Story of 100 Years of Turkey : 29 अक्टूबर 2023 तुर्की में राष्ट्रीय जश्न का दिन था। 100 वर्ष पूर्व इसी दिन तुर्की के राष्ट्रपिता कहलाने वाले मुस्तफा केमाल अतातुर्क ने एक गणराज्य के रूप में वर्तमान तुर्की की स्थापना की थी। प्रथम विश्वयुद्ध में हार गया तुर्की, इससे पहले उस्मानी (ऑटोमन) साम्राज्य कहलाने वाला एक विशाल साम्राज्य हुआ करता था।
तुर्की के नए कलेवर की 100वीं वर्षगांठ सैन्य परेड, आतिशबाजी और लेज़र-प्रकाश शो के साथ वहां धूमधाम के साथ मनाई गई। राष्ट्रपति रेजब तैयब एर्दोआन ने राजधानी अंकारा में अतातुर्क की समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की। पूरे देश में रंगबिरंगे कार्यक्रम हुए। लाल और सफेद तुर्की झंडे फहराए गए और अतातुर्क की तस्वीरें इमारतों पर से लटकाई गईँ। अंकारा और इस्तांबुल में सैन्य परेडें हुईँ। बॉस्फोरस जलडमरूमध्य पर से जहाजों के एक काफिले ने सलामी दी। ड्रोन युद्धाभ्यास और आतिशबाजी हुई। इस्तांबुल में हागिया सोफिया जैसी इमारतों को रोशनी से जगमगाया गया।
इस सबके पीछे का इतिहास यह है कि 1453 के बाद से तुर्की के उस्मानी वंश का साम्राज्य एशिया, यूरोप और उत्तरी अफ्रीका के एक बहुत बड़े भूभाग तक फैल गया था। 19वीं सदी में यूरोप और अफ्रीका के उसके कई हिस्से यूरोप वालों के हाथों में चले गए थे। तब भी 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ने तक तुर्की के उस्मानी साम्राज्य का सुल्तान ही इस्लामी जगत का खलीफ़ा भी होता था।
उस्मानी साम्राज्य की हार : सुल्तान ने तत्कालीन जर्मन सम्राट और ऑस्ट्रो-हंगेरियन सम्राट से हाथ मिला रखा था। रूस, ब्रिटेन, फ्रांस और इटली द्वारा 1918 में इस त्रिगुटे की हार के साथ प्रथम विश्वयुद्ध समाप्त हुआ। सेवेर और लुसान नाम की जगहों पर हुई शांति संधियों के अधीन पराजित राजशाहियों के भूभागों की बंदरबांट हुई। तुर्की के उस्मानी साम्राज्य का आकार काट-छांट कर केवल उतना ही रहने दिया गया, जितना बड़ा तुर्की आज है।
इसी के साथ उस इस्लामी 'खलीफ़त' परंपरा का भी अंत हो गया, जिसकी पुनर्स्थापना के लिए उस समय के भारत में एक ज़ोरदार 'खिलाफ़त' आंदोलन चला था। कहा जाता है कि उसे 'खलीफ़त' के अंत के बदले खिलाफ़त यानी भारत में ब्रिटिश शासन का विरोध समझकर महात्मा गांधी और दूसरे बड़े भारतीय नेताओं ने भरपूर समर्थन दिया था। केरल के एक ज़िले में एक भयंकर हत्याकांड भी हुआ था, जिसमें 'खिलाफ़त' आंदोलन का विरोध करने वाले वहां के सैकड़ों, शायद हज़ारों की संख्या में अन्यधर्मी स्थानीय निवासी मारे गए बताए जाते हैं।
राजशाही का अंत : अतातुर्क ने एक लोकतांत्रिक संविधान बनवाया और राजशाही के अंत के एक वर्ष बाद, 29 अक्टूबर, 1923 को तुर्की को एक गणराज्य घोषित किया। अतातुर्क का अर्थ है, तुर्कों के पिता। यह सम्मान उन्हें तुर्की की संसद की ओर से 1934 में मिला था। वे 1923 से लेकर 1934 में अपनी मृत्यु होने तक देश के प्रथम राष्ट्रपति रहे। उन्होंने लोकतंत्र की पश्चिमी अवधारणा को अपनाया। राजशाही काल में इस्लाम ही राजकीय धर्म हुआ करता था।
अतातुर्क ने धर्म और राज्य की सत्ता को एक-दूसरे से अलग करते हुए धर्मनिरपेक्षता का मार्ग चुना। 1930 के दशक में महिलाओं को वोट देने और उन्हें सभी प्रकार के चुनावों में स्वयं भी उम्मीदवार बनने का अधिकार दिया। बुर्के-हिजाब आदि का विरोध करते हुए महिलाओं से कहा, दुनिया को अपना चेहरा दिखाओ, दुनिया को अपनी आंखों से देखो।
अतातुर्क का समाज सुधार : तुर्की में उस समय प्रचलित अरबी लिपि को हटाकर अतातुर्क ने उसकी जगह लैटिन का प्रचलन किया। पश्चिमी कैलेंडर और मापने-तौलने की मेट्रिक प्रणाली अपने यहां लागू की। वे धर्म-कर्म से ऊपर उठकर यूरोप-अमेरिका जैसी आधुनिक रहन-सहन वाला एक ऐसा तुर्की चाहते थे, जिसने उस्मानी साम्राज्य वाले दिनों की लगभग सभी परंपराओं से मुंह मोड़ लिया हो।
लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए मुस्तफा केमाल अतातुर्क ने सेना को राज्यसत्ता का पहरेदार बनाया था। सेना को जब कभी लगता था कि अतातुर्क की विरासत को आंच पहुंच रही है, तो वह हस्तक्षेप करती और निर्वाचित सरकार को हटाकर सत्ता हथिया भी लेती थी। सरकार का तख्ता पलटने वाला एक ऐसा ही हस्तक्षेप 1960 में देखने में आया। उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री अदनान मेन्देरेस, धर्मनिरपेक्षता वाले नियम को धर्मसापेक्षता में बदलते हुए इस्लाम की वापसी का प्रयास कर रहे थे।
गृहयुद्ध की नौबत आई : 1980 में तुर्की के वामपंथी और दक्षिणपंथी अतिवादियों के बीच टकराव से वहां गृहयुद्ध की नौबत आ गई थी। उस समय भी सेना ने सत्ता अपने हाथों में ले ली। सैनिक हस्तक्षेप की ऐसी तीसरी घटना 1997 में देखने में आई। उस समय सेना ने इस्लामवादी तत्कालीन प्रधानमंत्री नेज्मेतीन एर्बाकान को पद से हटा दिया था। आज के राष्ट्रपति रेजब तैयब एर्दोआन ने एर्बाकान से ही राजनीति के गुर सीखे थे।
एर्दोआन भी आरंभ में जनता को अपना उद्धारक लगते थे। देश के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल की बंदरगाही बस्ती कासिमपासा के एक कम पढ़े-लिखे ग़रीब परिवार में 26 फ़रवरी 1954 को पैदा हुए थे। 1994 में इस्तांबुल के मेयर बने। जनता में लोकप्रिय भी हुए। शुरू से ही इस्लाम-भक्त रहे हैं। स्कूली शिक्षा मस्जिद में इमाम बनने की थी। बाद की उच्च शिक्षा 1981 में जिस डिप्लोमा के साथ पूरी की है, 2016 से उसकी सच्चाई संदेह के घेरे में है।
एर्दोआन का उदय : राजनीति के अखाड़े में उतरने के बाद शुरू-शुरू में वे तीन अलग-अलग पार्टियों से होकर गुज़रे। 2001 में कुछ पुराने संगी-साथियों के सहयोग से एर्दोआन ने अपनी एक अलग पार्टी बनाई, जिसे संक्षेप में AKP कहा जाता है। उसके नाम का हिंदी में अर्थ होगा 'न्याय और उत्थान पार्टी।
एर्दोआन आज भी इसी पार्टी के सर्वेसर्वा हैं। अगस्त 2014 में तुर्की का राष्ट्रपति बनने से पहले वे 2003 से 2014 के बीच 3 बार प्रधानमंत्री भी रह चुके थे।यह भी कैसी विडंबना है कि 100 साल पहले मुस्तफा केमाल अतातुर्क ने एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के रूप में जिस तुर्की को जन्म दिया, उसकी जन्मशती मनाने का सौभाग्य एक ऐसे राष्ट्रपति को मिला है, जो सिर से पैर तक इस्लामधर्मी है।
एर्दोआन ने उस सेना के पर बुरी तरह कतर दिए हैं, जिसे अतातुर्क ने अपनी धर्मनिरपेक्ष विरासत का संरक्षक बनाया था। इसके लिए उन्होंने 2016 में सेना द्वारा तख्तापलट के एक ऐसे कथित प्रयास को बहाना बनाया, जिसके बारे में बहुत से लोगों का यही मानना है कि वह सेना से लेकर हर छोटे-बड़े स्तर पर ऐसे लोगों का सफ़ाया कर देने का निर्मम अभियान था, जिनकी एर्दोआन के प्रति अंधी निष्ठा संदिग्ध हो सकती थी।
तख्तापलट या नाटक : वह शुक्रवार, 15 जुलाई का दिन था। तुर्की में शाम के साढ़े सात बजे थे। राजधानी अंकारा और देश के सबसे बड़े शहर इस्तांबुल की सड़कों पर सैनिक और टैंक उतर आए। इस्तांबुल में बने बॉस्फ़ोरस पुल के एशियाई भाग से यूरोपीय भाग की ओर जाने वाले हिस्से पर यातायात रोक दिया गया, लेकिन दूसरी दिशा में चलता रहा। सरकारी टेलीविज़न चैनल टीआरटी की एक महिला प्रसारक ने देश की शांति परिषद की ओर से एक घोषणा पढ़कर सुनाई : देश सेना के नियंत्रण में है। मार्शल लॉ और अनिश्चितकालीन कर्फ्यू लगा दिया गया है।
प्रधानमंत्री बिनाली यिल्दीरिम ने भी एक दूसरे चैनल पर कहा, सेना का एक हिस्सा सत्ता हथियाना चाहता है, लेकिन हम अपने लोकतंत्र के साथ कोई भितरघात नहीं होने देंगे। राष्ट्रपति एर्दोआन राजधानी अंकारा में नहीं थे। रमजान के बाद तुर्की के भूमध्य सागरीय शहर मार्मारिस में अवकाश मना रहे थे। संभवतः वहीं से रात क़रीब 11 बजे वे अपने मोबाइल फ़ोन से टेलीविज़न चैनल 'सीएनएन तुर्क के' स्टूडियो में फ़ोन करते हैं। सीधे प्रसारित हो रहे इस फ़ोन के दौरान एर्दोआन कहते हैं, मैं जनता से अपील कर रहा हूं कि वह (इस्तांबुल के) हवाई अड्डे और शहर के चौकों पर जमा हो।
यह तो अल्लाह का तोहफ़ा है : क़रीब एक घंटे बाद एर्दोआन का विमान इस्तांबुल के अतातुर्क हवाई अड्डे पर उतरता है। हज़ारों लोगों की भीड़ उनका जय-जयकार करती है। एर्दोआन भीड़ से कहते हैं, यह तो अल्लाह का एक तोहफ़ा है... ताकि सेना की सफ़ाई हो सके। उस रात जहां कहीं लोग सैनिकों को देखते हैं, उन पर टूट पड़ते हैं। टैंकों को घेरकर आगे नहीं बढ़ने देते।
सैनिकों को बाहर खींचकर उनकी पिटाई की जाती है। कइयों की गला रेतकर हत्या भी। मुश्किल से चार ही घंटों में कथित तख्तापलट उलट जाता है। अगले 12 घंटों में सारा खेल ख़त्म हो जाता है। उस समय के प्रधानमंत्री यिल्दीरिम कहते हैं, उस रात 265 लोग मरे। उनमें से 161 सरकार के प्रति निष्ठावान सुरक्षाबल और सामान्य नागरिक थे। 1440 लोग घायल हुए।
उस रात व अगले दिन, शनिवार 16 जुलाई को व्यापक धरपकड़ होती है। साधारण सैनिकों से लेकर सेना के सभी अंगों के सबसे ऊंचे अफ़सरों तक 2839 गिरफ्तारियां हुईं। देश की सर्वोच्च न्यायाधीश परिषद के पांच न्यायाधीशों से लेकर निचले स्तर के कुल लगभग 15 हज़ार जजों और सरकारी अभियोजकों में से 2745 को यानी 20 प्रतिशत को पदमुक्त या निलंबित कर दिया जाता है। 17 न्यायाधीशों वाले संविधान व्याख्या न्यायालय के न्यायमूर्ति अल्परस्लान अल्तान को गिरफ्तार कर लिया जाता है।
अपूर्व सफ़ाई अभियान : अगले दिनों में भी ये आंकड़े सुरसा के मुंह की तरह बढ़ते ही गए। 19 जुलाई तक 6038 सैनिक, क़रीब आठ हज़ार सरकारी कर्मचारी गिरफ्तार और 30 हज़ार अन्य लोग बर्खास्त या निलंबित हो चुके थे। 20 जुलाई तक 22 हज़ार शिक्षकों और शिक्षा मंत्रालय के कर्मचारियों पर भी कुछ ऐसी ही गाज गिर चुकी थी।
जनरल, एडमिरल या एयर मार्शल रैंक तक के 100 से अधिक उच्चस्तरीय सैनिक अफ़सरों को 19 जुलाई तक जेलों में ठूंस दिया गया था। आपात स्थिति लागू रहने तक कुल 81,494 सरकारी कर्मचारी अपनी नौकरियां खो चुके थे। 11 सांसद, विपक्षी पार्टी HDP के 1400 कार्यकर्ता जेलों में बंद हो चुके थे। तब से आज तक 50,000 से अधिक लोग जेलों में बंद हैं। उनमें से 8816 पुलिसकर्मी हैं, 167 जनरलों आदि सहित 6982 सैनिक हैं, 2431 अदालती जज हैं और 23 प्रादेशिक गवर्नर हैं।
ये सभी आंकड़े सरकारी आंकड़े हैं। स्वाभाविक है कि हर कोई पूछे बिना नहीं रह सकता कि तख्ता यदि सेना के लोग पलट रहे थे, तो फिर शिक्षकों, सामान्य कर्मचारियों और इतनी बड़ी संख्या में जजों आदि की छंटनी या गिरफ्तारी किसलिए? यदि इतने सारे लोग तख्तापलट के प्रयास में शामिल थे, तो केवल 12 घंटों में ही सारा खेल खतम कैसे हो गया? 15 जुलाई 2016 की रात इस्तांबुल हवाई अड्डे पर उतरते समय एर्दोआन ने खुद ही कहा था, यह तो अल्लाह का एक तोहफ़ा है... ताकि सेना की सफ़ाई हो सके। आलोचक मानते हैं कि तख्तापलट एर्दोआन का ही रचा एक निर्मम नाटकीय सफ़ाई अभियान था।
एकछत्र निष्कंटक राज : तब से एर्दोआन पूरी तरह एकछत्र निष्कंटक राज कर रहे हैं। 2017 में संविधान में कई संशोधनों द्वारा उन्होंने तुर्की को संसद की प्रधानता के बदले राष्ट्रपति की प्रधानता वाला देश बना दिया है। अब वे ही राष्ट्रपति भी हैं और प्रधानमंत्री भी। न्यायप्रणाली पर भी उनकी पकड़ अब पहले से कहीं अधिक है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की प्रेस की स्वतंत्रता सूची में तुर्की नीचे गिरते-गिरते 2023 में 165वें नंबर पर पहुंच गया। 2016 वाली घटनाओं के दौरान वहां 100 से कहीं अधिक पत्रकारों की गिरफ्तारी हुई। क़रीब 150 पत्र-पत्रिकाएं और रेडियो-टीवी चैनल बंद हो गए और 700 से अधिक पत्रकारों की मान्यता वाले प्रेस कार्ड रद्द कर दिए गए।
एर्दोआन अपने भाषणों में गर्भपात को भ्रूण हत्या बताते हैं। औरतें शारीरिक तौर पर नाज़ुक होती हैं, इसलिए स्त्री-पुरुष समानता हो ही नहीं सकती। इस्लाम ने महिलाओं को मां की भूमिका दी है। इसे नहीं मानने वाली महिलाओं को इस्लाम में विशेष स्थान नहीं मिल सकता। उन्हें गर्भनिरोध के बदले अधिक संतानें पैदा करनी चाहिए। अल्लाह के काम में बाधा नहीं डालनी चाहिए। एर्दोआन स्कूली दिनों की इमामी पढ़ाई के प्रति आज तक निष्ठावान बने हुए हैं।
जिन्हें तुर्की से भागना पड़ा : लेकिन तुर्की के गणराज्य बनने की 100वां वर्षगांठ उन सभी लोगों के लिए जश्न मनाने का कोई कारण नहीं थी, जिन्हें स्वयं या उनके पूर्वजों को तुर्की से भागना और किसी दूसरे देश में शरण लेनी पड़ी। उन्हें तो इन समारोहों ने आहत और पीड़ित ही किया है। वे अतातुर्क के शासनकाल में या उसके बाद अपनी ज़मीन पर से अपने निष्कासन और सामूहिक हत्याओं के अब तक के इतिहास से आज तक मानसिक समझौता नहीं कर पा रहे हैं। उदाहरण के लिए अकेले जर्मनी की राजधानी बर्लिन में कुर्दों के संगठन येकमल के अनुसार वहां 1 लाख 10 हज़ार से अधिक कुर्द रहते हैं। यूरोप के किसी एक ही शहर में कुर्दों का यह सबसे बड़ा जमघट है। उनमें से 80 प्रतिशत तुर्की से आए हैं।
येकमल का कहना है कि तुर्की में कुर्दों को अपनी राष्ट्रीय पहचान, सांस्कृतिक अस्मिता और कुर्द भाषा पर प्रतिबंध का सामना करना पड़ता है, हालांकि तुर्कों की तरह वे भी अधिकतर सुन्नी मुसलमान ही हैं। कुर्द स्कूल बंद कर दिए गए और बच्चों के कुर्द नाम रखने पर प्रतिबंध लगा दिया गया। हजारों युवा कुर्द मारे गए। कुर्द राजनेताओं को जेल में डाल दिया गया और कुर्द समुदाय पर खूब अत्याचार किया गया। कुर्दों से जुड़ी पत्रकारिता को दंडित किया जाता है। यदि संगीतकार कुर्दी भाषा में गाते हैं, तो उन पर हमला किया जाता है और उन्हें मार दिया जाता है।
आर्मेनियाइयों का जातिसंहार : तुर्की की कोई भी सरकार या विदेशों में रहने वाले प्रवासी तुर्क भी स्वीकार नहीं करते कि 1915-16 में वहां 15 लाख आर्मेनियाइयों को मौत के घाट उतारकर उनका जातिसंहार हुआ था। अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे एक ऐतिहासिक तथ्य मानता है। बर्लिन में रहने वाले आर्मेनियाइयों को शिकायत है कि वे जब भी कोई प्रदर्शन आदि करते हैं, तो तुर्की फासीवादियों द्वारा हम पर हमला किया जाता है।
बर्लिन में अलेवी समुदाय भी तुर्की गणराज्य की 100वीं वर्षगांठ को मिश्रित भावनाओं के साथ देख रहा था। अलेविज्म, अनातोलिया कहलाने वाले तुर्की के एशियाई हिस्से में और मेसोपोटामिया (इराक़) के सबसे पुराने धर्मों में से एक है, जिसके दुनियाभर में अनुमानित 5 करोड़ अनुयायी हैं। बर्लिन में अलेवी समुदाय के महासचिव नाज़िम करातेस का कहना है, गणतंत्र की घोषणा के बाद अलेवियों को हाशिए पर रहने वाले समूह के रूप में जाना जाता रहा, क्योंकि गणतांत्रिक तुर्की की नागरिकता अवधारणा सुन्नी-उन्मुख थी।
अलेवियों का पूरा बुनियादी ढांचा और वे स्थान जहां उन्होंने बैठकें आयोजित की थीं, नष्ट कर दिए गए। राज्यसत्ता ने अलेवियों को बहुमत द्वारा आत्मसात कर लिए जाने को मजबूर किया। एलेवियों को छिपना पड़ा। तब उनके अस्तित्व को हर तरफ से नकार दिया गया। मुस्तफा केमाल अतातुर्क के अधीन, अलेवी आस्था को नष्ट कर देने का पूरा प्रयास किया गया।
तुर्की में रहे यूनानी : 1923 में तुर्क गणराज्य की स्थापना के दौरान, तुर्की में कई सुधार और राजनीतिक परिवर्तन लागू किए गए। इन परिवर्तन में से एक ने ऐसे गैर-तुर्क अल्पसंख्यकों को भी प्रभावित किया, जिनमें तुर्की में रहने वाले यूनानी अल्पसंख्यक भी थे। उन्हें अक्सर पोंटियन यूनानी कहा जाता है। पोंटियन यूनानी मुख्य रूप से तुर्की के उत्तरपूर्वी क्षेत्र में रहते थे, जिसे पोंटिक क्षेत्र के नाम से जाना जाता था। गणराज्य की स्थापना के बाद अतातुर्क की सरकार ने इन अल्पसंख्यकों के भी आत्मसात और उनके समरूपीकरण की नीति अपनाई। इसके कारण तुर्की से कई पोंटिक यूनानियों का भी निष्कासन और पलायन हुआ।
एक ऐसे ही पोंटिक यूनानी, जियोर्गोस कहते हैं, एक प्रवासी के रूप में आप जर्मनी के बहुसंख्यक समाज से जिस रोज़मर्रा के नस्लवाद का अनुभव पाते हैं, उसके अलावा जर्मनी में तुर्की फासीवाद के कारण होने वाला भेदभाव भी मेरे और अनातोलिया में रहे अल्पसंख्यकों के लिए एक वास्तविकता है।तुर्की के गणराज्य बनने के 100 वर्षों को देखें तो इतिहास बार-बार यही कहता लगता है कि हर परिवर्तन की किसी न किसी रूप में क़ीमत चुकानी पड़ती है। कोई भी परिवर्तन चिरस्थायी नहीं होता, आरंभ में भले ही ऐसा ही प्रतीत हो।
Edited By : Chetan Gour