आयशा आत्महत्या केस : सवाल आयशा से नहीं समाज से कीजिए.....  
					
					
                                       
                  
				  				
								 
				  
                  				  बातें होती हैं,होती रहेंगी। अमूमन सबके बस में यही तो है। एक लड़की जिसे हवाओं संग बहने का शौक़ था। जिसका मन लहरों संग मचलने को करता था। जिसके अरमानों में प्यार पलता था। उम्र ही क्या थी उसकी? कितनी मीठी सी मुस्कान थी। उसे तो कितने सोपान चढ़ने थे लेकिन अफ़सोस हसरतें अधूरी रह गईं।
				  																	
									  समय से पहले ही इक रोशनी बुझ गई। बचपन कैसे बीता होगा आयशा तुम्हारा। अम्मी अब्बू ने अपनी लाड़ली के सारे नाज़ पूरे किए होंगे। तुम्हारी मुस्कान के सदक़े अम्मी काला टीका लगा कर बाहर भेजती होंगी। अब्बा फ़रमाइश पूरा करने बड़े चाव से बाज़ार के इस कोने से आख़िरी दुकान तक घूमे होंगे।
				  अम्मी ने ख़ास बनाए होंगे कई बार पकवान। आपा व खालाओं ने बलाएं ली होंगी। बहन भाइयों के साथ खेले होंगे लुका छिप्पी के खेल कई बार लेकिन आयशा तुम इस बार ऐसे छिपीं कि ज़िंदगी के हाथ ही नहीं आईं। 
				  						
						
																							
									  
	 
	 
	क्यों आयशा क्यों ? लेकिन यह क्यों तुम्हारे लिए भला क्यों कर होना चाहिए? यह तो समाज के ऐसे लोगों पर सजा व सबक़ की गाज बनकर पड़ना चाहिए। 
	 
				  																													
								 
 
 
  
														
																		 							
																		
									  
	तुमने कभी सोचा ना होगा कि प्यार शर्तों पर होता है। दीनारों की खन-खन पर या दहेज की क़िस्तें मिलने पर? धोखा किया था पति ने व्यापार ही समझा रिश्तों को। जिसकी बलि तुम चढ़ गईं। उनके पास वो नजरें ही नहीं थी कि दुआओं व नेकी से भरे तुम्हारे दिल को समझ पाते। मानती हूं,उनके इस व्यवहार ने तुम्हें ख़्वाब देखने से रोका। तुम्हारे अंदर जीने की आरज़ू ख़त्म की।
				  																	
									  भरोसा ही तोड़ दिया उस इंसान ने जिसे तुमने अपने सपनों का शहज़ादा माना। उसकी हरकतें उसकी आदतें,मांगें तुम्हें अंदर ही अंदर दुखी कर रहे थे। कितने तूफ़ान उठते होंगे तुम्हारे भीतर.खिड़की से बाहर अपने आसमान को ढांप कितना रोई होगी तुम जब रिश्तों की नींव दरकती देखी होगी। फिर भी सीखा होगा तुमने सब्र के घूंट पीना और अपने काम में मशगूल रहना। ज़िंदगी में तुम्हारे जैसा भोलापन सादगी सच्चाई और इतनी कम उम्र में दुनियादारी की समझ विरलों को मिलती है। 
				  																	
									  
	 
	लेकिन... शायद .... बार-बार अपनों की बेइज्जती ...  क्या कहें ? आयशा तुम्हारे पास सहारे थे ना तुमने इतनी जल्दी हार क्यों मान ली यह समय तो अपनी ताक़त दिखाने का था।  
	 
				  																	
									  
	आयशा तुम जिस जहान में हो हम तुम्हें वापस नहीं ला पाएंगे लेकिन अपने आस-पास की आयशा(ओं)के भोलेपन और मुस्कुराहटों को नज़र नहीं लगने देंगे। ऐसी वहशी लालची दहलीजों पर न देंगे और दोबारा जाने से रोकेंगे। 
				  																	
									  
	आयशा मुस्कुराहटें तो फूल खिला देती हैं लेकिन तुम्हारे जाने का यह तरीक़ा नए साल के कलेजे में नश्तर चुभा गया।