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एक जिंदगी की शहादत को चार दिन भी सहेज न सकें तो हम क्या भारतवासी?

एक जिंदगी की शहादत को चार दिन भी सहेज न सकें तो हम क्या भारतवासी? - Pulwama attack
जो जवान आग-सी तपती गर्मी में अपने बदन को लोहा बना देते हैं, कड़कड़ाती ठंड में अपने खून को सुर्ख कर लेते हैं और बर्फ में कहीं अपनी हड्डियां गला लेते हैं। जो हमारी जान बचाने के लिए देश की किसी सीमा, सियाचिन के किसी कोने या गहरे समंदर में किसी पनडुब्बी पर निगरानी करते या दुश्मन से दो-दो हाथ करते हुए शहीद हो जाते हैं।

उनके लिए कवि जगदंबा प्रसाद मिश्र ने एक शेर लिखा था।

'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले/
वतन पर मरने वालों का यही बाक़ी निशां होगा।'

कविता की ये 2 पंक्तियां हमारे जवानों की शहादत को याद करने के लिए कही और पढ़ी जाती हैं। लेकिन अफसोस की बात यह है कि जिस तरह से इन पंक्तियों का महत्व कम हुआ है, ठीक उसी तरह से हमारे जवानों की शहादत को याद करने का वक्त भी तेजी से घट गया है।

देश के 1 अरब 32 करोड़ लोगों की सुरक्षा में दी गई शहादत की उम्र घटकर बस कुछ पल, कुछ लम्हें या ज्यादा से ज्यादा 1 दिन ही रह गई है।

एक बानगी देखिए, ट्विटर पर जय हिन्द, पुलवामा टेरर अटैक और ब्लैक डे। ये 3 ट्रेंड चल रहे हैं। यह सब इसलिए हो रहा है, क्योंकि 14 फरवरी को पुलवामा अटैक की पहली बरसी है। इसलिए सोशल मीडिया पर हमारे जवानों की शहीदी को याद किया जा रहा है। उनकी याद में झंडे, बैनर और पोस्टर लगाए जा रहे हैं।

कहीं देशभक्ति के नारे लगाए जा रहे हैं। लेकिन यह सब सिर्फ आज हो रहा है, कल युद्ध के किसी मैदान की तरह यह शहादत भी सूनी हो जाएगी, भुला दी जाएगी, बिसरा दी जाएगी, ठीक उसी तरह जिस तरह हम अपने वीरों की शहादत को बिसराते जा रहे हैं। गुजरे कल में कोई शहीद हम भारतवासियों को याद नहीं था और आने वाले कल में भी याद नहीं रहेगा।

यह श्रद्धांजलि बस क्षणभर की है, यह स्मृति सिर्फ दिनभर की है। अखबारों की कुछ हेडलाइंस भी इसकी गवाह हैं। उनमें लिखा होता है... शहीद स्मारकों की स्थिति दयनीय, शहीदों की स्मारक पर फूल नहीं, जमी है धूल। कारगिल के शहीद को भुला दिया सरकार ने। यह सब आएदिन पढ़ने को मिलता है।

लेकिन ट्विटर पर शहीदों के लिए चल रहे ट्रेंड शाम होते-होते कहीं गुम हो जाएंगे, किसी पॉलिटिकल ट्रेंड की आड़ में खो जाएंगे। क्या हमारे जवानों की यही नियति है जिसने देश के लिए अपनी पूरी जिंदगी आहुति की तरह आग में डाल दी, उनकी शहादत क्या सिर्फ क्षणभर की है?

कैसे और कहां बिसरी शहादत? :

टाइगर हिल पर कब्जा करते हुए शहीद हुए सेना मेडल से अलंकृत ग्रेनेडियर योगेंद्र सिंह यादव की स्मृति में कैंट बोर्ड ने योगेंद्र हाट बनाया था, लेकिन आज तक हाट नहीं लग पाया।

स्मारक की इस जगह की मौजूदा हालत कैंट बोर्ड की संवेदनहीनता को बयां करती है। इस शहीद के स्मारक के आसपास अराजक लोगों ने अपना ठिकाना बना लिया है।

मुंगेर के तारापुर शहीद स्मारक की तस्वीरें आए दिन अखबारों में होती हैं। इस इलाके के शहीद हुए जवानों के स्मारकों की कई सालों बाद भी सुध नहीं ली गई है। आलम यह है कि आजादी के दिन भी यहां झाडू नहीं लगती।

नागपुर को 'शहीदों के पुतलों का शहर' कहा जाता है, यहां महात्मा गांधी से लेकर आजादी की लड़ाई में शहीद होने वाले और युद्धों में जान गंवाने वाले कई शहीदों के स्मारक हैं, लेकिन कोई गांधीजी के स्मारक पर स्याही पोत देता है तो कोई शहीदों के स्मारकों के पास अपनी होटल का कचरा पटक जाता है।

राजस्थान के झुंझुनु में दूसरे विश्वयुद्ध के साथ ही अन्य लड़ाइयों में शहीदों के नामों को शिलालेख पर उकेरा गया था, लेकिन वक्त के साथ ये सारे नाम स्मारक से मिट गए।

पूर्णिया जिले के धमदाहा में भी 25 अगस्त 1942 को चारों तरफ 'अंग्रेजों भारत छोड़ो' के नारे की गूंज उठी थी। तिरंगा हाथ में लेकर आगे बढ़ रहे 14 क्रांतिकारियों को अंग्रेज अफसरों ने गोलियों से भून दिया था। उनकी याद में धमदाहा में शहीद स्मारक बनाए गए, लेकिन अब कहीं उनके निशां भी बाकी नहीं हैं।

सिरसा कलार के हदरुख क्षेत्र में करीब 17 जवानों के स्मारक कई सालों से बदहाल हैं। न उनके परिजनों को कोई पूछता है और न ही शहीद जवानों की स्मृति को।

क्या दिल्ली, क्या देहरादून, अजमेर, मेरठ, कोलकाता, पंजाब, हरियाणा या कि फिर श्रीनगर हो या ग्वालियर, देश के हर हिस्से में देश के लिए मर मिटने वाले शहीदों के स्मारकों का यही आलम है।

कहा जाता है कि जो शहीद हो जाता है, उस जवान की शहादत इतनी महान है कि उसे पिंडदान की भी जरूरत नहीं होती। लेकिन जिस देश के लिए वे शहीद हुए हैं, उनकी याद में बनाई गई एक छोटी-सी प्रतिमा, एक स्मारक या उनकी शहादत को भी हम 4 दिन सहेज न सकें, तो हम क्या भारतवासी?
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