लाओस में भारतीय संस्कृति, रहस्यमय खजाना और मंदिरों के अवशेष : भाग 2
सदियों पूर्व संस्कृत लाओस की प्रमुख भाषा हुआ करती थी। हिन्दू और बौद्ध धर्म वहां एक समान प्रचलित और सम्मानित धर्म होते थे। शिव-भक्ति वहां आज भी होती है, यह कहना है 60 अंतरराष्ट्रीय पुरातत्ववेत्ताओं के एक समूह का, जो वहां शोध कार्य कर रहा है।
प्रस्तुत है इस लेखमाला की दूसरी कड़ी...
मंदिरों के अवशेष मिले : जिस जगह कथित ख़ज़ाना मिला था, उसके पास ही पकी हुई ईंटों से बनी एक इमारत के निशान भी मिले। वह कोई धार्मिक इमारत थी या रिहायशी, इसे जानने के लिए अधिक खुदाई के बाद पता चला कि वे निशान कई मंदिरों वाले एक संकुल के अवशेष हैं। खमेर साम्राज्य के शासक, देवी-देवताओं के प्रति अपना भक्ति-भाव दिखाने के लिए एक-दो नहीं, कई-कई मंदिरों के संकुल बनवाया करते थे। अवशेष यही बता रहे थे कि यहां भी ऐसा ही एक संकुल रहा होगा।
यदि ऐसा था तो मंदिरों के संभावित संकुल और उनके पास में ही मिले ख़ज़ाने के बीच क्या कोई संबंध भी था? मंदिरों के अलावा एक और ऐसी कला वस्तु मिली, जो पूर्व कथित ख़ज़ाने का हिस्सा रही हो सकती है। वह मंदिरों में बजाई जाने वाली एक ऐसी घंटी थी, जो ख़ज़ाने में मिली वैसी ही एक दूसरी घंटी से बहुत मिलती-जुलती थी। घंटी जिस जगह मिली थी, उसे देखते हुए पुरातत्वविदों का आकलन था कि वह 7वीं सदी के आस-पास बनी रही होगी। अब तक मिली सारी चीज़ें उनके विचार से सुविख्यात अंगकोर नगर वाले कालखंड से पहले के किसी राजघराने या धार्मिक भद्रजनों की संपत्ति रही होंगी। इस बीच लाओस में बरसात का मौसम शुरू हो जाने से सब जगह पानी भर गया और आगे का काम रोक देना पड़ा।
एक अभिलेख का छोटा-सा अंश मिला : खंदकों में तो काम रुक गया, लेकिन सवानाखेत की तिजोरी वाले कमरे में एक बड़ी सफलता मिलती दिखी। जिन 1800 छोटे-बड़े पुरातात्विक टुकड़ों की वहां जांच-परख चल रही थी, उनके बीच प्राचीन खमेर लिपि में लिखे एक अभिलेख (inscription) का छोटा-सा अंश मिला।
पुरातत्व विज्ञान में अभिलेखों को सबसे विश्वसनीय प्रमाण माना जाता है। वे किसी चीज़ की उपयोगिता, उद्गम या निर्माता की पुष्टि कर सकते हैं। पुरानी खमेर लिपि में लिखे अभिलेखों के तब तक 1400 उदाहरण मिल चुके थे। पुरातत्वविदों को आशा है कि उन्हें अभी कुछ और अभिलेखों के अंश मिलेंगे। उन्हें एक ऐसा संक्षिप्त अभिलेख भी मिला, जो चांदी की एक कटोरी के ऊपरी हिस्से पर संस्कृत में उकेरा हुआ है।
लाओस गए पुरातत्वविदों का कहना है कि खमेरकालीन लाओस के अभिलेख या तो पुरानी खमेर लिपि और भाषा में या फिर संस्कृत में लिखे मिलते हैं। धार्मिक संदर्भों वाले लेख प्राय: संस्कृत में ही हुआ करते थे। जो कुछ भी मंत्र, श्लोक या काव्यरूपी होता था, वह संस्कृत में लिखा जाता था, जो कुछ पाठ्यरूपी होता था, वह खमेर लिपि में लिखा जाता था।
सही काल-निर्धारण : भाषा और लिपि के अलावा ख़ज़ाने में मिली वस्तुओं के धार्मिक स्वरूपों को भी अध्ययन का विषय बनाया गया ताकि उनका सही काल-निर्धारण हो सके। सोने-चांदी के ऐसे कई पात्र आदि हैं जिन पर हिन्दू देवी-देवताओं को उकेरा गया है। चांदी के एक ऐसे ही फलक पर 2 व्यक्तियों के बीच बैठे शंकर भगवान की तस्वीर उकेरी हुई मिली। उनके हाथ में माला और सिर पर बालों का जूड़ा है।
उल्लेखनीय है कि भारत में शंकर भगवान के सिर पर के जूड़े से प्राय: गंगा नदी निकलती दिखाई जाती है। लाओस में मिला यह फलक 8वीं सदी में बना यानी लगभग 1400 वर्ष पुराना है। लगभग यही वह समय भी है, जब आज के कंबोडिया और उसके पड़ोसी देशों में कई रजवाड़े और छोटे-बड़े शहर बनने लगे थे। 'नोंग हुआ थोंग' में जिस जगह कथित ख़ज़ाना मिला था, वहां बरसात के बाद उत्खनन के अगले चरण में एक लंबी बनावट दिखी। वह एक दीवार की नींव थी। दीवार के पीछे कभी लोग रहा करते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि 'नोंग हुआ थोंग' बहुत पहले कोई छोटा-सा गांव नहीं बल्कि एक शहर था।
जंगली इलाके की हवाई स्कैनिंग : वास्तविकता जानने के लिए एक हेलीकॉप्टर की सहायता से लेजर स्कैनिंग की 'लाइडर' तकनीक का उपयोग करते हुए पास के घनघोर जंगली इलाके की हवाई स्कैनिंग की गई। इस तकनीक में करोड़ों लेजर बीमें, जंगलों को भेदते हुए पेड़ों के नीचे छिपी संरचनाओं को उजागर कर देती हैं। देखने में आया कि वहां एक परकोटे की 2 किलोमीटर लंबी 2 दीवारें हैं। टीम का अनुमान है कि अतीत में वहां 8 हज़ार निवासियों का एक शहर रहा होगा।
लेजर स्कैंनिंग से परकोटे के भीतर किसी राजमहल-जैसी एक ऐसी इमारत रही होने के भी संकेत मिले जिसमें कभी कोई राजा या रईस रहता रहा होगा। ऐसी कोई जानकारी इससे पहले नहीं थी इसलिए तय हुआ कि इस रहस्य की खोज जारी रहेगी। खोजी टीम का सोचना था कि वह इस समय जिस ख़ज़ाने के रहस्य पर से पर्दा उठाना चाहती है। हो सकता है कि उसे जान-बूझकर ठीक उसी जगह पर गाड़ा गया था, जहां परकोटे की दोनों दीवारें एक-दूसरे से जुड़ती हैं ताकि ज़रूरत पड़ने पर ख़ज़ाने को ढूंढने में आसानी रहे।
यह भी हो सकता है कि ख़ज़ाने को लूटे जाने से बचाने के लिए उसे गड़ना पड़ा हो। ऐसी स्थिति तब आई हो सकती है, जब परकोटे के भीतर का शहर किसी संकट में पड़ गया हो। वह एक ऐसा समय था, जब लाओस में अपने आप को राज्य समझने वाले शहरों और बड़े इलाकों के राजाओं के बीच लड़ाइयां आम बात हुआ करती थीं।
ख़ज़ाना एक, पहेलियां अनेक : एक प्रश्न यह उठता है कि 14-15 सदी पूर्व क़रीब 8 हज़ार लोगों का अपेक्षाकृत एक छोटा-सा शहर 'नोंग हुआ थोंग' एक इतने बड़े अमूल्य ख़ज़ाने का मालिक बना कैसे? यह भी तो संभव है कि एक ऐसा ख़ज़ाना किसी और बड़ी एवं और धनवान जगह से आया रहा हो! इस शहर के बिलकुल पास से मेकांग नदी की एक जल धारा बहती है। उसके किनारे 40-40 सेंटीमीटर व्यास वाले कई गड्ढे मिले। हर गड्ढे में लकड़ी के खंभों के अवशेष थे। खंभे सीधे पानी की दिशा में जाते दिखते हैं।
उनकी संख्या और बनावट से लगता है कि वहां एक घाट रहा होगा। यह जगह शहर से सीधे वहां जुड़ी हुई है, जहां ख़ज़ाना मिला था। अत: यह भी संभव है कि ख़ज़ाना कहीं और से नाव द्वारा आया हो और छिपाने के लिए ठीक वहां गाड़ दिया गया हो, जहां आज के 'नोंग हुआ थोंग' के ग्रामीण को वह अब मिला! यानी ख़ज़ाना भले ही इस गांव में मिला है, आया कहीं और से होगा।
आज एक छोटा-सा गांव रह गया 'नोंग हुआ थोंग' सदियों पहले एक शहर हुआ करता था। मेकांग नदी बहुत पास होने से उसका अपना एक अलग सामरिक और व्यापारिक महत्व था। खमेर साम्राज्य जब तक रहा, नदी-मार्ग से देश के उत्तरी और दक्षिणी भागों के बीच व्यापार व यातायात वहीं से होकर गुज़रता था। लाओस में मेकांग नदी का आज भी वही पवित्र स्थान है, जो भारत में गंगा का है। कई बड़े-बड़े राजाओं के राज्य और बड़े शहर उसके किनारों पर बसे हुए थे। राजे-महाराजे भी इस नदी के रास्ते से अपने राज्यों और राजमहलों तक आते-जाते थे।
उत्कृष्ट कारीगरी का इशारा : पुरातात्विक खोजें कहती हैं कि लाओस के पुराने राज्यों और रजवाड़ों के समय कुछ राजशाहियां बहुत धनी व शक्तिशाली होती थीं, कुछ नहीं। इसलिए यह भी संभव है कि किसी धनी-मानी और शक्तिशाली शासक का ख़ज़ाना नदी के रास्ते से 'नोंग हुआ थोंग' पहुंचा हो और यह मानकर वहां ज़मीन के नीचे गाड़ दिया गया हो कि उचित समय पर उसे निकाल लिया जाएगा। शोधक टीम का मानना है कि ख़ज़ाने की वस्तुओं की उत्कृष्ट कारीगरी यही इशारा करती है कि उसका संबंध खमेर साम्राज्य के किसी महत्वपूर्ण राजा से रहा है। यह ख़ज़ाना संभवत: उस राजा द्वारा बनवाए गए 'वाट फू' नामक के मंदिर का है।
'वाट फू' नाम के मंदिरों का संकुल आज के 'नोंग हुआ थोंग' गांव से 350 किलोमीटर दक्षिण में है। लाओस के सबसे अधिक धार्मिक लोग इसी मंदिर में जाते हैं। हर वर्ष के हर तीसरे महीने की पूर्णिमा के दिन हज़ारों भक्तजन एक धार्मिक पर्व के लिए वहां एकत्रित होते हैं। यह पर्व 3 दिनों तक तक चलता है।
भक्तजन और भिक्षु हालांकि अब बौद्धधर्मी हैं किंतु पर्व व उसके अनुष्ठानों की जड़ें सनातन हिन्दू धर्म में हैं। जड़ें उस समय तक पीछे जाती हैं, जब विख्यात अंगकोर शहर बना भी नहीं था। 'वाट फू' मंदिर 'फु काओ' नाम के एक पहाड़ की तलहटी में बना है। मंदिर-संकुल का परिसर 1400 वर्ग मीटर बड़ा है। संकुल का मुख्य मंदिर 11वीं सदी में बना था।
मंदिर अब खंडहर हैं : आस-पास की जगहों पर ऐसे दूसरे मंदिर एवं खंडहर भी हैं, जो 'नोंग हुआ थोंग' में मिले ख़ज़ाने से भी पहले बने थे। इस और भी पुराने समय के बारे में पुरातत्वविद् बहुत कम जानते हैं। अत: वे जानना चाहते थे कि इस संकुल के अलग-अलग मंदिर कब बने होंगे। यदि यह पता चलता है कि इस मंदिर-संकुल के बनने का और 'नोंग हुआ थोंग' में मिले ख़ज़ाने के बना होने का समय मिलता-जुलता है तो इससे इस अभिकल्पना को बल मिलेगा कि ख़ज़ाना पहले 'वाट फू' में था, वहीं से किसी कारण वश उसे 'नोंग हुआ थोंग' ले जाकर वहां छिपाया गया।
एक ड्रोन द्वारा 'वाट फू' मंदिर-संकुल और उसके आस-पास की जगहों के त्रिआयामी (3D) फ़ोटो लिए गए। 'फ़ोटोग्रामेट्री' नाम की एक नई तकनीक की सहायता से अतीत की संरचनाओं को काफ़ी कुछ जानना और उनके बनने के समय का निर्धारण करना संभव है। इस तकनीक की सहयता से 'वाट फू' संकुल वाले मंदिरों के भग्नावशेषों के ऐसे डिजिटल मॉडल तैयार किए गए, जो इन मंदिरों के मूल आकार-प्रकार जैसे माने जा सकते हैं। मुख्य मंदिर की सादगी के आधार पर अनुमान लगाया गया कि वह 7वीं सदी में बना होना चाहिए। ख़ज़ाने में मिली सबसे पुरानी चीज़ें भी लगभग उतनी ही पुरानी हैं। तो क्या वे 'वाट फू' में ही बनी भी होंगी?
कांसे की वस्तुओं का प्रचलन था : खमेर साम्राज्य के आरंभिक काल में विशिष्ट अवसरों पर वहां तांबे (कॉपर) और जस्ते (ज़िंक) के मेल से बने कांसे की वस्तुओं के उपयोग का प्रचलन था। बहुचर्चित ख़ज़ाने में मिली घंटी कांसे की ही बनी है। हो सकता है कि मंदिरों में पूजा के समय घंटियां भी बजाई जाती रही हों। पुराने दस्तावेज़ों से संकेत मिलता है कि 'वाट फू' के निकट तांबे (कॉपर) की खानें हुआ करती थीं। खोज करने पर यह बात सच निकली। 'वाट फू' से कुछ ही दूर की एक पहाड़ी पर अतीत में रहे तांबे और उस की खुदाई के चिन्ह मिले।
ईस्वीं सन् 450 के तथाकथि देवानिका नाम के शिलालेख को पूरे दक्षिण-पूर्वी एशिया में संस्कृत में लिखा सबसे पुराना शिलालेख माना जाता है। कहीं दूर से आए देवानिका के बार में कहा जाता है वह स्वयं को राजाओं का राजा यानी महाराजा बताया करता था।
यह शिलालेख वास्तव में संस्कृत में लिखी एक कविता है। उसकी लिपि देवनागरी नहीं है। उसमें कहा गया है कि राजा देवानिका ने 5वीं सदी में एक शाही राजधानी 'कुरुक्षेत्रा' का निर्माण आरंभ किया। इसका यह अर्थ लगाया जाता है कि राजा देवानिका की राजधानी जब बनी, उस समय 'नोंग हुआ थोंग' में मिला ख़ज़ाना भी कहीं-न-कहीं अस्तित्व में था। 'कुरुक्षेत्रा' और ऊपर वर्णित 'वाट फू' मंदिर एक-दूसरे के बहुत निकट थे।