भारत के प्राचीन और हिन्दू ग्रंथों में सिंधु नामक देश के बारे में उल्लेख मिलता है। इस सिंधु देश के बारे में ग्रंथों में विस्तार से लिखा हुआ है। सिंधु घाटी की सभ्यता का केंद्र स्थान है पाकिस्तान। इसी सभ्यता के दो नगर चर्चित है- मोहनजोदड़ो और हड़प्पा। यह सभ्यता बलूचिस्तान के हिंगलाज मंदिर से भारत के राजस्थान और हरियाणा (भिर्राना और राखीगढ़ी) तक फैली थी। पहले की खुदाई और शोध के आधार पर माना जाता था कि 2600 ईसा पूर्व अर्थात आज से 4617 वर्ष पूर्व हड़प्पा और मोहनजोदेडो नगर सभ्यता की स्थापना हुई थी। कुछ इतिहासकारों के अनुसार इस सभ्यता का काल लगभग 2700 ई.पू. से 1900 ई. पू. तक का माना जाता है। आईआईटी खड़गपुर और भारतीय पुरातत्व विभाग के वैज्ञानिकों ने सिंधु घाटी सभ्यता की प्राचीनता को लेकर नए तथ्य सामने रखे हैं। वैज्ञानिकों के मुताबिक यह सभ्यता 5500 साल नहीं बल्कि 8000 साल पुरानी थी। इस लिहाज से यह सभ्यता मिस्र और मेसोपोटामिया की सभ्यता से भी पहले की है। मिस्र की सभ्यता 7,000 ईसा पूर्व से 3,000 ईसा पूर्व तक रहने के प्रमाण मिलते हैं, जबकि मोसोपोटामिया की सभ्यता 6500 ईसा पूर्व से 3100 ईसा पूर्व तक अस्तित्व में थी। शोधकर्ता ने इसके अलावा हड़प्पा सभ्यता से 1,0000 वर्ष पूर्व की सभ्यता के प्रमाण भी खोज निकाले हैं।
वैज्ञानिकों का यह शोध प्रतिष्ठित रिसर्च पत्रिका नेचर ने प्रकाशित किया है। 25 मई 2016 को प्रकाशित यह लेख दुनियाभर की सभ्यताओं के उद्गम को लेकर नई बहस छेड़ गया है। वैज्ञानिकों ने सिंधु घाटी की पॉटरी की नई सिरे से पड़ताल की और ऑप्टिकली स्टिम्यलैटड लूमनेसन्स तकनीक का इस्तेमाल कर इसकी उम्र का पता लगाया तो यह 6,000 वर्ष पुराने निकले हैं। इसके अलावा अन्य कई तरह की शोध से यह पता चला कि यह सभ्यता 8,000 वर्ष पुरानी है। इसका मतलब यह कि यह सभ्यता तब विद्यमान थी जबकि भगवान श्रीराम (5114 ईसा पूर्व) का काल था और श्रीकृष्ण के काल (3228 ईसा पूर्व) में इसका पतन होना शुरू हो गया था।
सिंधु घाटी के लोग हिन्दू ही थे इसके कई प्रमाण मौजूद है। सिंधु घाटी की मूर्तियों में बैल की आकृतियों वाली मूर्ति को भगवान ऋषभनाथ जोड़कर इसलिए देखा जाता। यहां से प्राप्त ग्रेनाइट पत्थर की एक नग्न मूर्ति भी जैन धर्म से संबंधित मानी जाती है। मोहन जोदड़ो और हड़प्पा से प्राप्त मोहरों में जो मुद्रा अंकित है, वह मथुरा की ऋषभदेव की मूर्ति के समान है व मुद्रा के नीचे ऋषभदेव का सूचक बैल का चिह्न भी मिलता है। मुद्रा के चित्रण को चक्रवर्ती सम्राट भरत से जोड़कर देखा जाता है। सिंधु घाटी सभ्यता की खुदाई में पकी हुई मिट्टी के दीपक प्राप्त हुए हैं और मोहनजोदड़ो सभ्यता की खुदाई में प्राप्त भवनों में दीपकों को रखने हेतु ताख बनाए गए थे व मुख्य द्वार को प्रकाशित करने हेतु आलों की शृंखला थी। मोहनजोदड़ो सभ्यता के प्राप्त अवशेषों में मिट्टी की एक मूर्ति के अनुसार उस समय भी दीपावली मनाई जाती थी। उस मूर्ति में मातृ-देवी के दोनों ओर दीप जलते दिखाई देते हैं। इससे यह सिद्ध स्वत: ही हो जाता है कि यह सभ्यता हिन्दू आर्यों की ही सभ्यता थी।
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प्राचीन भारत के गांधार, कंबोज और कुरु महाजनपद के कुछ हिस्से अफगानिस्तान और कुछ हिस्से पाकिस्तान में है। पाकिस्तान का पश्चिमी तथा अफगानिस्तान का पूर्वी क्षेत्र ही गांधार राज्य के अंतर्गत आता था जिसकी राजधानी तक्षशिला थी। कंबोज महाजनपद का विस्तार कश्मीर से हिन्दूकुश तक था। इसके दो प्रमुख नगर थे राजपुर और नंदीपुर। राजपुर को आजकल राजौरी कहा जाता है। प्रारंभ में दक्षिण कुरुओं का राज्य हिन्दुकुश के आगे से कश्मीर तक था। बाद में पांचालों पर आक्रमण करके उन्होंने अपना क्षेत्र विस्तार किया था।
जिन स्थानों के नाम आजकल काबुल, कंधार, बल्ख, वाखान, बगराम, पामीर, बदख्शां, पेशावर, स्वात, चारसद्दा आदि हैं, उन्हें संस्कृत और प्राकृत-पालि साहित्य में क्रमश: कुंभा या कुहका, गंधार, बाल्हीक, वोक्काण, कपिशा, मेरू, कम्बोज, पुरुषपुर (पेशावर), सुवास्तु, पुष्कलावती आदि के नाम से जाना जाता था। उपरोक्त सभी राज्य हिन्दू राज्य थे, जहां बौद्ध लोगों का बाद में वर्चस्व हो गया था और अंत में यहां खलिफाओं के शासन में इस्लामिक राज्य की स्थापना हुई।
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आज हम जितने भी अफगानी, पाकिस्तानी और बलूचिस्तानी देखते हैं वे सभी तुर्वसु, अनु और पुरु के वंशज हैं। पुरु के पुत्र पौरव कहलाए और पोरवों में ही आगे चलकर कुरु हुए। कुरु के पुत्र ही कौरव कहलाए। पुरु की कई संतानें थी। शतपथ ब्राह्मण अनुसार पुरुवस् को ऐल भी कहा जाता था। पुरुवस् का विवाह उर्वशी से हुआ। जिससे उसको आयु, वनायु, क्षतायु, दृढ़ायु, घीमंत और अमावसु कानम पुत्र प्राप्त हुए। अमावसु एवं वसु विशेष थे। अमावसु ने कान्यकुब्ज नामक नगर की नींव डाली और वहां का राजा बना। आयु का विवाह स्वरभानु की पुत्री प्रभा से हुआ जिनसे उसके पांच पुत्र हुए- नहुष, क्षत्रवृत (वृदशर्मा), राजभ (गय), रजि, अनेना। प्रथम नहुष का विवाह विरजा से हुआ जिससे अनेक पुत्र हुए जिसमें ययाति, संयाति, अयाति, अयति और ध्रुव प्रमुख थे। इन पुत्रों में यति और ययाति प्रीय थे।
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यति सांसारिक मोह त्यागकर संन्यासी हो गए और ययाति राजा बने जिनका राज्य सरस्वती तक विस्तृत था। ययाति की दो पत्नियां थी: देवयानी और शर्मिष्ठा। ययाति प्रजापति ब्रह्मा की 10वीं पीढ़ी में हुए थे। देवयानी से यदु और तुर्वसु तथा शर्मिष्ठा से द्रहुयु (द्रुहु), अनु और पुरु हुए। पांचों पुत्रों ने अपने अपने नाम से राजवंशों की स्थापना की। यदु से यादव, तुर्वसु से यवन, द्रहुयु से भोज, अनु से मलेच्छ और पुरु से पौरव वंश की स्थापना हुए। इस तरह पुरुवस के बाद ययाति के पुरु हुए। ययाति ने पुरु को अपने पैतृत प्रभुसत्ता वला क्षेत्र प्रदाय किया जो कि गंगा-यमुना दोआब का आधा दक्षिण प्रदेश था। अनु को पुरु राज्य का उत्तरी, द्रहयु को पश्चिमी, यदु को दक्षिण-पश्चिमी तथा तुर्वसु को दक्षिण-पूर्वी भाग प्रदान किया। पुरु के वंश में भरत और भरत के कुल में राजा कुरु हुए। पुरु का राज्य विस्तृत और सिकुड़ता रहा।
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महाभारत के काल में पुरुवंश के एक राजा हुए जिनका नाम दुष्यंत था और जिन्होंने शकुंतला से विवाह किया था। इन्हीं के पुत्र भरत की गणना 'महाभारत' में वर्णित 16 सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। कालिदास कृत महान संस्कृत ग्रंथ 'अभिज्ञान शाकुंतलम' में राजा दुष्यंत और उनकी पत्नी शकुंतला के जीवन के बारे में उल्लेख मिलता है।
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सिकंदर के आक्रमण के समय पाकिस्तान के अधिकतर क्षेत्र पर सम्राट पोरस का सम्राज्य था। राजा पोरस का समय 340 ईसापूर्व से 315 ईसापूर्व तक का माना जाता है। पुरुवंशी महान सम्राट पोरस सिन्ध-पंजाब सहित एक बहुत बड़े भू-भाग के स्वामी थे। पोरस का साम्राज्य जेहलम (झेलम) और चिनाब नदियों के बीच स्थित था। पोरस के संबंध में मुद्राराक्षस में उल्लेख मिलता है। पोरस अपनी बहादुरी के लिए विख्यात था। सिकंदर ने अफगानिस्तान एवं उत्तर-पश्चिमी भारत के कुछ भाग पर कब्जा कर लिया था। लेकिन वह पोरस के साम्राज्य पर कब्जा नहीं कर पाया था।
बाद के एक शासक डेमेट्रियस प्रथम (ईपू 220-175) ने भारत पर आक्रमण किया। ईपू 183 के लगभग उसने पंजाब का एक बड़ा भाग जीत लिया और साकल को अपनी राजधानी बनाया। युक्रेटीदस भी भारत की ओर बढ़ा और कुछ भागों को जीतकर उसने तक्षशिला को अपनी राजधानी बनाया। डेमेट्रियस का अधिकार पूर्वी पंजाब और सिन्ध पर भी था। भारत में यवन साम्राज्य के दो कुल थे- पहला डेमेट्रियस और दूसरा युक्रेटीदस के वंशज।
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मीनेंडर (ईपू 160-120) : यह संभवतः डेमेट्रियस के कुल का था। जब भारत में नौवां बौद्ध शासक वृहद्रथ राज कर रहा था, तब ग्रीक राजा मीनेंडर अपने सहयोगी डेमेट्रियस (दिमित्र) के साथ युद्ध करता हुआ सिन्धु नदी के पास तक पहुंच चुका था। सिन्धु के पार उसने भारत पर आक्रमण करने की योजना बनाई। इस मीनेंडर या मिनिंदर को बौद्ध साहित्य में मिलिंद कहा जाता है। हालांकि बाद में मीनेंडर ने बौद्ध धर्म अंगीकार कर लिया था। प्रसिद्ध बौद्ध ग्रन्थ 'मिलिन्दपन्हों' (मिलिन्द के प्रश्न) में बौद्ध भिक्षु नागसेन के साथ उसके संवादात्मक प्रश्नोत्तर दिए हुए हैं। जिस पर ओशो ने बहुत ही सुंदर कहानी सुनाई है।
मिलिंद पंजाब पर लगभग 160 ई.पू. से 140 ई.पू. तक राज्य करने वाले यवन राजाओं में सबसे उल्लेखनीय राजा था। उसने अपनी सीमा का स्वात घाटी से मथुरा तक विस्तार कर लिया था। वह पाटलीपुत्र पर भी आक्रमण करना चाहता था, लेकिन कामयाब नहीं हो पाया। सम्भव है कि 'गार्गी संहिता' में जिस दुरात्मा वीर यवन राजा द्वारा प्रयाग पर अधिकार करके 'कुसुमपुर' (अर्थात पाटलिपुत्र) में भय उत्पन्न करने का उल्लेख है, वह मिलिन्द ही हो।
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शक, कुषाण और हूणों के पतन के बाद भारत का पश्चिमी छोर कमजोर पड़ गया, तब अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्से फारस साम्राज्य के अधीन थे तो बाकी भारतीय राजाओं के, जबकि बलूचिस्तान एक स्वतंत्र सत्ता थी। 7वीं सदी के बाद अफगानिस्तान और पाकिस्तान भारत के हाथ से जाता रहा।
भारत में इस्लामिक शासन का विस्तार 7वीं शताब्दी के अंत में मोहम्मद बिन कासिम के सिन्ध पर आक्रमण और बाद के मुस्लिम शासकों द्वारा हुआ। लगभग 712 में इराकी शासक अल हज्जाज के भतीजे एवं दामाद मुहम्मद बिन कासिम ने 17 वर्ष की अवस्था में सिन्ध के अभियान का सफल नेतृत्व किया।
इतिहासकारों अनुसार इस्लाम के प्रवेश के पहले अफगानिस्तान (कम्बोज और गांधार) में बौद्ध एवं हिन्दू धर्म यहां के राजधर्म थे। मोहम्मद बिन कासिम ने बलूचिस्तान को अपने अधीन लेने के बाद सिन्ध पर आक्रमण कर दिया। 'चचनामा' नामक ऐतिहासिक वर्णन के अनुसार सिन्ध के राजा दाहिरसेन का बेरहमी से कत्ल कर उसकी पुत्रियों को बंधक बनाकर ईरान के खलीफाओं के लिए भेज दिया गया था। कासिम ने सिन्ध के बाद पंजाब और मुल्तान को भी अपने अधीन कर लिया।
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इस्लामिक खलीफाओं ने सिन्ध फतह के लिए कई अभियान चलाए। 10 हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ सिन्ध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिन्ध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया।
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उस दौर में अफगानिस्तान में हिन्दू राजशाही के राजा अरब और ईरान के राजाओं से लड़ रहे थे। अफगानिस्तान में पहले आर्यों के कबीले आबाद थे और वे सभी वैदिक धर्म का पालन करते थे, फिर बौद्ध धर्म के प्रचार के बाद यह स्थान बौद्धों का गढ़ बन गया। 6ठी सदी तक यह एक हिन्दू और बौद्ध बहुल क्षेत्र था। यहां के अलग-अलग क्षेत्रों में हिन्दू राजा राज करते थे। हिन्दू राजाओं को काबुलशाह' या महाराज धर्मपति' कहा जाता था। इन राजाओं में कल्लार, सामंतदेव, भीम, अष्टपाल, जयपाल, आनंदपाल, त्रिलोचनपाल, भीमपाल आदि उल्लेखनीय हैं।
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इन काबुलशाही राजाओं ने लगभग 350 साल तक अरब आततायियों और लुटेरों को जबर्दस्त टक्कर दी और उन्हें सिन्धु नदी पार करके भारत के मुख्य मैदान में नहीं घुसने दिया, लेकिन 7वीं सदी के बाद यहां पर अरब और तुर्क के मुसलमानों ने आक्रमण करना शुरू किए और 870 ई. में अरब सेनापति याकूब एलेस ने अफगानिस्तान को अपने अधिकार में कर लिया। इसके बाद यहां के हिन्दू और बौद्धों का जबरन धर्मांतरण अभियान शुरू हुआ। सैकड़ों सालों तक लड़ाइयां चलीं और अंत में 1019 में महमूद गजनी से त्रिलोचनपाल की हार के साथ अफगानिस्तान का इतिहास पलटी खा गया। 'काफिरिस्तान' को छोड़कर सारे अफगानी लोग मुसलमान बन गए।
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714 ईस्वी में हज्जाज की और 715 ई. में मुस्लिम खलीफा की मृत्यु के उपरांत मुहम्मद बिन कासिम को वापस बुला लिया गया। कासिम के जाने के बाद बहुत से क्षेत्रों पर फिर से भारतीय राजाओं ने अपना अधिकार जमा लिया, परंतु सिन्ध के राज्यपाल जुनैद ने सिन्ध और आसपास के क्षेत्रों में इस्लामिक शासन को जमाए रखा। जुनैद ने कई बार भारत के अन्य हिस्सों पर आक्रमण किए लेकिन वह सफल नहीं हो पाया। नागभट्ट प्रथम, पुलकेशी प्रथम एवं यशोवर्मन (चालुक्य) ने इसे वापस खदेड़ दिया।
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अफगानिस्तान में जहां हिन्दूशाही या काबुलशाह राजाओं ने बहुत काल तक मुस्लिम आक्रांताओं से राज्य की रक्षा की वहीं पाकिस्तान के क्षेत्र में राजा दाहिर ने सिंधदेश को बचाने के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे दिया। सिंध के राजा दाहिर की पत्नियों और पुत्रियों का बलिदान आज इतिहास में दर्ज है जिसे कभी नहीं भुला जा सकता।
दस हजार सैनिकों का एक दल ऊंट-घोड़ों के साथ अरब से सिंध पर आक्रमण करने के लिए भेजा गया। सिंध पर ईस्वी सन् 638 से 711 ई. तक के 74 वर्षों के काल में 9 खलीफाओं ने 15 बार आक्रमण किया। 15वें आक्रमण का नेतृत्व मोहम्मद बिन कासिम ने किया। सिंधी शूरवीरों ने अपनी मातृभूमि की रक्षा करने के अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया। कई नवयुवक सेना में भर्ती किए गए। सिंधु वीरों ने डटकर मुकाबला किया। लेकिन कासिम की सेना क्रूर थी और वे युद्ध के किसी भी नियम का पालन नहीं करती थी जबकि सिंध की सेना युद्ध के नियममों का पालन कर रही थी। जब सूर्यास्त हो जाता था तो सेना युद्ध नहीं लड़ती थी।
एक दिन सूर्यास्त तक अरबी सेना हार के कगार पर खड़ी थी। सूर्यास्त के समय युद्धविराम हुआ। सभी सिंधुवीर अपने शिविरों में विश्राम हेतु चले गए। ज्ञानबुद्ध और मोक्षवासव नामक दो लोगों ने गद्धारी की और कासिम की सेना का साथ दिया। रात्रि में सिंधुवीरों के शिविर पर हमला बोल दिया गया। इस तरह धोखे से हुए हमले में महाराजा दाहिर वीरगती को प्राप्त हो गए। यह समाचार रानी लाडी तक पहुंचे तो वह अचेत हो गई।
बाद में राजा दाहिर की दो बोटियोंने मोर्चा संभाला और सिंधी वीरांगनाकों के साथ मिलकर युद्ध किया। सिंधी वीरांगनाओं ने अरबी सेनाओं का स्वागत अलोर में तीरों और भालों की वर्षा के साथ किया। कई वीरांगनाओं ने अपने प्राण मातृभूमि की रक्षार्थ दे दिए। जब अरबी सेना के सामने सिंधी वीरांगनाएं टिक नहीं पाईं तो उन्होंने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए जौहर करना शुरू कर दिया।
अंत में सिंध की दो राजकुमारियां सूरजदेवी और परमाल ने युद्ध क्षेत्र में घायल सैनिकों की सेवा की। तभी उन्हें क्रूर अरबी सेना ने पकड़कर कैद कर लिया। सेनानायक मोहम्मद बिन कासिम ने अपनी जीत की खुशी में दोनों राजकन्याओं को भेंट के रूप में खलीफा के पास भेज दिया।
कहते हैं कि खलीफा दोनों राजकुमारियों की खूबसूरती पर मोहित हो गया और दोनों कन्याओं को अपने जनानखाने में शामिल करने का हुक्म दिया, लेकिन राजकुमारियों ने अपनी चतुराई से मोहम्मद बिन कासिम को सजा दिलाई। बाद में जब राजकुमारियों की इस चतुराई का खलिफा को पता चला तो खलीफा ने दोनों को कत्ल करने का आदेश दिया लेकिन तभी दोनों राजकुमारियों ने खंजर निकाला और अपने पेट में घोंप लिया और इस तरह राजपरिवार की सभी महिलाओं ने अपने देश के लिए बलिदान दे दिया।
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मुहम्मद बिन कासिम, महमूद गज़नवी, मुहम्मद गोरी और बाद के मुस्लिम आक्रांताओं और शासकों के काल में हिन्दुओं पर हर तरह के अत्याचार के चलते धर्मान्तर होता रहा। इसी दौरान पाकिस्तान में सूफी संतों के धर्म प्रचार भी होते रहे। इन सभी के काल में अफगानिस्तान और पाकिस्तान की जनता हिन्दू और बौद्ध से मुस्लिम बनती गई। पाकिस्तान आज मुस्लिम बहुल धर्म जरूर बना गया है लेकिन उसे अपने इतिहास को अच्छे से समझना चाहिए। क्यों वह मुस्लिम बने? वीरों और विरांगनाओं का बलिदन व्यर्थ सिद्ध हुआ।
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खलिफाओं के नेतृत्व में पाकिस्तान का इस्लामिकरण हुआ। पठान पख्तून होते हैं। पठान को पहले पक्ता कहा जाता था। ऋग्वेद के चौथे खंड के 44वें श्लोक में भी पख्तूनों का वर्णन 'पक्त्याकय' नाम से मिलता है। इसी तरह तीसरे खंड का 91वें श्लोक आफरीदी कबीले का जिक्र 'आपर्यतय' के नाम से करता है। दरअसल, अंग्रेजी शासन में पिंडारियों के रूप में जो अंग्रेजों से लड़े, वे विशेषकर पठान और जाट ही थे। पठान जाट समुदाय का ही एक वर्ग है।
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अंत में जब भारत का विभाजन हुआ था तब पाकिस्तान में हिन्दुओं की 22 प्रतिशत के लगभग थी। पाकिस्तान में हिन्दू, सिख, बौद्ध एवं ईसाई ही नहीं, शियाओं और अहमदियों का अस्तित्व भी खतरे में हो चला है। पाकिस्तान में कभी 35 फीसदी आबादी शियाओं की हुआ करती थी लेकिन अब पाकिस्तान की अनुमानित 20 करोड़ की आबादी में 1 करोड़ 60 लाख से कम जनसंख्या रह गई है। पाकिस्तान में अहमदियों को सबसे ज्यादा प्रताड़ित किया जाता है। अहमदी खुद को मुसलमान कहते हैं लेकिन पाकिस्तान उन्हें मुसलमान नहीं मानता। पाकिस्तान में अब बस 50 लाख से कुछ ही ज्याद अहमदी बचे हैं।
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19वीं सदी के प्रारंभ से 1948 तक भारत का विभाजन चलता रहा। पूर्व के विभाजन न भी मानें तो 1947 के विभाजन ने उस काल की 30 करोड़ आबादी वाले भारत में 1.50 करोड़ हिन्दुओं को दर-ब-दर कर दिया। 75 हजार से 1 लाख महिलाओं का बलात्कार या हत्या के लिए अपहरण हुआ। हजारों बच्चों को कत्ल कर दिया गया। विभाजन की सबसे ज्यादा त्रासदी सिन्धी, पंजाबी और बंगालियों ने झेली। 1947 में अंग्रेजी शासन से आजाद होने के बाद करीब 1.50 करोड़ लोग अपनी जड़ों से उखड़ गए। महीनों तक चले दंगों में कम से कम 10 लाख लोगों की मौत हुई। हिंसा, भारी उपद्रव और अव्यवस्था के बीच पाकिस्तान से सिख और हिन्दू भारत की ओर भागे।
वर्तमान में धर्म के नाम पर अलग हुए पाकिस्तान की 20 करोड़ की आबादी में अब मात्र 1.6 फीसदी हिन्दू ही बचे हैं जबकि आजादी के समय कभी 22 प्रतिशत होते थे। 1941 की जनगणना के मुताबिक भारत में तब हिन्दुओं की संख्या 29.4 करोड़, मुस्लिम 4.3 करोड़ और बाकी लोग दूसरे धर्मों के थे। पाकिस्तान की जनगणना (1951) के मुताबिक पाकिस्तान की कुल आबादी में 22 फीसदी हिन्दू थे, जो 1998 की जनगणना में घटकर 1.6 फीसदी रह गए हैं। 1965 से अब तक लाखों पाकिस्तानी हिन्दुओं ने भारत की तरफ पलायन किया है। देखा जाए तो जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं का प्रतिशत 29.63 से घटकर 28.44 रह गया है।
सिन्धी और पंजाबी हिन्दुओं ने तो अपना प्रांत ही खो दिया। क्या इस पर कभी किसी ने सोचा? सिन्धी भाषा और संस्कृति लुप्त हो रही है और जो सिन्धी मुसलमान है अब वे ऊर्दू बोलते हैं, जो उनकी मात्र भाषा नहीं है। देश की आजादी के 70 साल बाद भी सिन्धी हिन्दू समाज विस्थापितों की तरह जीवन यापन कर रहा है।...कहते हैं कि जिस भारत में पंजाब, सिंध, हिन्दुकुश और सिंधु नदी नहीं है वह भारत आधे शरीर के सामान है।