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Written By DW
Last Updated : सोमवार, 31 मई 2021 (08:00 IST)

क्या छोटे-छोटे जंगल शहरों की हवा को सांस लेने लायक बना सकते हैं?

small forests | क्या छोटे-छोटे जंगल शहरों की हवा को सांस लेने लायक बना सकते हैं?
रिपोर्ट: सलमा फ्रांसेन
 
भारत से शुरू होकर पूरे एशिया में लोकप्रियता हासिल कर चुके छोटे और घने इकोसिस्टम यूरोप के शहरी क्षेत्रों में जड़ें जमा रहे हैं। इससे जुड़े लोगों का कहना है कि ये जंगल जैवविविधता और वायु गुणवत्ता में सुधार करते हैं।
 
साल 2014 में पर्यावरण-उद्यमी शुभेंदु शर्मा ने भारतभर में लगाए गए अपने मिनी-वुडलैंड इकोसिस्टम से जुड़े फायदों के बारे में एक टेड (टेक्नोलॉजी, एंटरटेनमेंट, डिजाइन) टॉक दिया था। उन्होंने बताया कि कैसे ये छोटे जंगल 10 गुना तेजी से बढ़ते हैं, 30 गुना घने होते हैं और एक पारंपरिक जंगल की तुलना में 100 गुना अधिक जैवविविधता वाले होते हैं। उनके छोटे जंगल जापानी इकोलॉजिस्ट अकीरा मियावाकी की 'बंजर जमीन पर छोटे, घने शहरी जंगल बनाने की तकनीक' से प्रेरित थे। इसे उन्होंने अपने घर, स्कूल और यहां तक कि कारखानों के पास लगाया था। इनमें से कुछ इतने घने थे कि आप उसमें चल नहीं सकते थे और ये महज 6 कार लगाने के बराबर जगह घेरे हुए थे। शर्मा ने कहा कि अगर आपको कहीं भी बंजर भूमि दिखती है, तो याद रखें कि यह एक संभावित जंगल हो सकता है। उनकी कंपनी अफॉरेस्ट दुनिया के 10 देशों में 138 जंगल लगा चुकी है।
 
यूरोप में पनप रहे छोटे जंगल
 
पूरे यूरोप में छोटे-छोटे जंगल लग गए हैं। इससे जुड़े लोगों का कहना है कि ये जंगल शहरों में पक्षियों और कीड़ों जैसे जीवों को बढ़ावा देने और कार्बन को अवशोषित करके जलवायु से जुड़े लक्ष्यों तक पहुंचने में मदद करते हैं। बेल्जियम के जीवविज्ञानी निकोलस डी ब्रेबंडेरे कुछ ऐसी चीजों की तलाश में थे, जो इकोसिस्टम को फिर से तैयार करे और जिससे रोजगार पैदा हो। इसी दौरान उन्हें शर्मा के काम के बारे में पता चला। वे शर्मा से मिलने भारत आए। इसके बाद उन्होंने 2016 में अपना पहला शहरी जंगल लगाया। आज वे छोटे जंगल लगाने के काम को ही अपना व्यवसाय बना चुके हैं जिसे वे अब फ्रांस और बेल्जियम में बढ़ाना चाहते हैं।
 
इस दौरान ब्रेंबंडेरे को कई सारी चुनौतियों का सामना भी करना पड़ा। पहली चुनौतियों में से एक मियावाकी पद्धति को यूरोप और यहां की बहुत ही अलग मिट्टी की स्थिति, प्रजातियों और जलवायु के अनुकूल बनाना था। वे कहते हैं कि जो प्रजातियां यहां हमेशा से उगाई जाती रही हैं, उनके सफल होने और जलवायु परिवर्तन के अनुकूल होने की संभावना होती है इसलिए मैंने मिट्टी में सुधार के लिए उपयुक्त देशी पौधों की प्रजातियों और स्थानीय तौर पर मिलने वाले सामान की पहचान करने के लिए शोधकर्ताओं और नर्सरी से संपर्क किया। उन्होंने सेसाइल ओक, लाइम ट्री, जंगली सेब और नाशपाती जैसी प्रजातियां लगाईं।
 
जर्मनी में भी छोटे जंगल लगाने पर विचार किया गया। मार्च 2020 में यहां पहला छोटा जंगल लगाया गया। यह डायवर्सिटी फॉरेस्ट 700 स्क्वॉयर मीटर में फैला हुआ है। यहां ओक, लाइम जैसे 33 देशी प्रजातियों के पेड़ हैं।
 
पर्यावरण पर पड़ने वाला असर
 
डैन ब्लाइक्रोट लोगों को प्रकृति के साथ जोड़ने वाले डच संगठन 'आईवीएन' के साथ काम करते हैं। वे भी शर्मा की कहानी से काफी प्रभावित थे। उन्होंने 2015 में नीदरलैंड्स के जैंडम में पहला छोटा जंगल लगाया था। उसके बाद से वे अब तक 126 छोटे जंगल लगा चुके हैं। आईवीएन ने जैंडम में छोटे जंगल के बगल में एक 'कंट्रोल फॉरेस्ट' भी लगाया है, जो प्राकृतिक विकास पद्धति के मुताबिक है। इसमें पक्षियों को आकर्षित करने के लिए बाड़ा और बेरी के पौधे होते हैं। ये पक्षी इन बीजों को दूर-दूर तक फैला देते हैं। उन्हें उम्मीद है कि कुछ वर्षों के बाद यह उन्हें यह पता लगाने में मदद मिलेगी कि छोटे जंगलों का हवा और मिट्टी की गुणवत्ता, जैवविविधता और शहर में पड़ने वाली गर्मी के प्रभावों को रोकने पर क्या असर पड़ता है?
 
नीदरलैंड्स में वैगनिंगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ता जैंडम कंट्रोल फॉरेस्ट और देश के अन्य 10 छोटे जंगलों से जुड़ा डाटा एकत्र कर रहे हैं। ये सभी जंगल 200 से 250 वर्ग मीटर के आकार के हैं। वैगनिंगन विश्वविद्यालय में पर्यावरण शोधकर्ता फैब्रिस ओटबर्ग कहते हैं कि कुल मिलाकर नतीजे उम्मीद के मुताबिक हैं। हमने 934 अलग-अलग पौधों और जानवरों की प्रजातियों को रिकॉर्ड किया, शोध के दौरान 60 लाख लीटर बारिश का पानी जमा किया और इमारतों से घिरे शहरों की तुलना में जंगलों के भीतर कम तापमान दर्ज किया।
 
हालांकि अलग-अलग प्रोजेक्ट के दौरान अलग-अलग नतीजे मिले। उन्होंने पाया कि मानक आकार का एक छोटा जंगल साल में 127.5 किलो CO₂ सोखता है। उनका अनुमान है कि पेड़ लगाने के 50 साल बाद यह और ज्यादा हो जाएगा।
 
प्रजातियों के बीच प्रतिस्पर्धा
 
यूरोप के छोटे-छोटे जंगल अपेक्षाकृत युवा हैं। डच सस्टेनेबल लैंडस्केपर टिंका चाबोट जैसे आलोचकों का कहना है कि क्या वे लंबे समय में कामयाब होंगे? एक मुद्दा यह है कि जगह की कमी की वजह से संभावित रूप से प्रजातियों के बीच प्रतिस्पर्धा का माहौल बन सकता है और जैवविविधता में कमी हो सकती है।
 
ओटबर्ग कहते हैं कि हमने पाया कि 3 साल के बाद छोटी झाड़ियां और जड़ी-बूटियां गायब होने लगती हैं। हालांकि ऐसा हर इकोसिस्टम में होता है। जैसे-जैसे छोटे जंगल बढ़ते हैं, कभी-कभी कुछ पेड़ सूख जाते हैं। इससे निचली झाड़ियों के लिए रास्ता बनता है।
 
जापान में छोटे जंगल काफी ज्यादा लगाए जा चुके हैं। शोधकर्ताओं ने पाया कि यहां लंबे समय तक जंगल बने रहने के लिए जलवायु की स्थिति से ज्यादा महत्वपूर्ण कारक मिट्टी है। ओटबर्ग कहते हैं कि छोटे जंगल कोई जादुई समाधान नहीं हैं। इसे उन उपायों में से एक के तौर पर देखा जाना चाहिए, जो शहरों को हरा-भरा बना सकते हैं। साथ ही, लंबे समय तक ज्यादा से ज्यादा पौधों और जीवों को आकर्षित कर सकते हैं। घनी आबादी वाले शहरों में एक बड़े नए पार्क के लिए जगह ढूंढना मुश्किल हो सकता है, जबकि छोटे जंगल, हरी छत के जरिए प्रकृति से जुड़े रहना आसान है।
 
स्वास्थ्य के लिए पेड़-पौधे
 
शहर में रहने वाले लोगों के स्वास्थ्य पर प्रकृति के सकारात्मक प्रभाव को लेकर नई-नई खोज की जा रही है। पिछले साल वैज्ञानिकों ने पाया कि जर्मनी के शहर लाइपजिग में गलियों में लगे पेड़ों के 100 मीटर के दायरे में रहने वाले लोगों ने कम एंटीडिप्रेसेंट लिया।
 
ब्रिटिश पर्यावरण चैरिटी 'अर्थवॉच यूरोप' के मुख्य मुद्दों में से एक स्वास्थ्य है। चैरिटी ने मार्च 2020 में यूनाइटेड किंगडम में पहले छोटा जंगल लगाया था। अब तक यह चैरिटी 16 जंगल लगा चुकी है। इसने जंगल लगाने और उनकी देख-रेख के काम में स्थानीय लोगों को शामिल किया है। लोगों की प्रतिक्रिया जानने के लिए फीडबैक फॉर्म का इस्तेमाल किया जाता है। इन जंगलों के भीतर कुछ खाली जगहें भी छोड़ी जाती हैं ताकि स्कूल और दूसरे संगठन के लोग इसे अच्छे से देख सकें। इस चैरिटी से जुड़े एक शोधार्थी बेथानी पुडीफुट कहते हैं कि लोगों को छोटे-छोटे जंगलों में ले जाने पर वे प्रकृति के करीब आते हैं और उससे जुड़ते हैं।
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