भीड़ फिल्म समीक्षा: लॉकडाउन के दौरान समाज बना भीड़
Bheed Review: अनुभव सिन्हा की फिल्म 'भीड़' जब रिलीज हुई तो कई फिल्मों की भीड़ में गुम हो गई। अब नेटफ्लिक्स पर इसे रिलीज किया गया है जहां इसे ज्यादा दर्शक और चर्चा मिलेगी। यह उस दौर की कहानी है जब महामारी कोविड से पूरी दुनिया परेशान थी और ऊपर से लॉकडाउन ने लोगों की कमर तोड़ दी थी। लॉकडाउन को लेकर हर देश की अपनी कहानी है। भारत में लॉकडाउन से आम लोगों के जीवन और व्यवहार पर क्या असर हुआ इसकी पड़ताल यह फिल्म करती है।
लॉकडाउन के दौरान शहर में काम करने वाले मजदूर घबरा गए। यातायात के सारे साधन बंद हो गए तो वे पांव-पांव ही अपने गांव की ओर निकल पड़े। जिसे जो मिला उसमें वो सवार हो गया। ठेले पर, साइकिल पर, रिक्शा पर। ऐसा ही एक लंबा जत्था अपने प्रदेश की ओर चलता है। एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश की सीमा में प्रवेश के दौरान उन्हें रोक दिया जाता है। पहली बार भारत में ऐसा हुआ। भारतीय नागरिक के साथ ऐसा व्यवहार किया गया मानो वह दूसरे देश का नागरिक हो।
इस जत्थे में तरह-तरह के लोग हैं। हर उम्र, वर्ग और धर्म के हैं। पैरों में छाले हुए शख्स से लेकर तो कार में बैठे इंसान तक का एक ही हाल है। न नेता की नेतागिरी चल रही है और न आम आदमी की सुनी जा रही है। खाने के लिए तरसते लोग उस शख्स से भी खाना लेने को तैयार हो जाते हैं, जिसके हाथ से धर्म के आधार पर उन्हें भोजन पैकेट लेना पसंद नहीं था।
इन सबसे एक ईमानदार पुलिस वाला जूझ रहा है। वह इन सभी की हालत देख व्यथित है, लेकिन आदेश से बंधा हुआ है। चाह कर भी कुछ नहीं कर पा रहा है। उसे अपनी टीम से काम लेने में भी अड़चनें आ रही हैं। जात-पात का मसला है। ऐसा ही किरदार अनुभव सिन्हा ने 'आर्टिकल 14' में भी गढ़ा था। यहां भी नायक की स्थिति ऐसी ही है, परिस्थिति बदली हुई है।
भीड़ वो सब हमें याद दिला देती है जो लॉकडाउन और कोविड के दौरान हमने सुना और देखा। उन कड़वी यादों से फिल्म रूबरू कराती है। दरअसल यह विषय ऐसा है जिस पर वेबसीरिज बना कर ही न्याय किया जा सकता है। एक फिल्म में समेटना आसान नहीं है। अनुभव सिन्हा ने कोशिश की है। कुछ बातों की वह तह में जाते हैं, कुछ को छू कर निकल जाते हैं और कुछ बातें छूट सी गई है।
फिल्म कोविड के दौरान आम जनता के दर्द को बयां करती है। एकदम से लगा दिए गए लॉकडाउन के कारण उपजी समस्याओं को दर्शाती है लेकिन प्रशासन, सरकार के पक्ष को भी प्रमुखता दी जानी चाहिए थी। साथ ही लॉकडाउन के दौरान कई विकराल मार लोगों ने झेली जिसमें से यहां कुछ छूट सी गई है। मीडिया के खबर को पेश करने के अंदाज और व्हाट्सएप पर वायरल होते फेक मैसेज पर भी चुटकियां ली गई है।
अनुभव सिन्हा ने इस फिल्म को ब्लैक एंड व्हाइट रखा है। लेकिन कहीं से भी यह बात नहींअखरती । बल्कि फिल्म देख कर ऐसा लगता है कि हम इसे रंगीन देखना भी नहीं चाहते क्योंकि विषय ही ऐसा है।
अनुभव सिन्हा ने कई कहानियां कहने के बजाय एक ही कहानी से कई बातें कही हैं और उनका यह प्रयास सराहनीय है। अपनी स्टारकास्ट से भी उन्होंने बेहतरीन काम लिया है।
राजकुमार राव, भूमि पेडणेकर, पंकज कपूर, आशुतोष राणा, आदित्य श्रीवास्तव, दीया मिर्जा, वीरेन्द्र सक्सेना जैसे दमदार कलाकारों के कारण फिल्म में गहराई आ गई है।
कोविड और लॉकडाउन के किस्से बरसों तक चलते रहेंगे। नई-नई बातें सामने आती रहेंगी। समाज के 'भीड़' में तब्दील होने के किस्से को भीड़ में महसूस किया जा सकता है।