सावन आते ही उपवास/व्रतों का दौर शुरू हो जाता है। त्यौहारों की शुरुवात इसी मास से शुरू होती है। कई लोग अपने अपने धर्मों के अनुसार उपवास/व्रत रखते हैं। जो केवल सोमवार से एक दिन एकासना से लेकर पूरे चातुर्मास याने चार महीनों के अपनी श्रद्धानुसार संकल्प लेते हैं। ये निराहार से ले कर अन्य कई रूपों से निर्वाह किये जाते हैं। कई वैज्ञानिक तथ्यों के आधार पर यह उपवास स्वास्थ्यप्रद भी है तो कई मामलों में हानिप्रद भी। परन्तु विद्वानों की नजर में उपवास क्या है?
महात्मा गांधी का सत्याग्रह तो याद ही है। उनके उपवास और आमरण अनशन भारत के इतिहास में दर्ज है। उनका कहना है- “उपवास आत्म शुद्धि के लिए अथवा किसी उच्च या नीच हेतु की सिद्धि के लिए किया जाता है। उपवास सत्याग्रह के शस्त्रागार में एक महान शक्तिशाली अस्त्र है। इसे हर कोई नहीं चला सकता है। केवल शारीरिक योग्यता इसके लिए कोई योग्यता नहीं। ईश्वर में जीती-जागती श्रद्धा न हो, तो दूसरी योग्यताएं बिलकुल निरुपयोगी हैं। विचार रहित मनोदशा या निरी अनुकरण वृत्ति से वह कभी नहीं होना चाहिए। वह तो अपनी अंतरात्मा की गहराइयों से उठना चाहिए।”
“उपवास प्रचंड शस्त्र है। उसका शास्त्र है। पूर्ण शास्त्र कोई जानता नहीं। अशास्त्रीय ढंग से उपवास करने वालों को तो हानि ही होती है। लेकिन और लोगों को भी नुकसान हो सकता है। इसलिए बगैर अधिकार के किसी को उपवास नहीं करना चाहिए। उसी व्यक्ति के सामने उपवास हो सकता है जिसका उपवास के निमित्त के साथ संबंध हो और जो उपवासी के साथ संबंध रखता है।”
“आमरण उपवास सत्याग्रह के कार्यक्रम का एक बहुत ही महत्वपूर्ण हिस्सा और अंग है। अमुक परिस्थितियों में सत्याग्रह के शस्त्र भंडार का वही सबसे बड़ा और अमोघ या रामबाण शस्त्र है”
“उपवास किसी के शरीर पर असर डालने के लिए नहीं किया जाता वह तो दिल को छूता है, इसलिए उसका संबंध आत्मा से है। इससे उपवास का असर टिकाऊ होता है क्षणिक नहीं।”
“उपवास यंत्र या मशीन की तरह नहीं किया जा सकता। वह एक शक्तिशाली चीज है। इसका इस्तेमाल बिना सोचे समझे किया जाये तो ख़तरनाक होगा। उसके लिए पूरी-पूरी आत्म-शुद्धि की जरुरत है”
“जब इंसानी अक्ल काम नहीं करती तब अहिंसा का पुजारी उपवास करता है। उपवास से प्रार्थना की तरफ तबियत ज्यादा तेजी से जाती है यानि उपवास एक रूहानी चीज है। इसका रुख ईश्वर की तरफ होता है। इस तरह के काम का असर जनता की जिन्दगी पर यह होता है कि अगर वह उपवास करने वाले को जानती है तो उसकी सोई हुई अंतरात्मा जाग उठती है।”
“आध्यात्मिक उपवास एक ही आशा रखता है, वह है दिल की सफाई। दिल की सफाई यदि एक दफा हो गई तो मरने तक कायम रहती है। फाके का दूसरा कोई योग्य मकसद नहीं हो सकता।”
उपरोक्त सभी बातें हमें महात्मा गांधी की “हरिजन सेवक” के पृष्ठों में अंकित मिलती हैं। यही नहीं “मेडेलिन रोलां” को 6/1/1933 में लिखे पत्र में भी उपवास के बारे में बताया-
“सच्चा उपवास एक मूक और अदृश्य आदमी शक्ति को पैदा करता है। जो यदि उसमें आवश्यक बल और पवित्रता हो, तो सारी मानव जाति में व्याप्त हो सकती है। प्रार्थना उपवास के बिना नहीं हो सकती। उपवास यदि प्रार्थना का अभिन्न अंग न हो तो वह शरीर की मात्र यंत्रणा है जिससे किसी को कोई लाभ नहीं होता। ऐसा उपवास तीव्र आध्यात्मिक प्रयास है, एक अध्यात्मिक संघर्ष है। वह प्रायश्चित और शुद्धिकरण की प्रक्रिया है।”
स्वामी राम तीर्थ “राम हृदय” में उपवास के बारे में कहते हैं-
“उपवास तो केवल हमारी सहायता के लिए है। उसका हम पर आधिपत्य न होना चाहिए। लोग प्रायः उपवास इसलिए करते हैं कि वे उसके लिए बाध्य किये जाते हैं। तभी तो वे उपवास रूपी दासता के दास बन जाते हैं।”
“असली उपवास का अर्थ है अपने को सारी स्वार्थपूर्ण कामनाओं से रहित कर देना जिससे उन्हें किसी प्रकार का पोषण न हो और आप उन से पूर्णतया मुक्त हो जाएं।”
स्वामी राम तीर्थ ने “विश्वानुभूति भाग-8” में भी कहा-
“हमें सहायता के रूप में उपवास करना चाहिए। किन्तु हमें उसका दास न बन जाना चाहिए।”
काका कालेलकर ने “जीवन-साहित्य” में कहा है कि-
“उपवास करने से चित्त अंतर्मुख होता है। दृष्टि निर्मल होती है। देह हल्की बनी रहती है।”
धर्मवीर भारती ने “कहनी-अनकहनी” में कहा है-
“चारों तरफ उपवासों का शोर है, उपवास, उसके विरुद्ध उपवास, विरुद्ध उपवास के विरुद्ध उपवास और विरुद्ध के विरुद्ध विरुद्ध के विरुद्ध उपवास।”
क्वार्ल्स का कहना है कि-
“यदि तू स्वस्थ रहना चाहता है, तो उपवास और टहलने का प्रयोग कर। यदि स्वस्थ आत्मा चाहता है तो उपवास और प्रार्थना कर। टहलने से देह को व्यायाम मिलता है, प्रार्थना से आत्मा को व्यायाम मिलता है। उपवास दोनों को शुद्ध करता है।”
प्रेमचन्द ने “निर्मला” में कहा है-
“उपवास कर लेना आसान है, विषैला भोजन करना उससे कहीं मुश्किल।”
आचार्य रजनीश ने “युवक और मौन” में कहा –
“उपवास ज्यादा भोजन से भी बदतर है। ज्यादा भोजन भी आदमी दिन में दो-एक बार कर सकता है। लेकिन उपवास करने वाला आदमी दिन भर मन ही मन भोजन-भोजन करता है।”
लल्लेश्वरी ने “लल्लवाख” कश्मीरी में कहा है कि-
“ख्यनें ख्यनें करान कुन नो वात ख,
न ख्यनें गछख अहंकारी।
सोमुय ख्य मालि सोमुय आसख्,
समि ख्यनें मुचारनै बरेंन्यन् तोंरी।”
खान-पान के अतिरेक से किसी उद्देश्य को नहीं पाएगा। और निराहार बन कर अहंकारी बन जाएगा। भोजन युक्त हो मतलब न कम न ज्यादा उसी से समरसता रहेगी। समरसता युक्त आहार विहार से ही बंद द्वार खुल जाएंगे।
वेद व्यास ने “महाभारत के अनुशासन पर्व” में लिखा है-
“अंतरा सयामाशम् च प्रातराशम् च यो नरः
सदोपवासी भवति यो न भुंक्तेsन्तरा पुनः”
जो व्यक्ति प्रातःकाल एवं सायंकाल केवल दो समय भोजन करता है और बीच में कुछ नहीं खाता, वह सदा उपवासी होता है।
साथ ही “नव विधान (मत्ती)” के अनुसार-
“जब तुम उपवास करो तो मिथ्यचारियों के समान तुम्हारे मुंह पर उदासी न छाई रहे।”
अतः उपवास करना आप पर निर्भर करता है कि उद्देश्य कितना सार्थक है। जब तक मन, वचन, कर्म से आप निश्छल व शुद्ध नहीं होते तो ये सारे उपवास भी व्यर्थ हैं। भले ही वो देश के लिए हों, स्वास्थ्य के लिए या धार्मिक आस्था के लिए। विचारों की शुद्धता का उपवास वर्तमान भारत के लिए अनिवार्य है।