महाभारत में युद्ध में लगभग 45 लाख लोगों ने भाग लिया था। हालांकि ऐसे भी हजारों योद्धा या लोग थे जिन्होंने युद्ध में तो भाग नहीं लिया था लेकिन उनकी इस युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका थी। हालांकि विदर्भ, शाल्व, चीन, लौहित्य, शोणित, नेपा, कोंकण, कर्नाटक, केरल, आंध्र, द्रविड़ आदि ने इस युद्ध में भाग नहीं लिया था। ये सभी तटस्थ राज्य थे। इनकी किसी भी प्रकार की कोई भूमिका नहीं थी। आओ जानते हैं उन्हीं के बारे में जिन्होंने युद्ध में भाग तो नहीं लिया लेकिन उनकी बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका थी।
युयुत्सु : कौरवों का सौतेला भाई जिसने युधिष्ठिर के समझाने पर युद्ध के एन वक्त पर कौरवों को छोड़कर पांडवों का साथ देने का निश्चिय किया।
अपने खेमे में आने के बाद युधिष्ठिर ने एक विशेष रणनीति के तहत युयुत्सु की योग्यता को देखते हुए उसे योद्धाओं के लिए हथियारों और रसद की आपूर्ति व्यवस्था का प्रबंध देखने के लिए नियुक्त किया। इसी तरह कौरवों की सेना भी भी थे। जब युधिष्ठिर सशरीर स्वर्ग जाने लगे तब उन्होंने परीक्षित को राजा और युयुत्सु को उनका संरक्षक बना दिया था।
उडुपी के राजा : महाभारत युद्ध में उडुपी के राजा भी थे जिन्होंने युद्ध में सैनिकों के लिए भोजन व्यवस्था की जिम्मेदारी संभाली। दोनों ओर के शिविरों में सैनिकों के भोजन और घायलों के इलाज की उत्तम व्यवस्था इन्हीं राजा ने की थी। हाथी, घोड़े और रथों की अलग व्यवस्था थी। हजारों शिविरों में से प्रत्येक शिविर में प्रचुर मात्रा में खाद्य सामग्री, अस्त्र-शस्त्र, यंत्र और कई वैद्य और शिल्पी वेतन देकर रखे गए थे।
श्रीकृष्ण की 1 अक्षौहिणी नारायणी सेना मिलाकर कौरवों के पास 11 अक्षौहिणी सेना थी तो पांडवों ने 7 अक्षौहिणी सेना एकत्रित कर ली थी। इस तरह सभी महारथियों की सेनाओं को मिलाकर कुल 45 लाख से ज्यादा लोगों ने इस युद्ध में भाग लिया था। आश्चर्य कि 18 दिन चलने वाले इस युद्ध में कभी भी खाना कम नहीं पड़ा और न ही बड़ी मात्रा में बचा।
सारथी : युद्ध में सभी हाथी और रथों के सारथियों में से बुहतों ने प्रत्यक्ष रूप से कभी युद्ध नहीं लड़ा। वे बस योद्धाओं के रथ या हाथी को चलाते रहे। उनमें से बहुत तो पहले ही मारे जाते थे जिनके स्थान पर दूसरे सारथी की नियुक्ति हो जाती थी। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन के रथ के सारथी थे। कर्ण के सारथी शल्य थे।
संजय : संजय ने भी युद्ध में भाग नहीं लिया था। महाभारत युद्ध में सूत पुत्र संजय ने महर्षि वेदव्यास से दीक्षा लेकर ब्राह्मणत्व ग्रहण किया था। वेद व्यास ने उनको दिव्य दृष्टि प्रदान की थी। कहते हैं कि गीता का उपदेश दो लोगों ने सुना, एक अर्जुन और दूसरा संजय। यहीं नहीं, देवताओं के लिए दुर्लभ विश्वरूप तथा चतुर्भुज रूप का दर्शन भी सिर्फ इन दो लोगों ने ही किया था। संजय को दिव्यदृष्टि प्राप्त थी, अत: वे युद्धक्षेत्र का समस्त दृश्य महल में बैठे ही देख सकते थे। नेत्रहीन धृतराष्ट्र ने महाभारत-युद्ध का प्रत्येक अंश उनकी वाणी से सुना।
बर्बरीक : भीम पौत्र और घटोत्कच के पुत्र दानवीर बर्बरीक के लिए तीन बाण ही काफी थे जिसके बल पर वे कौरवों और पांडवों की पूरी सेना को समाप्त कर सकते थे। इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने दान में उसका शीश मांग लिया था। उसकी इच्छा थी कि वह महाभारत का युद्ध देखे तो श्रीकृष्ण ने उसको वरदान देकर उसका शीश एक जगह रखवा दिया। जहां से उसने महाभारत का संपूर्ण युद्ध देखा। उन्हीं बर्बरीक को आज खाटू श्याम के नाम से जाना जाता है।
इंद्र : जब इंद्र को पता चला कि उनके पुत्र अर्जुन को कर्ण से बहुत बड़ा खतरा है तो वे श्रीकृष्ण के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने उनको सलाह दी की कर्ण बहुत ही बड़ा दानवीर है आप उसके दान देने के समय पर ब्राह्मण के वेश में पहुंचकर उससे दान लेने का संकल्प कराने के बाद उससे कवच और कुंडल मांग ले। इंद्र ने ऐसा ही किया। लेकिन कवच कुंडल ले जाने के बाद आकाशवाणी हुई कि तुमने धोके से कर्ण के कवच कुंडल ले लिए हैं इसके बदले तुम्हें भी कुछ देना होगा अन्यथा तुम्हारा यह रथ भूमि में ऐसा ही धंसा रहेगा और तुम भी धंस जाओगे। तब इंद्र ने वापस लौट कर कर्ण को अपना अमोघ अस्त्र देकर कहा कि इसे जिस पर भी चलाओगे वह निश्चित ही मारा जाएगा। यह अचूक है, लेकिन इसका उपयोग एक बार ही कर सकते हो। कर्ण उस अस्त्र से अर्जुन को मारना चाहता था लेकिन दुर्योधन और कृष्ण के कहने पर उसे मजबूरन यह अस्त्र घटोत्कच पर चलाना पड़ा।
वेदव्यास : पराशर मुनि और सत्यवती के पुत्र वेदव्यास ने ही महाभारत लिखी है। उनकी कृपा से ही सत्यवती और शांतनु के पुत्र विचित्रवीर्य की 2 पत्नियां अम्बिका और अम्बालिका को पुत्र की प्राप्ति हुई थीं। अम्बिका से धृतराष्ट्र, अम्मालिका से पांडु और बाद में अम्बिका वेदव्यास के समक्ष नहीं गई और उसने अपनी दासी को भेज दिया तो दासी से विदुर का जन्म हुआ। तीनों ही ऋषि वेदव्यास की संतान थी। इन्हीं 2 पुत्रों में से एक धृतराष्ट्र के यहां जब कोई पुत्र नहीं हुआ तो वेदव्यास की कृपा से ही 99 पुत्र और 1 पुत्री का जन्म हुआ।
वेदव्यास ऋषि ने ही कौरव और पांडवों को शिक्षा और दीक्षा दी थी। उन्होंने ही युद्ध के अंत में अश्वत्थामा द्वारा ब्रह्मास्त्र को छोड़े जाने के बाद उसे पुन: वापस लेने को कहा था। उन्होंने ही संजय को दिव्य दृष्टि दी थी ताकि वह महाभारत का युद्ध देख सके और उन्होंने ही पांडवों को स्वर्ग जाने का आदेश दिया था। युद्ध के 15 साल बाद एक रात के लिए उन्होंने ही सभी योद्धाओं को जीवित कर दिया था। इस तरह महर्षि वेदव्यास महाभारत में रह महत्वपूर्ण घटनाक्रम में उपस्थित होते हुए नजर आते हैं।