किसी का दर्द मिल सके, तो ले उधार: मुकेश का गायन और राज कपूर की एक्टिंग मन को हल्का कर देती है | गीत गंगा
इस गीत को सुनना ऐसा है जैसे चांदनी रात में नए कालीन पर मेहंदी लगे पांव में हरा कांटा चुभ जाए
शैलेन्द्र ने इस गीत को जितनी कोमलता और सादगी से लिखा है, वह अद्भुत है
पलक पर ओस के कण को तौलता है यह गीत
यह ऐसा है, जैसे रेत के कणों के बीच अंधे को सूखने के लिए मोगरे के ताजे फूल मिल जाएं
इस गीत को पढ़ना या सुनना ऐसा है, जैसे चांदनी रात में नए कालीन पर मेहंदी लगे पांव में हरा कांटा चुभ जाए। आज जब रिश्ते मर चले हैं, दिल में प्रेम और वफा का टोटा हो गया है, मतलबपरस्ती अपने शबाब पर है और हर आदमी के लिए दूसरा आदमी मर चुका है।
...आज जब सब तरफ अंधेरा है, कदम-कदम पर तन्हाई है। बाजार में घूमते डर है कि सड़क पर कहीं गिर पड़े तो कोई अस्पताल पहुंचाएगा या नहीं? लाश के खीसे में नाम-पते का कार्ड मिल जाए... तो कोई अजनबी घर फोन करेगा या नहीं? ...ऐसे तरह-तरह के अंदेशों में और रोज़ डूबते जा रहे दिल के दौर में तब पुराने गीत सुनना बड़ा भला लगता है जिनमें इंसानियत की आवाज हो। रिश्तों को जिन्दा रखने पर जोर हो और अजनबीयत की दमघोंट तन्हाई को नकारकर अपनापे की खुली हवा के शीतल झोंके हों!
ऐसा ही मुकेश का एक मधुर गीत जब कानों में पड़ता है और उस परकातर राज कपूर की प्रेमभरी एक्टिंग याद आती है तो मन कुछ हल्का हो जाता है। ऐसा लगता है, जैसे दंगाग्रस्त बस्ती में शाम को मंदिर की घंटियां सुन लीं और मस्जिद की दीवार से पीठ टिकाकर सो लिए।
यह गीत फिल्म 'अनाड़ी' का है, जो सन् 1959 में आई थी। निर्देशक ऋषिकेश मुखर्जी थे। वे राज के स्वभाव और लोकमानस में उनकी छवि के स्वरूप से अच्छी तरह से वाकिफ थे इसीलिए उन्होंने राज पर सोहता हुआ एक माकूल गीत लिखवाया और उन्हीं पर फिल्मबंद किया। पर्दे पर राज कपूर इसे सड़क पर तफरीह करते हुए, नाचते-कूदते हुए और झूमते हुए गाते हैं। यह मॉडर्न सूफी का एक जोगीवाला फेरा ही है।
शैलेन्द्र ने इस गीत को जितनी कोमलता और सादगी से लिखा है, वह अद्भुत है। लफ्जों की अटूट लड़ियों के पीछे लयात्मक अंतर-संगीत है, जैसे झील पर कोई तितली थिरकती हुई ठंडक में बही जा रही है। इस गीत को पढ़ना और सुनना ऐसा है, जैसे चांदनी रात में, नए कालीन पर, मेहंदीभरे पांव में, हरा कांटा चुभ जाए। पलक पर ओस के कण को तौलता है यह गीत।
लीजिए गीत पढ़िए और उसमें बिखरी हुईं इंसानियत की पंखुड़ियों को चुनकर आंखों से लगाइए-
किसी की मुस्कराहटों पे हो निसार,
किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार,
किसी के वास्ते हो तेरे दिल में प्यार-
जीना इसी का नाम है।
माना अपन जेब से फकीर हैं,
फिर भी यारों दिल के हम अमीर हैं,
मिटे जो प्यार के लिए वो जिन्दगी,
जले बहार के लिए वो जिन्दगी,
किसी को हो न हो, हमें तो ऐतबार-
जीना इसी का नाम है।
रिश्ता दिल से दिल के ऐतबार का,
जिन्दा हमीं से नाम प्यार का,
कि मरके भी किसी को याद आएंगे,
किसी के आंसुओं पे मुस्कराएंगे,
कहेगा फूल हर कली से बार-बार,
जीना इसी का नाम है।
विश्वास ही नहीं होता कि कभी ऐसा जमाना था। लोग ऐसा सोचते थे। जीवन का सुख उन्हें दूसरों का दु:ख मिटाने में नजर आता था। पर हकीकत यही है। अभी वह कल ही की बात है। जमाना इतनी तेजी से चंद पिछले सालों में गिरा है। ऐसे में मुकेश का निर्मल, शांत एवं कोमल गायन/ शंकर-जयकिशन का नाजुक और ईथरियल संगीत/ गीत की मार्चिंग सॉन्ग वाली बेतकल्लुफ धुन/ मद्धिम आवाज के सॉफ्ट वाद्य/ और प्रेमल राजकपूर की भोलीभाली, बेलौस एक्टिंग....। चिढ़ी हुई इंद्रियों को मिल जाए तो नब्ज-नाड़ियों को आराम मिलता है और हवा के बिछौने पर अभागा जिस्म सो जाता है।
यह ऐसा है, जैसे रेत के कणों के बीच अंधे को सूखने के लिए मोगरे के ताजे फूल मिल जाएं। खुशी होती है कि बेरहम, बेझिझक, 'ब्रुटलाइजेशन' (पाशविकीकरण) के इस उजड्ड दौर में कुछ फूल की छड़ियां भी हैं, जो हमारे जमीर को जगाती हैं और आसपास फुलवारी देखना सिखाती हैं।
उजाड़ मैदानों में उम्मीद अभी बनी है
कि तंग गुफाओं में अभी रोशनी है।
ऐ अतीत, तुझे प्रणाम! ऐ माझी, तुझे सलाम!
(अजातशत्रु द्वारा लिखित पुस्तक 'गीत गंगा खण्ड 2' से साभार, प्रकाशक: लाभचन्द प्रकाशन)