरदारों का नाम गिनाया उससे दिखा कि ये हिंदुत्व के एक व्यापक दायरे में सामाजिक न्याय के मुद्दे को समाहित करने का तरीक़ा है।"
बीजेपी को बिहार में चाहिए 'बड़ा चेहरा'?
साल 2019 में दूसरी बार बीजेपी बहुमत के साथ केंद्र की सत्ता में आई। इससे क़रीब एक साल पहले ही बीजेपी ने गुजरात में सरदार वल्लभभाई पटेल की विशाल प्रतिमा स्टैच्यू ऑफ़ यूनिटी का उद्घाटन कर एक दांव चला था।
सरदार पटेल कांग्रेस के नेता थे लेकिन बीजेपी ने ये आरोप लगाया कि कांग्रेस ने कभी पटेल को वह सम्मान नहीं दिया जिसके वह हक़दार थे। इसी घटनाक्रम को सुरूर अहमद बिहार की सियासत में बीजेपी की स्थिति से जोड़ते हैं।
वह कहते हैं कि बीजेपी के पास बिहार में अति पिछड़ा वर्ग का कोई बड़ा चेहरा नहीं है। ऐसे में कर्पूरी ठाकुर की विरासत को अपने खेमे में कर के पार्टी राज्य के पिछड़े वर्गों के बीच पैठ बढ़ाने की कोशिश में है।
सुरूर अहमद कहते हैं, "जिस तरह से बीजेपी बहुत से बड़े दिग्गज नेताओं को अपने पाले में जोड़ लेती है, जैसे गुजरात में सरदार वल्लभ भाई पटेल, जो असल में कांग्रेस के नेता था। बिहार में भी चूंकि बीजेपी के पास कोई चेहरा नहीं था, तो सोचा गया होगा कि कर्पूरी ठाकुर का नाम अपने साथ जोड़ लिया जाए। ये भी बीजेपी के लिए एक बड़ा कार्ड हो सकता है।"
उनकी नज़र में जनता दल यूनाइटेड और बीजेपी जब साथ हुआ करती थी, तब ऐसा होता था कि ओवरलैप कर के अति पिछड़ा वर्ग का वोट मिल जाता था। लेकिन 2015 के विधानसभा चुनाव में जब नीतीश कुमार लालू के साथ चले गए तो बीजेपी और उसके सहयोगी दलों को 243 में से सिर्फ़ 58 सीटें ही आईं। लालू यादव और नीतीश कुमार जब साथ आ जाते हैं तो अति पिछड़ा उनके साथ चला जाता है।
अहमद कहते हैं, "बीजेपी को लगा कि नीतीश और लालू ने कास्ट सर्वे करा के अति पिछड़ा वर्ग को पूरी तरह अपने पाले में करने का कार्ड खेला है तो उसे बेअसर करने के लिए बीजेपी ने भी दांव (कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न) चल दिया।"
क्या नीतीश कुमार फिर पाला बदल सकते हैं?
कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न दिए जाने पर नीतीश कुमार और लालू प्रसाद की अलग-अलग प्रतिक्रियाओं ने इस चर्चा को भी हवा दी कि क्या नीतीश कुमार एक बार फिर से अपने पुराने सहयोगी यानी बीजेपी के खेमे में जा सकते हैं।
दरअसल, कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न देने के एलान के बाद नीतीश कुमार ने अपनी मांग याद दिलाते हुए पीएम मोदी और केंद्र सरकार का आभार जताया।
लेकिन लालू प्रसाद यादव ने सवाल उठा दिया कि उनके राजनीतिक और वैचारिक गुरु कर्पूरी ठाकुर को भारत रत्न अब से बहुत पहले मिलना चाहिए था।
लालू प्रसाद यादव ने ये भी कहा कि उन्होंने सदन से लेकर सड़क तक ये आवाज़ उठाई थी लेकिन केंद्र सरकार तब जागी जब सामाजिक सरोकार की मौजूदा बिहार सरकार ने जातिगत सर्वेक्षण करवाया और आरक्षण का दायरा बढ़ाया।
कर्पूरी ठाकुर की राजनीतिक विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करने वाले इन दोनों नेताओं की प्रतिक्रियाओं के अंतर में क्या कोई संकेत छिपा हो सकता है?
इस पर सुरूर अहमद कहते हैं, "नीतीश एनडीए में कहां जाएंगे अब? एनडीए का कोई स्कोप तो नहीं है, तो जाकर क्या करेंगे? बिहार में तो बीजेपी से आर-पार की लड़ाई है, ऐसे में बीजेपी के साथ वापस जाना तो पैर में हथौड़ा मारने जैसा होगा। वो कहीं के नहीं रह जाएंगे। हां, चुनाव बाद अगर कुछ हो जाए तो उसकी बात अलग है लेकिन चुनाव से पहले तो नीतीश का एनडीए में जाना संभव नहीं लग रहा है।"
वहीं निस्तुला का कहना है कि नीतीश कुमार इतनी बार पाला बदल चुके हैं कि कुछ भी कहना मुश्किल है। अगर इनको लगा कि कोई राजनीतिक मंशा पूरी होती है एनडीए में जाकर, तो वह कर भी सकते हैं।
हालांकि, ऐसा भी माना जाता है की नीतीश कुमार कभी-कभी ऐसे संकेत इसलिए भी देते हैं ताकि उनके वर्तमान सहयोगी दल थोड़ा असुरक्षित महसूस करें।
हालांकि ये फ़ैसला बीजेपी को 2024 के लोकसभा चुनाव में कितना नफ़ा दे सकता है, इस पर सुरूर अहमद कहते हैं, "ये कहना मुश्किल है लेकिन बीजेपी ने एक प्रतीकात्मक कार्ड तो खेला है। बीजेपी इसके लिए जानी भी जाती है। एक-दो, दस पाँच वोट भी आए कहीं से तो बीजेपी आखिरी वक्त तक जंग लड़ती है।"