'दाशराज्ञ युद्ध' का युद्ध एक ऐसा युद्ध है जहां से भारत के धर्म और इतिहस ने करवट बदली थी। कहते हैं कि यह युद्ध महाभारत युद्ध के पहले हुए राम और रावण युद्ध के पहले हुआ था। हालांकि यह शोध का विषय है। इससे पहले देवासुर संग्राम तो होते ही रहे हैं लेकिन इसे भारत के ज्ञात इतिहास का प्रथम महायुद्ध माना जाता है। हालांकि कुछ शोधकर्ताकों के अनुसार यह युद्ध राम और रावण के युद्ध के बाद हुआ था। ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है।
कब हुआ था दाशराज्ञ का युद्ध : आप सभी जानते हैं कि आज से लगभग 5 हजार वर्ष पूर्व महाभारत का युद्ध हुआ था। इस युद्ध की सभी चर्चा करते हैं क्योंकि इस पर एक ग्रंथ भी लिखा गया है और इस युद्ध के सूत्रधार थे भगवान कृष्ण, इसलिए यह युद्ध सभी को याद है। लेकिन महाभारत युद्ध के लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व एक और युद्ध हुआ था जिसे दशराज युद्ध (दाशराज्ञ के नाम से जाना जाता है। इस युद्ध की चर्चा ऋग्वेद में मिलती है। यह रामायण काल की बात है। दाशराज युद्ध त्रेतायुग में लड़ा गया। भगवान राम का जन्म 5114 ईसा पूर्व 10 जनवरी को दिन के 12.05 पर हुआ था। भगवान श्रीकृष्ण का जन्म 3112 ईसा पूर्व भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की रात्रि को हुआ था। आर्यभट्ट के अनुसार महाभारत युद्ध 3137 ई.पू. में हुआ। इस युद्ध के 35 वर्ष पश्चात भगवान कृष्ण ने एक बाण लगने के कारण देह छोड़ दी थी।
महाभारत युद्ध के पहले भारत के आर्यावर्त क्षेत्र में आर्यों के बीच दाशराज्ञ युद्ध हुआ था। इस युद्ध का वर्णन दुनिया के हर देश और वहां की संस्कृति में आज भी विद्यमान हैं। ऋग्वेद के सातवें मंडल में इस युद्ध का वर्णन मिलता है। इस युद्ध से यह पता चलता है कि आर्यों के कितने कुल या कबीले थे और उनकी सत्ता धरती पर कहां तक फैली थी। इतिहासकारों के अनुसार यह युद्ध आधुनिक पाकिस्तानी पंजाब में परुष्णि नदी (रावी नदी) के पास हुआ था।
इनके बीच हुआ था युद्ध : भारतों के कबीले का राजा था सुदास जो अपने ही कुल के अन्य कबीले से लड़ा था। माना जाता है कि वह पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु, अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन कबीले के लोगों से लड़ा था।
माना जाता है कि पुरु और तृत्सु नामक आर्य समुदाय के बीच यह युद्ध हुआ था। इस युद्ध में जहां एक ओर पुरु नामक आर्य समुदाय के योद्धा थे, तो दूसरी ओर 'तृत्सु' नामक समुदाय के योद्धा युद्ध लड़ रहे थे। दोनों ही हिन्द-आर्यों के 'भरत' नामक समुदाय से संबंध रखते थे। हालांकि पुरुओं के नेतृत्व में से कुछ को आर्य नहीं माना जाता था।
तुत्सु का नेतृत्व : तुत्सु समुदाय का नेतृत्व राजा सुदास ने किया। सुदास दिवोदास के पुत्र थे, जो स्वयं सृंजय के पुत्र थे। सृंजय के पिता का नाम देवव्रत था। सुदास के युद्ध में सलाहकार ऋषि वशिष्ठ थे।
पुरु का नेतृत्व : सुदास के विरुद्ध दस राजा युद्ध लड़ रहे थे जिनका नेतृत्व पुरु कबीला के राजा संवरण कर रहे थे। जिनके सैन्य सलाहकार ऋषि विश्वामित्र थे।
अन्य तथ्य : साढ़े छह से सात हजार वर्ष पूर्व यह दाशराज्ञ युद्ध तुत्सु राजा सुदास और दस जनजातियों के समूह के बीच हुआ। वे जनजातियां हैं पख्त, भत्मान, अत्मिन, शिव, विशानिन, सिम्यु, भृगु, पृथु और पर्शु (परशु)। इस युद्ध में पराजित द्रुह्रु राजा का नाम अंगार था। उसके बाद के द्रुह्रु राजा गंधार ने वायव्य दिशा में जाकर अपना राज्य स्थापित किया। गंधार के इसी राज्य को गांधार कहा जाने लगा। (आधुनिक युग में इसी का अपभ्रंश रूप कंधार है जो अफगानिस्तान में है।)
राजा सुदास : सम्राट भरत के समय में राजा हस्ति हुए जिन्होंने अपनी राजधानी हस्तिनापुर बनाई। राजा हस्ति के पुत्र अजमीढ़ को पंचाल का राजा कहा गया है। राजा अजमीढ़ के वंशज राजा संवरण जब हस्तिनापुर के राजा थे तो पंचाल में उनके समकालीन राजा सुदास का शासन था।
राजा सुदास का संवरण से युद्ध हुआ जिसे कुछ विद्वान ऋग्वेद में वर्णित 'दाशराज्ञ युद्ध' से जानते हैं। राजा सुदास के समय पंचाल राज्य का विस्तार हुआ। राजा सुदास के बाद संवरण के पुत्र कुरु ने शक्ति बढ़ाकर पंचाल राज्य को अपने अधीन कर लिया तभी यह राज्य संयुक्त रूप से 'कुरु-पंचाल' कहलाया। परन्तु कुछ समय बाद ही पंचाल पुन: स्वतन्त्र हो गया।
आखिर क्यों हुआ था यह युद्ध :
पुरोहिताई और जल बंटवारे का झगड़ा : उस काल की सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटना दसराज्ञ अथवा दस राजाओं का युद्ध है। इसमें उस काल के समुदाय या कबीलों का उल्लेख मिलता है। सुदास तृश्तु परिवार का एक 'भरत' राजा था। शुरू में विश्वामित्र सुदास का पुरोहित था पर बाद में सुदास ने विश्वामित्र को हटाकर वशिष्ठ को नियुक्त कर लिया था। बदला लेने की भावना से विश्वामित्र ने दस राजाओं के एक कबिलाई संघ का गठन किया।
इसमें पांच महत्वपूर्ण कबीले थे- पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्मु और पांच अन्य छोटे कबीले थे। अलिन, पक्थ, भलान, शिव एवं विषाणिन थे। यह संघर्ष परुष्णी (रावी) नदी के किनारे हुआ जिसमें सुदास का भरत कबीला विजयी रहे। इस युद्ध का एक कारण परुष्णी नदी के जल का बंटवारा भी था।
एक कारण यह भी : तुत्सु राजा दिवोदास एक बहुत ही शक्तिशाली राजा था जिसने संबर नामक राजा को हराने के बाद उसकी हत्या कर दी थी और उसने इंद्र की सहयता से उसके बसाए 99 शहरों को नष्ट कर दिया। बाद में धीरे-धीरे वहां कई छोड़े बड़े 10 राज्य बन गए। वे दस राजा एकजुट होकर रहते थे लेकिन दिवोदास के पुत्र सुदास ने फिर से इन पर आक्रमण कर दिया। उल्लेखनीय है कि भगवान ऋषभदेव के समय उनकी आज्ञा से इंद्र ने धरती पर 52 राज्यों का गठन किया था। इंद्र के विरूद्ध कई राजा थे।
सुदास के विरुद्ध लड़े ये समुदाय : ऋग्वेद का सुविख्यात नायक सुदास भारतों का नेता था और पुरोहित वसिष्ठ उसके सहायक थे। इनके शत्रु थे, पांच प्रमुख जनजातियां-, ‘अनु’, ‘द्रुह्यु’, ‘यदु’, ‘तुर्वशस्’ और ‘पुरु’ तथा पांच गौण जनजातियां- ‘अलिन’, ‘पक्थ’, ‘भलानस्’, ‘शिव’ और ‘विषाणिन’ के दस राजा। विरोधी गुट के सूत्रधार ऋषि विश्वामित्र थे और उसका नेतृत्व पुरुओं ने किया था। हालांकि इन दस राजाओं का सभी जगह अलग-अलग वर्णन मिलता है। यहां प्रस्तुत है ज्यादातर जगह पाया जाना वाला वर्णन।
1. अलीन समुदाय : इतिहासकार मानते हैं कि यह कबीला अफगानिस्तान के नूरिस्तान क्षेत्र के पूर्वोत्तर में रहता था। चीनी तीर्थयात्री हुएन त्सांग ने उस जगह को उनकी गृहभूमि होने का जिक्र किया है। अलीन समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
2. अनु : यह ययाति के पुत्र अनु के कुल का समुदाय था, जो परुष्णि (रावी नदी) के पास रहता था। अनु समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
3. भृगु समुदाय : माना जाता है कि यह समुदाय प्राचीन भृगु ऋषि के वंश के थे। बाद में इनका संबंध अथर्ववेद के भृगु-आंगिरस विभाग की रचना से किया गया है। भृगु समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
4. भालन समुदाय : कुछ इतिहासकारों के अनुसार यह बोलन दर्रे के इलाके में बसने वाले लोग थे। भालन समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
5. द्रुह्य : ऋग्वेद अनुसार यह समुदाय द्रुह्यु कुल का था, जो अफगानिस्तान के गांधार प्रदेश में निवास करता था। द्रुह्य समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
6. मत्स्य : ऋग्वेद में इस समुदाय का जिक्र मिलता है लेकिन बाद में इनका शाल्व से संबंध होने का उल्लेख भी मिलता है। यह जनजाति समुदास के लोग थे। मत्स्य समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
7. परसु : परसु समुदाय प्राचीन पारसियों का समुदाय था। ईरान इनका मूल स्थान था। प्राचीन समय में ईरान को पारस्य देश कहा जाता था। परसु समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
8. पुरु : यह समुदाय ऋग्वेद काल का एक महान परिसंघ था जिसे सरस्वती नदी के किनारे बसा होना बताया जाता रहा है, हालांकि आर्य काल में यह जम्मू-कश्मीर और हिमालय के क्षेत्र में राज्य करते थे। पुरु समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
9. पणी : इन्हें दानव कुल का माना जाता है लेकिन बाद के ऐतिहासिक स्रोत इन्हें स्किथी लोगों से संबंधित बताते हैं। पणी समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
10. दास (दहए) : यह दास जनजातियां थी। ऋग्वेद में इन्हें दसुह नाम से जाना गया। यह भी माना जाता है कि यह काले रंग के थे। दास समुदाय का नाम है राजा का नहीं इनके राजा कौन थे यह अभी अज्ञात है।
हार के बाद भूमिगत हो गए थे विश्वामित्र : यह भी सत्ता और विचारधारा की लड़ाई थी। एक और वेद पर आधारित भेदभाव रहित वर्ण व्यवस्था का विरोध करने वाले विश्वामित्र के सैनिक थे तो दूसरी ओर एकतंत्र और इंद्र की सत्ता को कायम करने वाले गुरु वशिष्ठ की सेना के प्रमुख राजा सुदास थे।
ऋग्वेद में दासराज युद्ध को एक दुर्भाग्यशाली घटना कहा गया है। इस युद्ध में इंद्र और वशिष्ट की संयुक्त सेना के हाथों विश्वामित्र की सेना को पराजय का मुंह देखना पड़ा। दसराज युद्ध में इंद्र और उसके समर्थक विश्वामित्र का अंत करना चाहते थे। हालांकि विश्वामित्र को भूमिगत होना पड़ा। लेकिन बाद में वे फिर से शक्तिशाली बनकर उभरे।
उस काल में राजनीतिक व्यवस्था गणतांत्रिक समुदाय से परिवर्तित होकर राजाओं पर केंद्रित भी हो रही थी। दशराज युद्ध में भारत कबीला राजा-प्रथा पर आधारित था जबकि उनके विरोध में खड़े कबीले लगभग सभी लोकतांत्रिक थे।
इस युद्ध में सुदास के भारतों की विजय हुई और उत्तर भारतीय उपमहाद्वीप के आर्यावर्त और आर्यों पर उनका अधिकार स्थापित हो गया। इसी कारण आगे चलकर पूरे देश का नाम ही आर्यावर्त की जगह 'भारत' पड़ गया।
ऋग्वेद में अफगानिस्तान की प्रमुख नदियों और जातियों का वर्णन मिलता है। सुवास्तु, क्रभु, गोमती का स्पष्ट उल्लेख मिलता है तथा अनिल, पख्त आदि राज्यों का भी विवरण मिलता है। स्वाद घाटी उस काल में श्वेत घाटी कहलाती थी। जलालाबाद में स्तूपों के वैसे ही खंडहर मिले हैं, जैसे तक्षशिला में।
ऋग्वेद के उल्लेख अनुसार कबीलाई बस्तियों की स्थिति तथा उनका विस्तार इस प्रकार था।
1. सबसे उत्तर-पश्चिम में गांधार, पक्थ, अनिल, भलान तथा विषाणियों का अधिकार था।
2.ऊपरी सिंध तथा पंजाब क्षेत्र में शिव, परशु, कैकेय, वृचिवंत यदु, अनु, तुर्वशु तथा द्रुह्मु रहते थे।
3.इससे पूरब (पश्चिमी उत्तर प्रदेश) में तृश्तु, भरत, पुरु तथा सृंजय रहते थे, जबकि एकदम पूरब में कीकतों का निवास था।
4.मत्स्य तथा चेदि पंजाब के दक्षिण, राजस्थान एवं मध्य प्रदेश में रहते थे।
5. पुराणों में दस जनजातियों का उल्लेख मिलता है। उनमें सुद्युम्न, इक्ष्वाकु, प्रांशु और शर्यानी इन चार जनजातियों का वर्णन विस्तार से है। कुछ समय पश्चात सुद्युम्न को और उपजातियों में बांटा गया। वे हैं पुरु, अनु, द्रुह्रु, तुर्वसु और यदु। पुरु पंजाब के ऋग्वैदिक प्रदेश के निवासी थे, अनु उत्तर और पश्चिम में रहते थे और द्रुह्रु पंजाब-कश्मीर के उत्तर और पश्चिम में रहते थे। ये बातें ऋग्वेद और पुराणों में स्पष्ट रूप से कही गई हैं।
संदर्भ :
*ऋग्वेद, महाभारत और पुराण।
*पुस्तक भारतीय पुरातत्व और प्रागैतिहासिक संस्कृतियां, लेखक डॉ. शिवस्वरूप सहाय।
*पुस्तक विश्वामित्र, लेखक बृजेश के बर्मन।