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Last Modified: सोमवार, 8 अप्रैल 2019 (17:48 IST)

परिवार और वंशवाद की राजनीति

परिवार और वंशवाद की राजनीति | Dynasty in politics
वंशवाद भारत की राजनीति में किस हद तक घुस चुका है, इसका नमूना अब करीबन हर राज्य और ज्यादातर पार्टियों में दिखाई पड़ रहा है। लोकतंत्र के समानांतर राजशाही की झलक भी मिलने लगी है।
 
आजादी के बाद वंशवाद को बढ़ाने का आरोप सबसे पहले नेहरू गांधी परिवार पर लगा क्योंकि इसके तीन सदस्य, जवाहर लाल नेहरू, बेटी इंदिरा गांधी और इंदिरा के बेटे राजीव गांधी, देश के प्रधानमंत्री रह चुके हैं। आज जब राजीव के बेटे राहुल गांधी, कांग्रेस की इस परंपरा को आगे बढ़ाने की कोशिश में जी जान से जुटे हैं वहीं बहन प्रियंका वाड्रा भाई का साथ देने मैदान में कूद पड़ी हैं।
 
पहले जहां आलोचना के बावजूद वंशवाद नेहरू गांधी परिवार का अचूक हथियार माना जाता था, आज वामपंथियों को छोड़ लगभग सभी दलों ने इसे बेझिझक अपना कर एक नई प्रथा सी कायम कर दी है।
 
नेहरू गांधी के बाद जम्मू और कश्मीर के दिवंगत मुख्यमंत्री शेख अब्दुल्लाह के परिवार का नाम भी वंशवाद को लेकर बहुत आगे आता है। यहां उनके बेटे फारुख अब्दुल्लाह और पोते ओमर दोनों राज्य के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। उसी तरह जैसे पीपुल्स डेमोक्रैटिक पार्टी के मुफ्ती मुहम्मद सईद और उनकी बेटी महबूबा मुफ्ती।
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव और उनके बेटे अखिलेश यादव भी इसी वंशवाद के उदाहरण हैं। मुलायम सिंह अपने आधे से ज्यादा रिश्तेदारों को राजनीति में ले आए वहीं उनके पुत्र अखिलेश ने भी अपनी पत्नी डिंपल यादव को फिर से कन्नौज लोकसभा क्षेत्र का प्रत्याशी घोषित कर दिया है।
 
वंशवाद को लेकर अगर यूपी में मुलायम और अखिलेश आगे रहे, तो जाहिर था की बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव पीछे नहीं रह सकते थे। इसका प्रमाण उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को मुख्यमंत्री बना कर दिया था, खास कर जब वह 1997 में जेल जाने की तैयारी में थे। साथ साथ, अपने बेटे तेजप्रताप और तेजस्वी को भी बिहार में मंत्री और उप मुख्यमंत्री की कुर्सी दे दी। कुछ कसर जो बाकी थी वह लालू ने बेटी मीसा को 2016  में राज्यसभा का सदस्य बना कर पूरी कर दी।
 
यादवों के बाद अगर वंशवाद का वृक्ष कहीं तेजी से बढ़ा है तो वह है कर्नाटक। यहां पूर्व प्रधानमंत्री और जनता दल सेकुलर के अध्यक्ष देवेगौड़ा परिवार का नाम आता है। पिछले सप्ताह जब देवगौड़ा ने अपने दो पोतों को राजनीति में उतारने की घोषणा की तो कर्नाटक में लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ क्योंकि यहां जनता दल सेकुलर को एक पारिवारिक पार्टी के नाम से ही जाना जाता है। इसी कारण जब देवेगौड़ा ने अपने पोते निखिल को मांड्या और प्रज्वल को हासन लोकसभा चुनाव क्षेत्रों का प्रत्याशी घोषित किया तो आम जनता ने कोई टिप्पणी नहीं की।
 
मांड्या जनता दल सेकुलर के कार्यकर्ता उमेश के अनुसार, "हैरानी तो तब होती जब देवेगौड़ा इन सीटों पर किसी और को खड़ा करते।" उमेश विधायक बनने के सपने देख रहे हैं। वह उदासीनता से कहते हैं कि पार्टी में वंशवाद काफी बरसों से चल रहा है। अब तो देवेगौड़ा परिवार की तीसरी पीढ़ी को भी आगे बढ़ाया जा रहा है।
एक तरफ देवेगौड़ा के छोटे बेटे कुमारस्वामी राज्य में मुख्यमंत्री पद संभाले हुए हैं वहीं कुमारस्वामी के बड़े भाई और प्रज्वल के पिता रेवन्ना लोक निर्माण विभाग के मंत्री हैं। कुमारस्वामी ने परिवारवाद की प्रथा को एक कदम और बढ़ाते हुये अपने तीसरे भाई के ससुर  डीसी तमन्ना को भी राज्य के परिवहन विभाग की बागडोर थमा दी है। इस परिवार की बहुएं भी आज महत्वपूर्ण पदों पर हैं।
 
डीएमके, एनसीपी, लोक दल, नेशनल कॉन्फ्रेंस, और तेलंगाना राष्ट्रीय समिति प्रमुख परिवारवाद के मामले में पीछे नहीं हैं। तमिलनाडु के दिवंगत मुख्यमंत्री करुणानिधि के बेटे स्टालिन के हाथ में डीएमके की कमान है। एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार अपनी पुत्री सुप्रिया सुले को लोकसभा सदस्य बनाने में नहीं चूके।
 
उसी प्रकार तेलंगाना में टीआरएस के प्रमुख और राज्य के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव ने अपने परिवार की देखभाल में कमी नहीं छोड़ी है। उदाहरण के तौर उनका बेटा रामा राव उन्हीं की सरकार में मंत्री है। इसके अलावा बेटी कविता निजामाबाद से पिछली बार लोक सभा चुनाव जीत चुकी हैं।
 
औरों पर वंशवाद की राजनीति को बढ़ावा देने के आरोप लगाने वाली बीजेपी भी इस दलदल में घुटनों तक घुस चुकी है। कर्नाटक में अगर पार्टी के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने अपने बेटे राघवेंद्र को सफलतापूर्व सांसद बनाने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा दिया था, वहीं मोदी सरकार में मंत्री रहीं मेनका गांधी ने अपने बेटे वरुण को राजनीति में लाने में देर नहीं की। मेनका कांग्रेस के दिवंगत नेता संजय गांधी की पत्नी और इंदिरा गांधी की बहू हैं।
 
यही कारण है कुछ विशेषयज्ञ वंशवाद की तुलना राजशाही से करते हैं। उनके अनुसार फर्क है तो इतना ही कि पहले राजे महाराजे अपने उत्तराधिकारी की घोषणा करते थे, भारत के लोकतंत्र में आज यह काम उनके लिए चाहे, अनचाहे ढंग से जनता या वोटर करते हैं। इसी तर्क को लेकर देवेगौड़ा और मुलायम सिंह जैसे नेता यह दोहराने से नहीं थकते कि उनके परिवार के लोग राजनीति में चुनाव जीत कर आए हैं, किसी की मेहरबानी या खैरात से नहीं।
 
जनता दल सेकुलर के कार्यकर्ता उमेश की मानें तो जब तक जनता जागरूक नहीं होती तब तक राजनीति में परिवारवाद और वंशवाद पनपनता रहेगा। हालांकि उमेश खुद वंशवाद में जकड़ी पार्टी का हिस्सा हैं।
 
रिपोर्ट त्यागराज
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