ओजस्वी और गंभीर आवाज के धनी पंकज कुमार मलिक एक ऐसे इंसान थे जिन्होंने धन और यश दोनों का डटकर मुकाबला किया। वे नि:संदेह एक उच्च कोटि के गायक थे और संगीत की बारीकियों का उन्हें समुचित ज्ञान था। ऐसे गीत जो स्वयं गा सकते थे वे भी उन्होंने सहगल से गवाए।
न्यू थिएटर्स की अनेक फिल्मों का संगीत निर्देशन भी पंकज मलिक ने किया। उनकी धाक बीएन सरकार पर थी और प्रथमेश बरुआ भी उनका लोहा मानते थे। 'छुपो ना छुपो ना ओ प्यारी सजनिया, दो नैना मतवाले तिहारे हम पर जुल्म करें' जैसे गीत इस बात के प्रमाण हैं कि इन्हें ठीक से गा पाने के बावजूद भी पंकज मलिक ने फिल्मों में सहगल से ही गवाए।
जब सारी दुनिया अपनी कला को पैसों की खातिर ही काम में लेती हैं, पंकज मलिक ने अपनी कला को चंद चांदी के टुकड़ों पर कुर्बान नहीं होने दिया। वे इतने उदारमना थे कि कोई भी उन्हें गाने का आग्रह करता और वे बिना हीले हवाले के चले जाते। लोगों के मन को प्रसन्न करना ही उनकी संगीत साधना की मूल प्रेरणा थी।
एक बार स्टुडियो में हारमोनियम में कोई धुन बना रहे थे तभी कॉलेज के कुछ छात्र आए और उनसे जलसे में गाने का निवेदन किया। वे तत्काल तैयार हो गए। इसी बीच वहां मौजूद गायक केसी डे ने हस्तक्षेप करते हुए छात्रों से गायन के बदले उचित पारिश्रमिक देने पर जोर दिया। इसी घटना के बाद उन्होंने दुनियादारी सीखी।
सोने की तराजू पर उन्होंने कभी स्वर को नहीं तौला। अपने 'स्व' के लिए उन्होंने कभी दूसरों के हक को नजर अंदाज नहीं किया। पंकज मलिक के जीवन से यह बात उजागर होती है कि भगवे वस्त्र धारण किए बिना भी मनुष्य जीवन में संन्यासी हो सकता है।
रवीन्द्र संगीत को मूर्त रूप देने में पंकज मलिक ने लोक धुनों और शास्त्रीय संगीत के साथ पश्चिमी संगीत का संगम कर उसे बहुआयामी संगीत पद्धति में बदल दिया। उसे बंगाल से बाहर लाकर सारे हिन्दुस्तान से परिचित कराया। न्यू थिएटर्स की प्रसिद्ध फिल्म मुक्ति में रवींद्र संगीत का प्रयोग जिस कुशलता से किया गया है वह अपने आप में बेमिसाल है।
पंकज मलिक के संगीत सफर की यह महान उपलब्धि कही जाएगी कि कवि रवींद्र जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त व्यक्ति अपनी कहानी पर आधारित फिल्मों में ही अपने गीत देते थे, लेकिन उन्होंने पंकज मलिक को ऐसी फिल्मों में भी अपने गीतों का प्रयोग करने की अनुमति दी जिनकी कहानी उनकी नहीं थी। यह एक असाधारण बात थी।
अपनी संस्था के प्रति निष्ठा के कारण पंकज मलिक न्यू थिएटर्स छोड़ कर कभी दूसरी संस्था में नहीं गए। सन 1926 में कलकत्ता में रेडियो केंद्र खुला लगभग तभी से 1975 तक वे रेडियो से ही जुड़े रहे। प्रत्येक रविवार की सुबह संगीत के पाठ रेडियो के माध्यम से पढ़ाकर उन्होंने आने वाली पीढ़ी को संगीत से परिचित कराया। दुर्गा पूजा के अवसर पर प्रत्येक वर्ष 'महिषासुर मर्दिनी' नामक कार्यक्रम वे प्रस्तुत करते थे जो बहुत ही लोकप्रिय था।
10 मई 1905 को कलकत्ता में जन्मे पंकज मलिक ने दुर्गादास बेनर्जी से छह वर्ष तक संगीत शिक्षा पाई। स्वर लिपि को परिभाषित करने वाली पुस्तक को मिलाकर उन्होंने चार ग्रंथ लिखे। हृदयाघात के कारण 73 वर्ष की परिपक्व उम्र में 19 फरवरी 1978 के दिन उनका निधन हुआ। संगीत की दुनिया को उनकी दुर्लभ देन है उनके गीत-संगीत का अनमोल खज़ाना। चार दशकों के अंतराल के बावजूद आज भी उनके अनेक गीत लोकप्रिय हैं।
* आई बहार आई (डॉक्टर)
* ये कौन आया आज सवेरे-सवेरे (नर्तकी)
* चले पवन की चाल (डॉक्टर)
* कौन देश है जाना बाबुल (मुक्ति)
* छुपो ना छुपो ना (माय सिस्टर)
* ये राते ये मौसम
* प्राण चाहे नैना ना चाहे
* तेरे मंदिर का
* मैंने आज पिया
पंकज मलिक भारतीय सिनेमा संगीताकाश के धु्व नक्षत्र हैं। महात्मा का मन और राजर्षि का हृदय दोनों विधाता ने उन्हें दिए थे।
सुर सागर (1932), संगीत रत्नाकर (1956), पद्मश्री (1970), दादा साहेब फालके पुरस्कार (1973), रवींद्र तत्वाचार्य (1975) और ग्रामोफोन कंपनी ऑफ इंडिया की गोल्डन डिस्क (1976), ये अलंकरण जनसत्ता और राजसत्ता द्वारा पंकज मलिक को प्रदान किए गए।
- रमेश वैद्य
(पुस्तक सरगम का सफर से साभार)