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अब तो सरकार के पास वो कूवत ही नहीं कि वो भारत रत्‍न के बिल्‍ले के लिए रतन टाटा को गर्दन झुकाने के लिए कहे

ratan tata
... हालांकि आपके और हमारे द्वारा दिए गए सुख की दरकार नहीं थी रतन टाटा को— वे खुद ही इतना सुखी थे कि पूरी जिंदगी बेजुबानों से प्‍यार करते हुए विदा हो गए— लेकिन क्‍या हो जाता यदि मरने से पहले अपने दिल में रतन टाटा ‘भारत रत्‍न’ का सुख लेकर जाते?

किंतु यह इस देश में मुमकिन नहीं। देश राजनीति की बेशर्म गर्द और गंध से चलता है, राजनीति वोटों से चलती है और वोट से सरकारें आगे बढ़ती हैं। सरकारों को ऐसे लोगों से कोई वास्‍ता नहीं, जो अरबों-खरबों का एंपायर स्‍थापित करने के बाद भी धूल धक्‍कड़ में बैठकर बेजुबानों को दुलार करते रहें।

सरकारें सम्‍मान करने से पहले यह देखती हैं कि कौन दलित है और कौन आदिवासी? सरकारें देखती है कि कौन ब्राह्मण है और कौन ठाकुर? वो यह देखती हैं कि किस राज्‍य में चुनाव है और कहां से कितने प्रतिशत वोट मिलेंगे?

हद तो तब हो जाती है जब सम्‍मान देने के लिए सरकार किसी रतन टाटा की मृत्‍यु की बेशर्मी से प्रतीक्षा करती है।

एक बार तो मुझे यह भ्रम ही हो गया कि शायद भारत रत्‍न मृत्‍यु उपरांत ही मिलता होगा। यह भी लगा कि रतन टाटा को तो भारत रत्‍न अब तक मिल ही चुका होगा। किंतु जब सर टाटा की अंतिम यात्रा के लिए सेज सजाई जा रही थी तो ठीक इसी वक्‍त किसी नेता का बयान न्‍यूज चैनल की स्‍क्रीन पर फ्लैश हो रहा था— और वो उन्‍हें भारत रत्‍न देने की मांग कर रहा था, तब मुझे पता लगा कि रतन टाटा तो बगैर भारत रत्‍न के ही चले गए।

हालांकि, जो रतन टाटा किंग चार्ल्‍स के बुलावे पर बकिंघम पैलेस जाने और सम्‍मान लेने से इस वजह से इनकार कर दें कि अभी उनका कुत्‍ता बीमार है और इसलिए वे नहीं आ सकते, ऐसे रतन को भारत सरकार कोई सम्‍मान देना ‘डिजर्व’ करती भी नहीं। न ही रतन टाटा के समक्ष किसी सरकार का कद इतना बड़ा नजर आता है कि वो ‘भारत रत्‍न’ का बिल्‍ला डालने के लिए रतन टाटा की गर्दन झुकाने के लिए कहे।

हालांकि रतन टाटा को जीते-जी भारत रत्‍न न दिए जाने की मेरी यह चिढ़ यहां मुझे खुद ही गलत लगती है— और मैं खुद अब इस बात से इत्‍तेफाक नहीं रखता हूं कि सर टाटा को अब भारत रत्‍न मिलना चाहिए— क्‍योंकि रतन टाटा की जिंदगी किसी राजनीतिक चेतना से संचालित होने वाली जिंदगी नहीं थी। उनकी जिंदगी कोई राजनीतिक मामला नहीं थी। वो तो इस देश में पसरे राजनीतिक, सामाजिक और यहां तक कि सांस्‍कृतिक अराजकताओं की इस गर्द और आंधी में एक ऐसी घटना थे, जो यह सिखाने आए थे कि एक इंसान को कैसे जीना चाहिए। तमाम कामयाबी- दौलत और शोहरत के बावजूद एक आदमी को क्‍या और कैसा होना चाहिए? वो आपको और हमें यह बताने आए थे कि एक आदमी होने के मायने क्‍या होते हैं। अब तो आपके और हमारे पास वो कूवत भी नहीं बची कि हम किसी भारत रत्‍न के लिए रतन टाटा की गर्दन झुकाने लिए कहें। वे तो पहले से ही भारत की ‘जनता के रतन’ थे।\
Ratan tata
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