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पितरों के देव अर्यमा और सर्वपितृ अमावस्या के रहस्य को जानिए...

पितरों के देव अर्यमा और सर्वपितृ अमावस्या के रहस्य को जानिए... - kashyap son aryama and sarvapitri amavasya
।।ॐ अर्यमा न त्रिप्य्ताम इदं तिलोदकं तस्मै स्वधा नमः।...ॐ मृत्योर्मा अमृतं गमय।।
 
अर्थात : पितरों में अर्यमा श्रेष्ठ है। अर्यमा पितरों के देव हैं। अर्यमा को प्रणाम। हे! पिता, पितामह, और प्रपितामह। हे! माता, मातामह और प्रमातामह आपको भी बारम्बार प्रणाम। आप हमें मृत्यु से अमृत की ओर ले चलें।
ऋषि कश्यप की पत्नीं अदिति के 12 पुत्रों में से एक अर्यमन थे। ये बारह हैं:- अंशुमान, इंद्र, अर्यमन, त्वष्टा, धातु, पर्जन्य, पूषा, भग, मित्र, वरुण, विवस्वान और त्रिविक्रम (वामन)।
 
अर्यमा का परिचय : अदिति के तीसरे पुत्र और आदित्य नामक सौर-देवताओं में से एक अर्यमन या अर्यमा को पितरों का देवता भी कहा जाता है। आकाश में आकाशगंगा उन्हीं के मार्ग का सूचक है। सूर्य से संबंधित इन देवता का अधिकार प्रात: और रात्रि के चक्र पर है। चंद्रमंडल में स्थित पितृलोक में अर्यमा सभी पितरों के अधिपति नियुक्त हैं। वे जानते हैं कि कौन सा पितृत किस कुल और परिवार से है।
 
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ऊपर की किरण (अर्यमा) और किरण के साथ पितृ प्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। पितरों में श्रेष्ठ है अर्यमा। अर्यमा पितरों के देव हैं। ये महर्षि कश्यप की पत्नी देवमाता अदिति के पुत्र हैं और इंद्रादि देवताओं के भाई। पुराण अनुसार उत्तरा-फाल्गुनी नक्षत्र इनका निवास लोक है।
 
इनकी गणना नित्य पितरों में की जाती है जड़-चेतन मयी सृष्टि में, शरीर का निर्माण नित्य पितृ ही करते हैं। इनके प्रसन्न होने पर पितरों की तृप्ति होती है। श्राद्ध के समय इनके नाम से जलदान दिया जाता है। यज्ञ में मित्र (सूर्य) तथा वरुण (जल) देवता के साथ स्वाहा का 'हव्य' और श्राद्ध में स्वधा का 'कव्य' दोनों स्वीकार करते हैं।
 
पितृलोक : धर्मशास्त्रों अनुसार पितरों का निवास चंद्रमा के उर्ध्वभाग में माना गया है। यह आत्माएं मृत्यु के बाद एक वर्ष से लेकर सौ वर्ष तक मृत्यु और पुनर्जन्म की मध्य की स्थिति में रहते हैं। पितृलोक के श्रेष्ठ पितरों को न्यायदात्री समिति का सदस्य माना जाता है। अन्न से शरीर तृप्त होता है। अग्नि को दान किए गए अन्न से सूक्ष्म शरीर और मन तृप्त होता है। इसी अग्निहोत्र से आकाश मंडल के समस्त पक्षी भी तृप्त होते हैं। पक्षियों के लोक को भी पितृलोक कहा जाता है।
 
सर्व पितृ अमावस्या का महत्व : सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है उसका नाम 'अमा' है। उस अमा नामक प्रधान किरण के तेज से सूर्य त्रैलोक्य को प्रकाशमान करते हैं। उसी अमा में तिथि विशेष को चंद्र (वस्य) का भ्रमण होता है, तब उक्त किरण के माध्यम से चंद्रमा के उर्ध्वभाग से पितर धरती पर उतर आते हैं इसीलिए श्राद्ध पक्ष की अमावस्या तिथि का महत्व भी है। अमावस्या के साथ मन्वादि तिथि, संक्रांति काल व्यतिपात, गजच्दाया, चंद्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण इन समस्त तिथि-वारों में भी पितरों की तृप्ति के लिए श्राद्ध किया जा सकता है।
 
पितरों का परिचय : पुराण अनुसार मुख्यत: पितरों को दो श्रेणियों में रखा जा सकता है- दिव्य पितर और मनुष्य पितर। दिव्य पितर उस जमात का नाम है, जो जीवधारियों के कर्मों को देखकर मृत्यु के बाद उसे क्या गति दी जाए, इसका निर्णय करता है। इस जमात का प्रधान यमराज है।
 
चार व्यवस्थापक : यमराज की गणना भी पितरों में होती है। काव्यवाडनल, सोम, अर्यमा और यम- ये चार इस जमात के मुख्य गण प्रधान हैं। अर्यमा को पितरों का प्रधान माना गया है और यमराज को न्यायाधीश।
 
इन चारों के अलावा प्रत्येक वर्ग की ओर से सुनवाई करने वाले हैं, यथा- अग्निष्व, देवताओं के प्रतिनिधि, सोमसद या सोमपा-साध्यों के प्रतिनिधि तथा बहिर्पद-गंधर्व, राक्षस, किन्नर सुपर्ण, सर्प तथा यक्षों के प्रतिनिधि हैं। इन सबसे गठित जो जमात है, वही पितर हैं। यही मृत्यु के बाद न्याय करती है।
 
दिव्य पितर की जमात के सदस्यगण : अग्रिष्वात्त, बहिर्पद आज्यप, सोमेप, रश्मिप, उपदूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक व नान्दीमुख ये नौ दिव्य पितर बताए गए हैं। आदित्य, वसु, रुद्र तथा दोनों अश्विनी कुमार भी केवल नांदीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं।
 
सूर्य किरण का नाम अर्यमा : देसी महीनों के हिसाब से सूर्य के नाम हैं- चैत्र मास में धाता, वैशाख में अर्यमा, ज्येष्ठ में मित्र, आषाढ़ में वरुण, श्रावण में इंद्र, भाद्रपद में विवस्वान, आश्विन में पूषा, कार्तिक में पर्जन्य, मार्गशीर्ष में अंशु, पौष में भग, माघ में त्वष्टा एवं फाल्गुन में विष्णु। इन नामों का स्मरण करते हुए सूर्य को अर्घ्य देने का विधान है।
 
श्राद्ध या तर्पण : पितृ पक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता है। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात ही स्वयं पितृ तर्पण किया जाता है।
 
पितर चाहे किसी भी योनि में हों वे अपने पुत्र, पु‍त्रियों एवं पौत्रों के द्वारा किया गया श्राद्ध का अंश स्वीकार करते हैं। इससे पितृगण पुष्ट होते हैं और उन्हें नीच योनियों से मुक्ति भी मिलती है। यह कर्म कुल के लिए कल्याणकारी है। जो लोग श्राद्ध नहीं करते, उनके पितृ उनके दरवाजे से वापस दुखी होकर चले जाते हैं। पूरे वर्ष वे लोग उनके श्राप से दुखी रहते हैं। पितरों को दुखी करके कौन सुखी रह सकता है?
 
श्राद्ध की महिमा एवं विधि का वर्णन ब्रह्म, गरूड़, विष्णु, वायु, वराह, मत्स्य आदि पुराणों एवं महाभारत, मनुस्मृति आदि शास्त्रों में यथास्थान किया गया है।
 
संकलन : अनिरुद्ध जोशी 'शतायु'