रश्मि रॉकेट फिल्म समीक्षा : जेंडर टेस्ट के खिलाफ रश्मि के रॉकेट की उड़ान
कुछ बातें बाबा आदम के जमाने से चली आ रही हैं जिसे आज की सोच के हिसाब से बदला जाना जरूरी है। खेलों में एक ऐसी ही बदनाम प्रथा है 'जेंडर टेस्ट'। इसका महिलाएं शिकार होती हैं। जिसका जेंडर टेस्ट होता है उसके बारे में इतनी घटिया बातें होती हैं जो महिला के लिए असम्मानजनक होती है और कुछ खिलाड़ियों ने इस कारण अपनी जान भी दे दी। कई देशों ने इस घटिया टेस्ट को बंद कर दिया है, लेकिन एथलेटिक्स में अभी भी यह जारी है। भारत में भी इस पर रोक नहीं है, हालांकि खिलाफ में आवाज लगातार उठ रही हैं। जिस तरह से यह टेस्ट किया जाता है और जिस तरह के चश्मे से समाज में इसे देखा जाता है वो किसी भी दृष्टि से सही नहीं है।
रश्मि रॉकेट में जेंडर टेस्ट की बात को उठाया गया है। यह फिल्म बताती है कि यह क्या है? क्यों होता है? क्यों इसे बंद किया जाना चाहिए? किस तरह से इस टेस्ट को लेकर समाज का नजरिया है? किस तरह से इस टेस्ट को लेकर राजनीति होती है और खिलाड़ियों के करियर बरबाद होते हैं?
ये सारी बातें एक कहानी के जरिये कही गई है जो कुछ सच्ची घटनाओं से भी प्रेरित है। गुजरात में रहने वाली रश्मि के साथ रॉकेट इसलिए जुड़ा क्योंकि बचपन से ही वह बहुत तेज भागती थी। वह बुलेट चलाती है, शराब पीती है, पैंट पहनती है। कहीं ये बात लिखी नहीं है कि ये सब करने का अधिकार मर्दों को ही है, लेकिन दकियानुसी गांव वालों को यह बात अखरती है और वे इसे लैंगिकता के चश्मे से देखते हुए सवाल पूछते हैं कि यह लड़की है या लड़का?
बहरहाल, युवा रश्मि पर एक कोच की निगाह पड़ती है और वह उसके खेल को तराशते हुए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ला खड़ा करता है। रश्मि के नाम का जब डंका बजता है तो खेलों में भाई-भतीजावाद करने वाले 'जेंडर टेस्ट' के बहाने उसके साथ राजनीति करते हैं। एक तो लड़की, उस पर एथलीट जिसको लेकर भारत में ज्यादा हलचल नहीं है, ऊपर से जेंडर टेस्ट, इन सब बातों से लड़ना रश्मि के लिए आसान नहीं है। वह इंटरनेशनल फेम से नेशनल शेम बन जाती है।
रश्मि रॉकेट जेंडर टेस्ट को लेकर दर्शकों को जागरूक जरूर करती है, लेकिन इसके इर्दगिर्द जो कहानी बुनी गई है उसमें वही सब बातें हैं जो आमतौर पर हर स्पोर्ट्स फिल्मों में नजर आती है। पसीना बहाता खिलाड़ी, खिलाड़ियों की आपसी प्रतिद्वंद्विता को लेकर राजनीति, ये सब रश्मि रॉकेट का भी हिस्सा हैं। लेकिन इन देखी-दिखाई बातों को तापसी पन्नू की एक्टिंग और कुछ अच्छे सीन लगातार संभालते रहते हैं।
फिल्म का निर्देशन आकर्ष खुराना है। आकर्ष ने इमोशनल दृश्यों को अच्छे से संभाला है। जेंडर टेस्ट की जरूरी जानकारी भी दर्शकों तक आसान शब्दों में पहुंचाई है। लेकिन 'फिल्मी' रंग भी उन पर चढ़ा नजर आया। गुजरात की पृष्ठभूमि है तो एक 'गरबा' सांग डाल दिया। अदालत के दृश्यों को भी हल्के-फुल्के रखने की उन्होंने कोशिश की है जिसकी जरूरत नहीं थी। कोर्ट रूम ड्रामा थोड़ा फिल्मी लगता है। साथ ही रश्मि के खिलाफ लड़ रहा वकील सिर्फ दिखने में स्मार्ट है, लेकिन उसके काम में स्मार्टनेस नजर नहीं आती। कॉमिकल बैकग्राउंड म्यूजिक की भी कुछ दृश्यों में जरूरत नहीं थी। इन बातों को संभाल लिया जाता तो फिल्म और बेहतर बनती।
तापसी पन्नू बेहतरीन एक्ट्रेस हैं और यहां अपनी एक्टिंग के बल पर फिल्म के लेवल को ऊंचा करती हैं। उन्होंने अपने रोल को वो सब कुछ दिया जो जरूरी था। उनका स्किन टोन डार्क रखा गया है ताकि पता चल सके कि उनका ज्यादातर समय तेज धूप में बीता है। शारीरिक रूप से भी उन्होंने एथलीट दिखने के लिए खासी मेहनत की है।
प्रियांशु पेन्युली ने तापसी का साथ बखूबी निभाया और वे फिल्म में सकारात्मकता लाते नजर आते हैं। सुप्रिया पाठक अपने अभिनय के बल पर दर्शकों को इमोशनल करने में कामयाब रहीं। अभिषेक बनर्जी के कैरेक्टर को थोड़ा कॉमिकल रखा गया है और उन्होंने इसे अच्छे से निभाया है। सुप्रिया पिलगांवकर भी अपनी उपस्थिति दर्ज कराती हैं।
एक ऐसी प्रथा जिसने महिला खिलाड़ियों को वर्षों से परेशान कर रखा है, उसके खिलाफ 'रश्मि रॉकेट' जोरदार आवाज उठाती है।