स्त्री और पुरुष दोनों ही संपूर्ण मनुष्य हैं!
Man and woman are complete human beings: जीवन के प्रारंभ से ही स्त्री-पुरुष साथ साथ रहते आए हैं। मानव इतिहास के सारे संघर्षों में नर-नारी का साथ रहा है। इसके बाद भी आज तक नर-नारी के संबंधों में गैर बराबरी बढ़ती ही दिखाई देती है। आज का काल नारी सशक्तिकरण की दिशा में निरन्तर कदम बढ़ाते रहने वाला काल कहे जाने के बाद भी स्त्री की आजादी के स्वर कई स्तरों पर कई तरह से उठ रहे हैं। आज दुनिया भर में स्त्री-पुरुष की स्थिति एक समान नहीं है। समाजवादी चिंतक डॉ राममनोहर लोहिया ने नर-नारी समता के सवाल को उठाया था। आज के काल में दुनिया भर में स्त्री की भूमिका पहले की अपेक्षा लोकजीवन के हर क्षेत्र में प्रभावी हुई है। पर परिवार तक ही स्त्री की भूमिका या मर्यादा का काल आज शहरी समाज में कुछ हद तक कम होता दिखने के बाद भी अधिकांश स्त्रियों का जीवन घर-परिवार तक ही सीमित है।
जिस तेजी से भारतीय समाज का सोच और रहन-सहन बदल रहा है, उसी तेजी से स्त्री-पुरुष का सोच और रहन-सहन भी बदल रहा है। जब दुनिया भर में मनुष्य-मनुष्य के बीच सहज संवाद का काल था तब समाज तो छोड़िए, घर परिवार के सारे सदस्यों के साथ भी सीधी बात चीत तक की सुविधा स्वतंत्रता नहीं थी। भारत सहित कई देशों में आज भी यह परंपरा चल आ रही है कि स्त्री अपने जीवन साथी का नाम सबके सामने नहीं ले सकती। टेलीफोन के जमाने में भी स्त्री को बातचीत की संपूर्ण स्वतंत्रता नहीं हुई जो आज के मोबाइल और इंटरनेट के युग में उसे सहज ही मिल गई है। मोबाइल और इंटरनेट के आगमन ने स्त्री संवाद पर पुरुष सेंसरशिप को लगभग खत्म कर दिया है। आज के युग में एक यंत्र ने स्त्री को वह आजादी बिना किसी संघर्ष के वैश्विक स्तर पर दिला दी जिसे पाने के लिए आज भी जीवन के अन्य मामलों या क्षेत्रों में उसे नित नए सवाल उठाना पड़ रहे हैं या मोर्चे निकालना पड़ रहे हैं।
आज के समय में एक सवाल स्त्री पक्ष की ओर से यह भी उठा है कि हम क्या पहनें? कैसा पहनें? कैसे रहें? कैसे जीएं? इससे किसी को क्या? हमारी जिंदगी हमारी है, उसे कैसे जीएं? इसे कोई और क्यों? हम स्वयं तय करेंगी। असल में बुनियादी सवाल यह नहीं है कि कौन तय करेगा या कि कौन क्या करेगा या कौन कैसे रहे? बुनियादी सवाल मुझे लगता है यह है कि स्त्री-पुरुष एक दूसरे को किस तरह से देखते हैं? आज सबसे बड़ी ग़लती यह हो रही है कि स्त्री स्त्री को स्त्री के रूप में ही देखती है और पुरुष पुरुष को पुरुष रूप में ही देखता है। इस दृष्टि भेद के कारण ही मानव समाज एक समग्र मानव दृष्टि वाला समाज न होकर स्त्री -पुरुष दृष्टि में बंटा हुआ समाज बन गया।
स्त्री-पुरुष दोनों ही पूर्ण मनुष्य हैं पर दोनों ही अपने आप को समग्र मानव दृष्टि से एकाकार नहीं कर कर पाते। इसी का नतीजा है कि हमारी संपूर्ण ज़िन्दगी दो नजरिए या दो भूमिकाओं में बंट गई। हम सदियों से साथ रहते हुए भी सहमना साथी नहीं बन पाए। मानव इतिहास में कभी भी पुरुष सशक्तिकरण की बात नहीं उठी पर स्त्री सशक्तिकरण को प्रगति की दिशा में बढ़ा हुआ क़दम माना गया। मानव सभ्यता में समग्र मनुष्यत्व को सशक्त करने के बजाय केवल स्त्री के सशक्तिकरण की बात उठी। इसका सीधा अर्थ यह हुआ कि शायद हम मूल रूप से यह मानकर ही चल रहे हैं कि पुरुष अपने आप में सशक्त या संपूर्ण है और उसे स्त्री को सशक्त बनाने की विशेष भूमिका निभाना चाहिए।
स्त्री-पुरुष दोनों के ही मूलतः एकांगी दृष्टिकोण के कारण ही मानव समाज में बराबरी का या आपस में साथी भाव नहीं बन पाया। स्त्री-पुरुष सहजीवन का प्राकृतिक इतिहास होने के बाद भी दोनों की जीवन दृष्टि में भिन्नता ही इस मनुष्यकृत विसंगति का मूल है। इसे समझे या स्वीकार किए बिना ही आज तक हम अंतहीन बहस व मत-विमत में उलझे हुए हैं। स्त्री-पुरुष की सृष्टि अपने आप में अभिन्न रूप में में ही हुई है, फिर भी हम भिन्न दृष्टिभेद के साथ ही निरंतर जीते आए हैं। इसी का नतीजा है कि हम सब स्त्री-पुरुष के रहन-सहन व चिंतन के मामले में समभाव से सोच और जी ही नहीं पा रहे हैं। हर मनुष्य जैसा जीना चाहे वैसा वह रह सकता है, पर हम इस समग्र दृष्टि को अमान्य कर अपने एकांगी आग्रहों को एक दूसरे पर लादकर ही जीना चाहते हैं, यही विवादों की जड़ है।