गुरुवार, 14 नवंबर 2024
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अयोध्या पर 1990 के दशक की स्थिति पैदा करने के संकेत

अयोध्या पर 1990 के दशक की स्थिति पैदा करने के संकेत - Ayodhya Ram temple
अयोध्या के विवादास्पद स्थल पर राम मंदिर निर्माण का मुद्दा राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से आगे बढ़ते हुए अब साधु-संतों के अभियान तक पहुंच गया है। हमको-आपको ही नहीं, स्वयं भाजपा को भी कुछ महीने पूर्व तक उम्मीद नहीं थी कि राम मंदिर का मुद्दा इस तरह उफान मारता हुआ उनके सामने आकर बड़ी चुनौती के रूप में खड़ा हो जाएगा।
 
करीब 3 दशक बाद राजधानी दिल्ली में साधु-संतों का इतना बड़ा आयोजन हुआ है। तालकटोरा स्टेडियम से निकलती आवाजें 2 दिनों तक मीडिया की सुर्खियां बनी रहीं। 1990 के दशक में जब राम मंदिर निर्माण का आंदोलन चरम पर था, हमने ऐसे दृश्य जगह-जगह देखे थे। संत सम्मेलन के दूसरे और अंतिम दिन जो प्रस्ताव पारित हुआ उसका शीर्षक देखिए- संतों का यह धर्मादेश- कानून बनाओ या अध्यादेश।
 
वस्तुत: कार्यक्रम के बैनर पर ही लिखा था, धर्मादेश। इसका अर्थ हुआ कि साधु-संतों ने अपने प्रस्ताव को धर्मसत्ता के आदेश के रूप में सरकार के सामने रखा है। जरा ध्यान दीजिए, 5 अक्टूबर को विश्व हिन्दू परिषद एवं संतों की उच्चाधिकार समिति को बैठक हुई जिसमें सरकार से संसद में कानून बनाकर मंदिर निर्माण का रास्ता प्रशस्त करने की मांग की गई। उसके बाद विजयादशमी के वार्षिक संबोधन में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी यही कहा कि कुछ भी करिए, चाहे संसद में कानून बनाना हो तो बने लेकिन मंदिर अब बनना चाहिए और अब संत सम्मेलन।
 
इस तरह 1 महीने के अंदर ही लगभग वैसा ही माहौल निर्मित होता दिख रहा है, जैसा 1990 के दशक में था। संघ की 3 दिवसीय कार्यकारिणी की मुंबई बैठक में भी 2 नवंबर को सरकार्यवाह भैयाजी जोशी ने यह पूछने पर कि क्या वह पहले तरह मंदिर निर्माण के लिए आंदोलन करेगा, कहा कि आवश्यकता हुई तो अवश्य करेंगे। संघ मंदिर निर्माण आंदोलन में सीधे शामिल नहीं था लेकिन योजना से लेकर उसे साकार करने का पूरा सूत्र उसके हाथों ही था।
 
हालांकि मंदिर आंदोलन ने देश में आलोड़न का स्वरूप तभी लिया, जब भाजपा ने उसे अपनाया।
भाजपा इसे प्रस्ताव के रूप में स्वीकार करे, इसके पीछे भी संघ की ही भूमिका थी। यह संभव नहीं कि संतों का इतना बड़ा कार्यक्रम हो और संघ ने इससे अपने को दूर रखा हो। साधु-संतों के जमावड़े का महत्व वे नहीं समझ सकते जिनको इनकी शक्ति का ज्ञान नहीं है। संत सम्मेलन में हिन्दू धर्म के सभी पंथों, पीठों, अखाड़ों, प्रमुख मठों आदि की उपस्थिति रही। साधु-संतों के मानने वालों की अपार संख्या है इसलिए इनकी शक्ति को महत्वहीन मानने की भूल नहीं करनी चाहिए।
 
इन सबको फिर से साथ लाने के लिए नैपथ्य में कितना प्रयास हुआ होगा, दिल्ली में उनके रहने से लेकर भोजनादि तथा सभास्थल तक लाने-ले जाने तथा सभा से संबंधित सारी व्यवस्थाएं अपने आप तो नहीं हो गई होंगी। इतने व्यवस्थित कार्यक्रम का अर्थ ही है कि सरकार सहित राजनीतिक पार्टियों को दबाव में लाने तथा देश में फिर से मंदिर निर्माण के पक्ष में माहौल बनाने की तैयारी हो चुकी है।
 
यह कहना आसान है कि जब चुनाव सिर पर हैं तभी इनको मंदिर याद आया है। यह प्रश्न निस्संदेह उठेगा कि चाहे विहिप हो या संघ या साधु-संत, इन्होंने यही समय क्यों चुना? निस्संदेह, मंदिर समर्थक अगर कुछ पहले से दबाव के कार्यक्रम आरंभ करते तो यह प्रश्न नहीं उठता कि भाजपा को चुनाव में लाभ पहुंचाने के लिए मंदिर का मुद्दा उठा दिया गया है। हालांकि इसमें सबसे ज्यादा राजनीतिक जोखिम किसी का बढ़ा है तो वह भाजपा ही है। अगर नरेन्द्र मोदी सरकार अध्यादेश नहीं लाती है तो संदेश यह जाएगा कि ये मंदिर बनाना नहीं चाहते और इससे उसके मंदिर समर्थक मतदाता नाराज होकर दूर जा सकते हैं।
 
ऐसा नहीं है कि संघ, विहिप आदि को इसका आभास नहीं है। बावजूद इसके यदि वे खुलकर सरकार से अल्टीमेटम की भाषा में बात कर रहे हैं तो इसका अर्थ एक ही है, इनका धैर्य अब जवाब दे गया है। नरेन्द्र मोदी की प्रखर हिन्दुत्ववादी छवि के कारण आम उम्मीद थी कि यदि वे प्रधानमंत्री बने तो मंदिर का रास्ता निकाल देंगे। इस भाव से पूरे संघ परिवार एवं साधु-संतों के बड़े वर्ग ने भाजपा के पक्ष में काम किया। चूंकि साढ़े 4 वर्ष तक इस दिशा में एक भी प्रयास सरकार की ओर से नहीं हुआ, उच्चतम न्यायालय से भी जल्द फैसला आने की उम्मीद खत्म हो गई इसलिए इनका विकल होना स्वाभाविक है।
 
आवाज देर से भले उठी है किंतु ये अभी भी नहीं बोलते तो इनकी अपनी विश्वसनीयता और साख खत्म हो जाती। संघ के लोग कहते हैं कि सरकार आज है, कल नहीं भी रह सकती है, लेकिन हमें तो समाज के बीच काम करना है। हम लोगों को क्या जवाब देंगे? मोहन भागवत ने यही कहा कि लोग पूछते हैं कि जब अपनी सरकार है तब मंदिर क्यों नहीं बन रहा है इसलिए यह अभियान केवल चुनाव तक चलेगा और रुक जाएगा, ऐसा नहीं है।
 
सच यही है कि मंदिर आंदोलन फिर से आरंभ हो चुका है। पहले भी साधु साधु-संत ही अगुवाई कर रहे थे, पुन: वे आगे आ गए हैं। यह न मानिए कि संत सम्मेलन करके वे सरकार के कदमों की प्रतीक्षा करने वाले हैं। संत सम्मेलन ने भले आंदोलन का प्रस्ताव पारित नहीं किया लेकिन लंबे अभियानों की योजना सामने रख दिया है। तत्काल 4 विशाल धर्मसभाएं होंगी।
 
25 नवंबर को एकसाथ अयोध्या, नागपुर एवं बेंगलुरु में सभाएं करने के बाद 9 दिसंबर को एक बड़ी सभा दिल्ली में आयोजित होगी। 1990 के बाद मंदिर निर्माण के लिए बड़ी संख्या में पहली बार साधु-संत एकत्रित होंगे। देखना होगा उस दिन क्या घोषणाएं होती हैं एवं मोदी सरकार की ओर से कोई बयान आता है या नहीं। उस सभा के बाद देश में प्रचंड आलोड़न की स्थिति पैदा करने की कोशिश अवश्य होगी।
 
दिल्ली धर्मसभा के बाद देश के सभी जिलों में सभाएं की जाएंगी। इसका अर्थ एक ही है कि मंदिर निर्माण होने तक अभियान चलता रहेगा। सभाओं के समानांतर भी कार्यक्रम हैं। उदाहरण के लिए 18 दिसंबर को गीता जयंती से मंदिर का संकल्प लेते हुए 1 सप्ताह तक अपनी-अपनी उपासना पद्धति के अनुसार 2-3 घंटे का धार्मिक अनुष्ठान करने की अपील की कई है। दीपावली के दिन एक दीपक श्रीराम जन्मभूमि मंदिर के लिए जलाने का आह्वान किया गया था। ठीक इसी तरह का कार्यक्रम हमने मंदिर आंदोलन के दौरान 1988 से लेकर 1992 तक देखा था। इसी से पूरे देश का हिन्दू किसी न किसी रूप में आंदोलन से जुड़ गया था, भले उसमें उसकी प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं हो।
 
फैजाबाद जिले को अयोध्या कर देने, श्रीराम की 151 मीटर ऊंची प्रतिमा लगाने की घोषणा, राजा दशरथ के नाम पर मेडिकल कॉलेज, राम के नाम पर हवाई अड्डा, सरयू किनारे नई अयोध्या के निर्माण की योजना आदि से हिन्दुत्ववादी प्रसन्न अवश्य हैं। आखिर अयोध्या में 7डी रामलीला, रामकथा गैलरी, रामलीला पर लाइट एंड साउंड शो के अलावा म्यूजिकल फाउंटेन बनाए जाएंगे तो अयोध्या का महत्व विश्व पटल पर बढ़ेगा।
 
किंतु इससे मंदिर निर्माण की मांग करने वाले संतुष्ट होकर नहीं बैठने वाले। विधानसभा चुनाव खत्म होने के 2 दिनों बाद दिल्ली में 9 दिसंबर की विशाल धर्मसभा का आयोजन बिलकुल उस समय के महत्व के दृष्टिगत ही तय हुआ है। लोकसभा चुनाव के पूर्व भाजपा अपने मतदाताओं के बड़े वर्ग की उपेक्षा करने का जोखिम नहीं उठा सकती। उसे निर्णय करना ही होगा।
 
चुप्पी साधे या अस्पष्ट रुख रखने वाले दलों को भी स्पष्ट करना पड़ेगा कि वे मंदिर के पक्ष में हैं या विरोध में? सरकार के लिए थोड़ी राहत की बात है तो यही कि प्रस्ताव का पूरा अंश विरोधी नहीं है। उसमें कहा गया है कि श्रीराम जन्मभूमि मंदिर निर्माण का मार्ग प्रशस्त न होने के कारण हम आहत हैं, पर भारत सरकार के देश, धर्म, संस्कृति और राष्ट्रीय सुरक्षा व राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े अनेक कार्यों से संतुष्ट भी हैं। हमारी जो भी अपेक्षाएं हैं, वो इसी सरकार से हैं और हमारा विश्वास है कि हमारी समस्याओं का समाधान भी यही सरकार करेगी तथा अपेक्षाओं पर खरी उतरेगी।
 
हां, इस बात की गारंटी नहीं हो सकती कि अगर सरकार अनिर्णय की अवस्था में रही तो भी इनका स्वर यही रहेगा। वैसे भी संत सम्मेलन के अंदर प्रस्ताव के अंश से असहमति के स्वर भी उभरे।
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