अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के साथ भारत के साथ रिश्तो के वर्तमान एवं भविष्य को लेकर जिस तरह की बहस चल रही है वह बिल्कुल स्वभाविक है। डोनाल्ड ट्रंप के शासनकाल में भारत अमेरिका के रिश्ते इतने गहरे हुए कि एशिया प्रशांत क्षेत्र का नाम हिंद प्रशांत क्षेत्र हो गया।
ट्रंप प्रशासन ने भारत को ऐसे सहयोगी का दर्जा दिया जो केवल नाटो देशों को ही प्राप्त था। कुछ ऐसे समझौते हुए जो अमेरिका अपने निकटतम देशों के साथ ही करता है। चीन के साथ हमारे तनाव के दौर में भी ट्रंप प्रशासन ने खुलकर भारत का पक्ष लिया। दक्षिण चीन सागर में भी चीन के खिलाफ जितना कड़ा तेवर ट्रंप ने अपनाया वैसा पूर्व के अमेरिकी राष्ट्रपतियों में नहीं देखा गया। एकाध अवसर को छोड़ दें तो ट्रंप भारत के आंतरिक मामलों पर कोई बयान देने से बचते थे। या ऐसा बयान नहीं देते थे जिससे हमारे लिए कोई परेशानी खड़ी हो जाए।
जो बिडेन और उनके उपराष्ट्रपति कमला हैरिस की मानवाधिकार, जम्मू कश्मीर, नागरिकता संशोधन कानून आदि मामलों पर अब तक प्रकट की गई भारत विरोधी भावनाएं हमारे सामने हैं। जो बिडेन कई मामलों पर ऐसे बयान दे चुके हैं जो भारत के लिए नागवार गुजरने वाला था। प्रश्न है कि उनके कार्यकाल में आगे संबंधों का भविष्य क्या होगा?
चुनाव जीतने के बाद बिडेन ने अपनी विदेश नीति को लेकर कई मामलों पर ऐसे बयान दिए जिनसे भारत में चिंता पैदा हुई। उन्होंने चीन के साथ कुछ नरमी का संकेत दिया था। साथ ही एशिया प्रशांत क्षेत्र नीति में भी बदलाव की बात की। लेकिन पिछले कुछ दिनों में उनके जो भी बयान आए हैं, उनकी ओर से जो संकेत दिए गए वे पूर्व के तेवर से थोड़े अलग हैं। प्रधानमंत्री प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी बातचीत के भी जो अंश सामने आए वे हमारे लिए काफी अनुकूल थे। तो इन सबको आधार बनाकर हम बिडेन काल में भारत अमेरिकी संबंधों का एक मोटा-मोटी सिंहावलोकन कर सकते हैं। बिडेन के भारत के प्रति व्यवहार की दो तस्वीरें हमारे सामने हैं।
एक, 1992 में सीनेटर के रूप में उनकी भूमिका थी जिसमें उन्होंने रूस से क्रायोजेनिक इंजन खरीदने कि रास्ते में बाधा खड़ी की थी। इससे हमारा अंतरिक्ष कार्यक्रम पिछड़ गया था। दूसरे सीनेटर और उपराष्ट्रपति के रूप में उनका व्यवहार भारत के पक्षकार का भी रहा। 2006 में उन्होंने कहा था कि 2020 के मेरे सपने की दुनिया में अमेरिका और भारत सबसे नजदीकी देश है। 2008 में जब भारत अमेरिका नाभिकीय समझौते पर सीनेटर के रूप में बराक ओबामा को थोड़ी हिचक थी तब बिडेन ने केवल उनको ही नहीं समझाया, अनेक रिपब्लिकन और डेमोक्रेट के बीच इस संधि का पक्ष रखकर इससे सहमत कराया। उपराष्ट्रपति के काल में सामरिक क्षेत्र में भारत के साथ रिश्तो को मजबूत करने की उन्होंने वकालत की। ओबामा के कार्यकाल में भारत को बड़ा रक्षा साझेदार घोषित किया गया, रक्षा लॉजिस्टिक आदान-प्रदान और एक दूसरे के ठिकानों को उपयोग करने के समझौते हुए। राष्ट्रपति बनने के बाद बिडेन इन सबसे पीछे हटने की कोशिश करेंगे ऐसा मानने का कोई तार्किक कारण नजर नहीं आता।
एक सामान्य तर्क यह है कि शासन बदला है तो सब कुछ पहले की तरह नहीं होगा। दूसरी ओर बिल क्लिंटन से लेकर जॉर्ज बुश, बराक ओबामा तक सबने भारत के साथ बहुआयामी संबंधों को मजबूत करने की कोशिश की। जहां तक चीन का सवाल है तो बिडेन ने पिछले दिनों न्यूयॉर्क टाइम्स को एक साक्षात्कार में साफ किया कि चीन के साथ जो प्रारंभिक व्यापार सौदे हुए हैं उनको वे फिलहाल नहीं रद्द करने वाले। उन्होंने कहा कि वे अमेरिका के भू राजनीतिक प्रतिद्वंदी के साथ भविष्य की बातचीत में अपने लाभ को अधिकतम रखना चाहते हैं। उनका कहना था कि मैं कोई तात्कालिक कदम नहीं उठाने जा रहा हूं।
चीन का रवैया और उसका शक्ति विस्तार भारत के लिए हमेशा चिंता का कारण रहा है। कोरोना के काल में धोखेबाजी से लद्दाख में उसका सैन्य रवैया कितने बड़े तनाव और परेशानी का कारण है यह बताने की आवश्यकता नहीं। यह कल्पना कम लोगों को रही होगी कि वह हमारे जमीन को कब्जाने की घटिया सैन्य कार्रवाई कर सकता है। वह विफल हुआ, पर भारत उसके प्रति आश्वस्त नहीं हो सकता। इसमें अमेरिका जैसे देश का साथ और सहयोग पहले की तरह रहे यह चाहत हमारी होगी। वैसे इस बीच भारत अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ क्वाड संगठन में सक्रिय हुआ है। क्वाड इस समय तक अमेरिका की मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत रणनीति के मूल में है। चारों देशों की नौसेनायें रक्षा अभ्यास में शामिल होती हैं।
चीन के प्रति बिडेन की नीति को देखना होगा। अगर वह इस समय किसी तरह चीन के साथ तनाव कम करके सहयोग बढ़ाने की ओर अग्रसर होते हैं तो हमारे लिए अपनी सामरिक नीति पर पुनर्विचार की आवश्यकता पैदा हो जाएगी। अमेरिका की सीमा चीन के साथ नहीं लगती। इसलिए उसे कोई समस्या नहीं है। हमारी और कई देशों की स्थिति अलग है। यह सच है कि रिचर्ड निक्सन से लेकर बराक ओबामा तक सारे राष्ट्रपति चीन के इतने शक्तिशाली होने में सहयोग करने की भूमिका निभाते रहे। दक्षिण चीन सागर में भी चीन ने अपने कृत्रिम द्वीप का निर्माण कर उसका सैन्यकरण कर लिया, लेकिन अमेरिका ने उसके खिलाफ सख्ती नहीं बरती। बराक ओबामा ने तो यहां तक कहा कि हमें समृद्धि चीन के बजाय दुर्बल और आक्रामक चीन से अधिक खतरा होगा। डोनाल्ड ट्रंप के कार्यकाल में ही अमेरिका की चीन नीति पलटी गई। यह भारत के अनुकूल था। चीन जिस तरह पाकिस्तान का साथ देता है उसमें अमेरिका का रुख पहले की तरह सख्त नहीं रहा तो क्या होगा? भारत के लिए चीन और पाकिस्तान दोनों चिंता के विषय हैं। चीन-पाकिस्तान गठजोड़ के प्रति अमेरिका की किसी तरह की नरमी भारत के खिलाफ जाएगी।
इससे भारत की सुरक्षा चुनौतियां बढ़ जाएगी। भारत के लिए एक और चिंता का कारण हिना प्रशांत क्षेत्र भी है। ट्रंप प्रशासन ने भारत के महत्व को रेखांकित करते हुए ही एशिया प्रशांत का नाम बदलकर हिंद प्रशांत क्षेत्र कर दिया। बिडेन मुक्त और स्वतंत्र हिंद प्रशांत की जगह सुरक्षित एवं समृद्ध हिंद प्रशांत की बात कही है। अगर मुक्त एवं स्वतंत्र हिंद प्रशांत नहीं रहेगा तो हमारी पूरी रणनीति में बदलाव करना पड़ेगा। भारत ने उस क्षेत्र के अनेक देशों के साथ रक्षा समझौते किए हैं, कुछ रक्षा जिम्मेदारियां ली हैं। उनके आलोक में हमें हमें अपनी सामरिक नीति और रणनीति को नए सिरे से गढ़ने की जरूरत पड़ सकती है। ये सब कुछ आशंकाएं हैं जिनको हम नजरअंदाज नहीं कर सकते।
सत्ता आने के पहले दिए गए वक्तव्य और सत्ता में आने के बाद की नीतियों में कई बार फर्क होता है। भारत के लिए अमेरिका का महत्व है तो अमेरिका को भी भारत की महत्ता का आभास है। उम्मीद कर सकते हैं कि बिडेन और कमला दोनों भारत के महत्व को समझेंगे। वे चीन जैसे देश द्वारा विश्व के लिए पैदा की जा रहीं चुनौतियों और समस्याओं को देखते हुए अपने हितों का सही विश्लेषण करेंगे। सत्ता में आने के पूर्व क्लिंटन और ओबामा दोनों का व्यवहार याद करिए। सत्ता मिलने के बाद उन्होंने भारत को जितना महत्व दिया वह भी हमारे सामने है। ओबामा अमेरिका-भारत संबंधांे को 21वीं सदी की सबसे निर्णायक साझेदारी घोषित किया था। संभावना यही है कि बिडेन भी ऐसे ही करेंगे।
वे उस व्यापार संधि को साकार कर सकते हैं जिसे ट्रंप करना चाहते थे लेकिन नहीं कर सके। क्लिंटन ने भारत यात्रा के बाद पाकिस्तान जाकर जिस तरह आतंकवाद पर उसे खरी-खोटी सुनाई थी उसे कोई भुला नहीं सकता। उसके पहले तो कल्पना तक नहीं थी कि कोई अमेरिकी राष्ट्रपति ऐसा करेगा। ठीक वैसी ही भूमिका ओबामा की विदेश मंत्री के रुप में हिलेरी क्लिंटन ने निभाई थी। इस तरह के कई वाकये हमारे सामने हैं जिनके आलोक में विचार करने पर हमारे लिए ज्यादा चिंता नहीं होनी चाहिए। वैसे भी भारत जैसे देश के साथ संबंध बिगाड़ने की सीमा तक बिडेन नहीं जा सकते। हमें बेहतरी की उम्मीद करते हुए सारी स्थितियों के लिए तैयार रहना चाहिए।
(इस आलेख में व्यक्त विचार लेखक की निजी अभिव्यक्ति है, वेबदुनिया से इसका संबंध नहीं है।)