इस वक्त रशिया और यूक्रेन में जंग चल रही है। कई लोग मान रहे हैं कि यूक्रेन अपनी जगह सही है। लोग यूक्रेन के प्रति सहानुभूति व्यक्त कर रहे हैं और युक्रेन भी भावुकता भरे वीडियो एवं भाषणों से भरा पड़ा है। और, कई लोगों का मानना है कि रशिया ने जो किया वह सोच-समझ कर ही किया, क्योंकि जहां उसे भविष्य में अपने देश और अपने लोगों को सुरक्षित रखने की चिंता थी, वहीं वह यूक्रेन को इस स्थिति के लिए 2008 और फिर 2013 से चेताता आया है लेकिन यूक्रेन ने रशिया की हर चेतावनी को नजरअंदाज किया और उसने ऐसे लोगों को अपना मित्र बनाया जिन्होंने उसे युद्ध धकेल कर अकेला छोड़ दिया। महाभारत के संदर्भ में जानते हैं कि इस वक्त दोनों देशों के साथ ही चीन, भारत, नाटो, अमेरिका आदि देशों में कौन सही है और कौन गलत? किसकी क्या स्थिति है।
युधिष्ठिर कहते हैं- मैं इस वक्त जहां खड़ा हूं वहां मेरे पैरों के नीचे से एक रेखा गुजरती है जो कुरुक्षेत्र के मैदान को दो हिस्सों में बांटती है। यह कुरुक्षेत्र अब युद्धक्षेत्र धर्मक्षेत्र बन चुका है। रेखा के उस पार कौरव और इस पार पांडव सेना खड़ी है। कौरव सेना में जिन्हें लगता है कि धर्म पांडवों की ओर है वे युद्ध प्रारंभ होने के पूर्व पांडवों की ओर जा सकते हैं और जिन्हें लगता है कि धर्म कौरवों की ओर है तो मैं अपनी सेना के लोगों से कहना चाहता हूं कि वे कौरवों की ओर जा सकते हैं, क्योंकि युद्ध प्रारंभ होने के बाद ऐसे लोग दोनों ही पक्षों को क्षति पहुंचा सकते हैं जो अनिर्णय की स्थिति में हैं। और जो तटस्थ हैं वे पहले ही युद्ध के मैदान से बाहर हैं। इतिहास में उनकी प्रशंसा नहीं होगी, जो यहां युद्ध लड़ेंगे वहीं इतिहास बदलेंगे।
1. तटस्थ लोगों को इतिहास में कोई याद नहीं रखता : तटस्थ लोगों के शत्रु तो बहुत होते हैं परंतु मित्र ऐसे होते हैं जो एनवक्त पर उनका साथ नहीं देते हैं। महाभारत के युद्ध में तटस्थ लोगों में हमें सिर्फ बलरामजी का ही नाम याद इसलिए हैं क्योंकि वे श्रीकृष्ण के बड़े भाई थे। ऐसे कई राजा था जो तटस्थ थे आज हम उनके नाम नहीं जानते हैं।
2. बातचीत से समाधान नहीं होता : यदि बातचीत से समस्या का समाधान हो जाता तो श्रीराम और रावण का युद्ध नहीं होता। श्रीराम ने अंगद, हनुमानजी के बाद अंत में विभीषण को भी शांतिदूत बनाकर भेजा था। यदि बातचीत से समाधान हो जाता तो महाभारत का युद्ध भी नहीं होता। महाभारत का युद्ध जब तय हो गया तो श्रीकृष्ण अंतिम प्रयास के तहत 5 गांव मांगने गए थे लेकिन कुछ भी समाधान नहीं हुआ। फिर जब दोनों सेना युद्ध के मैदान में पहुंच गई तब अंत में वेदव्यासजी धृतराष्ट्र से इस युद्ध को रोक देने के लिए कहने गए थे, परंतु धृतराष्ट्र तो मन से भी अंधे थे।
3. युद्ध लड़ना चाहिए शत्रु की भूमि पर : महाभारत और चाणक्य नीति के अनुसार युद्ध कभी भी अपनी भूमि पर नहीं लड़ना चाहिए। युद्ध थोपा जा रहा हो तब भी हमें तुरंत ही निर्णय लेकर युद्ध को शत्रु की भूमि पर खींचकर ले जाना चाहिए। जो राजा अपने देश को युद्ध भूमि में बदल देता है वह सबसे कमजोर राजा होने के साथ ही अपने ही लोगों की मौत का जिम्मेदार माना जाता है।
4. दोस्त और दुश्मन की पहचान करना सीखें : महाभारत में ऐसे कई मित्र थे जिन्होंने अपनी ही सेना के साथ विश्वासघात किया। ऐसे भी कई लोग थे, जो ऐनवक्त पर पाला बदलकर कौरवों या पांडवों के साथ चले गए। शल्य और युयुत्सु इसके उदाहरण हैं। इसीलिए कहते हैं कि कई बार दोस्त के भेष में दुश्मन हमारे साथ आ जाते हैं और हमसे कई तरह के राज लेते रहते हैं। कुछ ऐसे भी दोस्त होते हैं, जो दोनों तरफ होते हैं। जैसे कौरवों का साथ दे रहे भीष्म, द्रोण और विदुर ने अंतत: युद्ध में पांडवों का ही साथ दिया।
5. हथियार से ज्यादा घातक बोल वचन : महाभारत का युद्ध नहीं होता यदि कुछ लोग अपने वचनों पर संयम रख लेते। जैसे द्रौपदी यदि दुर्योधन को 'अंधे का पुत्र भी अंधा' नहीं कहती तो महाभारत नहीं होती। शिशुपाल और शकुनी हमेशा चुभने वाली बातें ही करते थे लेकिन उनका हश्र क्या हुआ यह सभी जानते हैं। सबक यह कि कुछ भी बोलने से पहले हमें यह सोच लेना चाहिए कि इसका आपके जीवन, परिवार या राष्ट्र पर क्या असर होगा।
6. लड़ाई से डरने वाले मिट जाते हैं : जिंदगी एक उत्सव है, संघर्ष नहीं। लेकिन जीवन के कुछ मोर्चों पर व्यक्ति को लड़ने के लिए हमेशा तैयार रहना चाहिए। जो व्यक्ति लड़ना नहीं जानता, युद्ध उसी पर थोपा जाएगा या उसको सबसे पहले मारा जाएगा। महाभारत में पांडवों को यह बात श्रीकृष्ण ने अच्छे से सिखाई थी। पांडव अपने बंधु-बांधवों से लड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन श्रीकृष्ण ने समझाया कि जब किसी मसले का हल शांतिपूर्ण तरीके से नहीं होता, तो फिर युद्ध ही एकमात्र विकल्प बच जाता है। कायर और अयोग्य लोग युद्ध से पीछे हटते हैं। युद्ध भूमि पर पहुंचने के बाद भी अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता था, तब भगवान श्रीकृष्ण ने उससे कहा कि न कोई मरता है और न कोई मारता है। सभी निमित्त मात्र हैं। आत्मा अजर और अमर है... इसलिए मरने या मारने से क्या डरना?
7. खुद नहीं बदलोगे तो समाज तुम्हें बदल देगा : जीवन में हमेशा दानी, उदार और दयालु होने से काम नहीं चलता। महाभारत में जिस तरह से कर्ण की जिंदगी में उतार-चढ़ाव आए, उससे यही सीख मिलती है कि इस क्रूर दुनिया में अपना अस्तित्व बनाए रखना कितना मुश्किल होता है। इसलिए समय के हिसाब से बदलना जरूरी होता है, लेकिन वह बदलाव ही उचित है जिसमें सभी का हित हो। कर्ण ने खुद को बदलकर अपने जीवन के लक्ष्य को तो हासिल कर लिया, लेकिन वे फिर भी महान नहीं बन सकें, क्योंकि उन्होंने अपनी शिक्षा का उपयोग समाज से बदला लेने की भावना से किया। बदले की भावना से किया गया कोई भी कार्य आपके समाज का हित नहीं कर सकता।
8. अच्छे दोस्तों की कद्र करो : ईमानदार और बिना शर्त समर्थन देने वाले दोस्त ही आपका जीवन बदल सकते हैं। पांडवों के पास भगवान श्रीकृष्ण थे तो कौरवों के पास महान योद्धा कर्ण थे। इन दोनों ने ही दोनों पक्षों को बिना शर्त अपना पूरा साथ और सहयोग दिया था। यदि कर्ण को छल से नहीं मारा जाता तो कौरवों की जीत तय थी। पांडवों ने हमेशा श्रीकृष्ण की बातों को ध्यान से सुना और उस पर अमल भी किया लेकिन दुर्योधन ने कर्ण को सिर्फ एक योद्धा समझकर उसका पांडवों की सेना के खिलाफ इस्तेमाल किया। यदि दुर्योधन कर्ण की बात मानकर कर्ण को घटोत्कच को मारने के लिए दबाव नहीं डालता, तो इंद्र द्वारा दिया गया जो अमोघ अस्त्र कर्ण के पास था उससे अर्जुन मारा जाता।
9. छिपे हुए को जानने का ज्ञान जरूरी : यह जगत या व्यक्ति जैसा है, वैसा कभी दिखाई नहीं देता अर्थात लोग जैसे दिखते हैं, वैसे होते नहीं चाहे वह कोई भी हो। महाभारत का हर पात्र ऐसा ही है, रहस्यमयी। छिपे हुए को जानना ही व्यक्ति का लक्ष्य होना चाहिए, क्योंकि ज्ञान ही व्यक्ति को बचाता है। महाभारत में ऐसे कई योद्धा थे जो छिपे हुए सत्य को जानते थे, तभी तो वे आसानी से युद्ध कर सके। जैसे श्रीकृष्ण को यह बता था कि किस तरह भीष्म पितामह की मृत्यु होगी और किस तरह जयद्रथ को मारा जा सकता है। वे जरासंध के सत्य को भी जानते थे। किसी भी देश या सेना को शत्रु के सत्य का पता होना चाहिए।
10. गोपनीयता और संयम जरूरी : जीवन हो या युद्ध, सभी जगह गोपनीयता का महत्व है। यदि आप भावना में बहकर किसी को अपने जीवन के राज बताते हैं या किसी देश, व्यक्ति या समाज विशेष पर क्रोध या कटाक्ष करते हैं, तो आप कमजोर माने जाएंगे। महाभारत में ऐसे कई मौके आए जबकि नायकों ने अपने राज ऐसे व्यक्ति के समक्ष खोल दिए, जो राज जानने ही आया था। जिसके चलते ऐसे लोगों को मुंह की खानी पड़ी। दुर्योधन, भीष्म, बर्बरिक ऐसे उदाहण है जिन्होंने अपनी कमजोरी और शक्ति का राज खोल दिया था।
11. राजा या योद्धा को नहीं करना चाहिए परिणाम की चिंता : कहते हैं कि जो योद्ध या राज युद्ध के परिणाम की चिंता करता है वह अपने जीवन और राज्य को खतरे में डाल देता है। परिणाम की चिंता करने वाला कभी भी साहसपूर्वक न तो निर्णय ले पाता है और न ही युद्ध कर पाता है। जीवन के किसी पर मोड़ पर हमारे निर्णय ही हमारा भविष्य तय करते हैं। एक बार निर्णय ले लेने के बाद फिर बदलने का अर्थ यह है कि आपने अच्छे से सोचकर निर्णय नहीं लिया या आपमें निर्णय लेने की क्षमता नहीं है।
12. भावुकता कमजोरी है : धृतराष्ट्र अपने पुत्रों को लेकर जरूरत से ज्यादा ही भावुक और आसक्त थे। यही कारण रहा कि उनका एक भी पुत्र उनके वश में नहीं रहा। वे पुत्रमोह में भी अंधे थे। इसी तरह महाभारत में हमें ऐसे कुछ पात्र मिलते हैं जो अपनी भावुकता के कारण मूर्ख ही सिद्ध होते हैं। जरूरत से ज्यादा भावुकता कई बार इंसान को कमजोर बना देती है और वो सही-गलत का फर्क नहीं पहचान पाता। कुछ ऐसा ही हुआ महाभारत में धृतराष्ट्र के साथ, जो अपने पुत्रमोह में आकर सही-गलत का फर्क भूल गए।