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तत्कालीन इंदौर, दादोबा पांडुरंग की नजर से

तत्कालीन इंदौर, दादोबा पांडुरंग की नजर से - then Indore, through the eyes of Dadoba Pandurang
भारत में अंगरेजी स्थापित होने पर मुंबई में जो प्रथम 5 छात्र अंगरेजी सीखने लगे, उनमें से एक थे दादोबा पांडुरंग। जिनका जीवनकाल था सन् 1814 से सन् 1882 तक। उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी थी। वे मराठी भाषा के आद्य व्याख्याकार थे। वैसे यह आत्मकथा अधूरी ही है। किंतु मालवी पाठकों के लिए उसमें खास आकर्षण यह है कि दादोबा पांडुरंग अपनी शिक्षा पूरी करने के पश्चात कई वर्षों तक मालवा में रहे। सन् 1834-35 में महाराष्ट्र से मालवा आकर कुछ वर्ष तक यहां रहे। वैसे उनकी नियुक्ति हुई थी तत्कालीन जावरा के राज्य के नवाबजादे के शिक्षक के रूप में। उनके आगमन, उनकी यात्रा, निवास, मालवा प्रदेश में भ्रमण एवं उनका महाराष्ट्र में पुन: जाने का रोचक विवरण है, उनकी आत्मकथा में।
 
नवंबर 1836 में दादोबा पांडुरंग मुंबई से चलकर भिवंडी, नासिक, धुले मार्ग से होते हुए इंदौर आए थे। सारी यात्रा बैलगाड़ी से थी। रास्ते में होलकरों का गांव चांदवड़, फिर मालेगांव, धुले, सेंधवा, महेश्वर होते हुए महू और इंदौर पहुंचे। महू का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं- 'यह छावनी अंगरेजों की अन्य छावनियों के समान सुशोभित है। पारसी व्यापारियों की दो-चार विलायती सामान की दुकानें थीं। महू से उत्तर दिशा में तीन कोस अंतर तक घोड़ागाड़ी घुमाने हेतु अच्‍छी सड़क थी। उस सड़क से दूसरे दिन प्रथम प्रहर में इंदौर पहुंचा। यहां एक देवालय में हमने मुकाम किया। रहने की व्यवस्था ठीक थी और भरी बस्ती में भी होने से स्थानीय लोगों की चहल-पहल हम देख सकते थे। यहां एक बात का हमें अचंभा लगा कि जो भी कोई मराठा या रागड़ा (स्थानीय हिन्दी भाषी) व्यक्ति दिखता, वह हथियारबंद होता था। उन दिनों महाराजा हरिराव होलकर इंदौर के राजा थे। वे एवं उनकी माताजी का ही राज चलता था। यह 'माजी साहब' पूर्व राजा यशवंतराव होलकर की रखैल थी। हजम हमने देखा, तब यह वृद्ध महिला पालकी में पर्दे डालकर नगर में कभी आती-जाती थी। हरिराव होलकर को हमने नहीं देखा,‍ किंतु हर रोज सरकार बाड़े के सामने तीसरे पहर में और संध्या को हाथी, सवार, सिपाही आदि भी देखते थे। जिस मंदिर में हम रुके थे, उसके सामने ही बाबा पोतनीस रहते थे। वे हमसे मिलने आते थे।
 
महू छावनी में ही हमें खबर मिली कि बड़े साहब यानी यहां के (अंगरेज) रेजिडेंट मिस्टर जान बक्स कहीं बाहर दौरे पर गए थे और हमारे पहुंचने की खबर पाते ही उन्होंने मुझे जावरा में गौस महंमद खान को मिलने हेतु कहा था। हम इंदौर में सात-आठ दिन रहे।