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Last Modified: बुधवार, 11 जुलाई 2018 (08:00 IST)

आरएसएस से विपक्षियों का खौफ कितना वाजिब?

आरएसएस से विपक्षियों का खौफ कितना वाजिब? | RSS
साल 2014 में बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से ही विपक्षी दलों समेत कई आलोचक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की भूमिका पर सवाल उठाते रहे हैं। कहा जाता रहा है कि आरएसएस का प्रभाव सत्ता और सत्ता के बाहर दोनों जगह बढ़ा है।
 
 
आरएसएस एक हिंदुत्ववादी संगठन है। लेकिन इसे आमतौर पर प्रधानमंत्री मोदी के राजनीतिक दल भारतीय जनता पार्टी का वैचारिक प्रेरणा स्रोत भी माना जाता है। खुद को सांस्कृतिक संगठन कहने वाला आरएसएस हिंदुत्व की वकालत करता है। साल 1925 में स्थापित इस संगठन के आज तकरीबन 60 लाख सक्रिय सदस्य हैं। मोदी समेत बीजेपी के तमाम बड़े नेता इस संगठन के सक्रिय सदस्य रहे हैं। साल 2014 के आम चुनावों में भारतीय जनता की जीत में इस संगठन की अहम भूमिका मानी जाती है।
 
 
पिछले कुछ सालों में आरएसएस काफी बढ़ा है। संगठन उच्च सरकारी पदों पर अपने लोगों को बिठाने में सफल रहा है। शिक्षाविद राहुल गुप्ता कहते हैं, "आरएसएस के पास हमेशा एक लंबी कार्य योजना होती है। आज वह इस स्थिति में है कि सरकार में और सरकार के बाहर उच्च पदों पर बैठे नीति-निर्माताओं और लोगों को प्रभावित कर सकती है।" गुप्ता ने बताया कि पिछले चार महीने में ही इस संगठन के साथ करीब 1।25 लाख शहरी लोग जुड़े हैं। इसमें से कइयों ने ऑनलाइन आरएसएस की सदस्यता ली है।
 
 
विपक्ष की चिंता
एक संगठन का रूप अख्तियार करने के बाद से ही आरएसएस एक धार्मिक समुदाय को राजनीतिक गलियारों तक पहुंचाने के लिए काम करने लगा। विशेषज्ञ मानते हैं कि आरएसएस का मकसद हिंदू बहुल देश में हिंदू प्रभाव को बढ़ाना रहा है। साथ ही इनके एजेंडे को अल्पसंख्यक विरोधी माना जाता है। हालांकि आरएसएस विचारक राकेश सिन्हा ऐसी सभी अफवाहों से इनकार करते हैं कि आरएसएस अल्पसंख्यक समुदाय के भीतर डर पैदा कर रहा है। वह कहते हैं, "आरएसएस का विस्तार उसके विचारों पर आधारित है। हमने सही नीतियां बनाई हैं।" 
 
 
पेशे से वकील और आरएसएस के सदस्य राघव अवस्थी कहते हैं, "हमारा राष्ट्रवाद हमारी मातृभूमि की एकता और अखंडता के बारे में है। यह भारत की महान परंपराओं, संस्कृति और विरासत से लोगों को जोड़ने के बारे में है।" उन्होंने कहा कि आरएसएस का मकसद देश को सांस्कृतिक रूप से जोड़ना है।
 
 
लेकिन आलोचक आरएसएस के बढ़ते प्रभाव को लेकर चिंता जताते हैं। उन्हें डर है कि संस्था के बढ़ते प्रभाव के चलते हो सकता है कि आने वाले समय में आरएसएस देश की राजनीतिक दशा और दिशा तय करे, जो आलोचकों के मुताबिक देश को मुश्किल में ले जा सकता है। 
 
 
सोशल रिसर्चर आकाश मेहरोत्रा कहते हैं, "गाय, बीफ, हिंदू भगवान राम जैसे कुछ शब्द आरएसएस की ऐसी पठकथा के मुख्य तत्व हैं, जिसका मकसद धर्म को आधार बनाकर हिंदुवादी पहचान को मजबूत बनाना है।"
 
 
राजनीतिक समीक्षक हरतोष सिंह बल कहते हैं, "अगर भाजपा साल 2019 का चुनाव जीतती है तो आरएसएस अपने प्रभाव का इस्तेमाल हिंदुत्व को मजबूत करने के लिए करेगा। इसके चलते मुस्लिम समुदाय हाशिए पर चला जाएगा, इतिहास को फिर से लिखा से जाएगा और हम हिंदू धर्म के पौराणिक और गौरवशाली इतिहास जैसी कहानियों का उफान चढ़ते देखेंगे।"
 
 
"डर का माहौल"
कई राज्य सरकारें बीजेपी के सत्ता में आने के बाद से यह भी आरोप लगाती रही हैं कि आरएसएस अपने विचारों को शिक्षा समेत कई क्षेत्रों में थोप रहा है। इतना ही नहीं, इसका प्रभाव रिसर्च संस्थानों और अकादमिक क्षेत्र में हो रही नियुक्तियों पर भी नजर आ रहा है। ऐसी भी बातें सामने आती रही हैं कि बीजेपी शासित राज्यों में स्कूलों के पाठ्यक्रम बदले गए है, जिसके चलते हिंदुवादी विचारों के आधार पर भारतीय इतिहास का दोबारा भी लिखा गया। आरएसएस की ही एक शाखा भारतीय शिक्षण मंडल लंबे समय से सरकार से मौजूदा शिक्षा पद्धति में "भारतीयता" लाने को कह रही है।
 
 
इतिहासकार रोमिला थापर कहती हैं, "आरएसएस के लोग यह जानते हैं कि उन्हें भविष्य में जल्द सत्ता में आने का मौका नहीं मिलने वाला है। इसलिए उनकी कोशिश है कि वह जल्द से जल्द, ज्यादा से ज्यादा काम कर लें। इसलिए वह ज्यादा से ज्यादा लोगों को बदलने की कोशिश करेंगे।"
 
 
राजनीति में विपक्षी दल भी मोदी सरकार पर पारंपरिक संस्थानों पर हमले का आरोप लगाते रहे हैं। विपक्षी खेमा कहता रहा है कि आरएसएस न्यायपालिका समेत तमाम संस्थानों में अपने करीबियों को बिठा रही है। कांग्रेस नेता कपिल सिब्बल ने कहा, "शिक्षण संस्थानों में आरएसएस कार्यकर्ताओं को भरा गया है। अब वह यह काम न्यायपालिका के साथ भी कर रहे हैं और आरएसएस के विचारों के साथ हामी भरने वालों को न्यायपालिका में ला रहे हैं। अगर ऐसा होता है तो यह देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमजोर करेगा।"
 
 
आलोचकों का मानना है कि आरएसएस का दखल कैबिनेट मंत्रियों के फेरबदल पर भी साफ नजर आता है। वे मानते हैं कि कई बार कैबिनेट में ऐसे नए चेहरों को जगह दी गई हैं जिनका आरएसएस के साथ मजबूत संबंध रहा है।
 
 
कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (सीपीआईएम) के नेता सीताराम येचुरी कहते हैं, "जिन वादों के दम पर साल 2014 में बीजेपी सत्ता में आई, नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बनें, आज उन्हें पूरा करने की बजाय मोदी सरकार आरएसएस के एजेंडे को आगे बढ़ाने और फैलाने पर तुली हुई है।"
 
 
लेकिन बीजेपी इसे बेवजह और बेबुनियाद का डर बताती है। बीजेपी के नेता संजय टंडन कहते हैं, "विपक्षी दल डर से ग्रसित हैं। वे जानते हैं कि उनके दलों के लिए 21 राज्यों में शासन चला रही बीजेपी का मुकाबला करना आसान नहीं है।"
 
 
रिपोर्ट मुरली कृष्णन
 
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