सलमान रावी (बीबीसी संवाददाता)
अफ़ग़ानिस्तान में तेज़ी से बदलते घटनाक्रम और मौजूदा हालात से ऐसा लगता है कि तालिबान लंबे समय तक सत्ता में लौट आया है। ऐसे में सुरक्षा को लेकर मध्य और दक्षिण एशिया के देशों की चिंताएं भी बढ़ रही हैं। भारत के लिए भी ये सब बहुत चुनौतीपूर्ण है। सामरिक मामलों के जानकारों को लगता है कि भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती तो यही है कि वो तालिबान की हुकूमत को मान्यता दे या नहीं। वैसे, इसको लेकर राय बंटी हुई भी है।
कुछ एक विशेषज्ञ कहते हैं कि भारत को फ़िलहाल कोई जल्दबाज़ी नहीं दिखानी चाहिए क्योंकि तालिबान की विचारधारा में कोई ख़ास बदलाव नहीं आया है। वो तब भी लोकतंत्र लागू करने के ख़िलाफ़ थे और वो अब भी लोकतंत्र के ख़िलाफ़ हैं। तालिबान देश को शरिया के क़ानून के हिसाब से ही चलना चाहते हैं। ऐसे में मौलवी ही तय करेंगे कि इस प्रक्रिया में लोगों के अधिकार क्या होंगे- ख़ासतौर पर महिलाओं और अल्पसंख्यकों के।
अफ़ग़ानिस्तान से जिस तरह अमेरिकी नेतृत्व वाली नेटो फ़ौजें अचानक हट गयीं और जिस तरह पूरे देश में अराजकता फैल गयी उससे कूटनीतिक संबंधों को भी अचानक ही झटका लगा है। इस घटनाक्रम में एक नए ध्रुव का उदय भी हुआ जिसमें चीन, रूस और पाकिस्तान शामिल हैं। चूंकि ईरान के संबंध भी अमेरिका के साथ ठीक नहीं हैं इसलिए वो भी तालिबान को मान्यता देने के पक्ष में ही नज़र आ रहा है। ये भी भारत के लिए बड़ी चिंता की बात है।
'अभी सब्र करे भारत'
भारत के पूर्व उप-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अरविन्द गुप्ता मानते हैं कि पानी के स्थिर होने तक भारत को सब्र के साथ ही काम लेना चाहिए। उनके अनुसार तालिबान से भारत को कुछ हासिल होने वाला नहीं है।
बीबीसी से बातचीत के क्रम में गुप्ता कहते हैं, 'तालिबान के असली चेहरे से सब परिचित हैं। तालिबान अभी तक एक 'घोषित चरमपंथी गुट' ही है। चरमपंथ और रूढ़िवाद बड़ी समस्या बने रहेंगे क्योंकि वो सोच कहीं से ख़त्म नहीं होने वाली है। तालिबान के सत्ता पर दख़ल से जिहादी सोच और भी विकसित होगी, जिसके दुष्परिणाम पूरी दुनिया ने पहले ही देख लिए हैं। वहां इस्लामिक स्टेट यानी 'आईएस' की विचारधारा अब भी ज़िंदा है।'
कथनी-करनी का फ़र्क
सत्ता पर क़ब्ज़ा करने के बाद तालिबान ने कई घोषणाएं ज़रूर की हैं और अपना उदारवादी चेहरा दिखाने की भी कोशिश की है। लेकिन बावजूद इसके अफ़ग़ानिस्तान के विभिन्न प्रांतों में तालिबान लड़ाकों की ज़्यादती की वारदात भी बढ़ रही हैं।
ख़बरों के अनुसार तालिबान के लड़ाके घर घर की तलाशी ले रहे हैं और पूर्व की सरकार में काम करने वाले अधिकारियों और राजनेताओं को ढूंढ़ भी रहे हैं।
जिन लोगों ने कभी तालिबान से लोहा लिया था वो अब सीधे तौर पर उसके निशाने पर आ गए हैं जबकि तालिबान ने कहा है कि वो बदले की कार्रवाई नहीं करेगा। इसी कड़ी में तालिबान से लोहा लेने वाली बल्ख प्रांत की गवर्नर सलीमा मज़ारी को भी तालिबान ने गिरफ़्तार कर लिया है।
गुप्ता कहते हैं, 'ऐसे में तालिबान पर कैसे भरोसा किया जा सकता है? जिस तरह उनके लड़ाकू लोगों को एयरपोर्ट भी जाने नहीं दे रहे हैं और आतंक फैला रहे हैं, वो सरकार कैसे चलाएंगे?'
उनका कहना है कि चीन और पाकिस्तान से भारत के संबंधों के परिपेक्ष में अगर अफ़ग़ानिस्तान के घटनाक्रम को देखा जाए तो ये बेहद चिंताज़नक है।
इस नए ध्रुव में ईरान और मध्य एशिया के कई देश भी शामिल हो सकते हैं जिससे चिंता बढ़ना स्वाभाविक है।
गुप्ता कहत हैं, 'तालिबान लाख दावा करे कि वो 'अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का इस्तेमाल किसी दूसरे देश पर हमलों के लिए नहीं होने देगा', लेकिन ये सच्चाई है कि चीन और पकिस्तान भारत के ख़िलाफ़ इसका पूरा फ़ायदा उठाने के कोशिश करते रहेंगे।'
भारत और तालिबान
भारत ने कभी भी तालिबान को मान्यता नहीं दी है। इससे पहले भी जब उनकी सरकार थी तब भी भारत ने, राजनयिक भाषा में जिसे कहते हैं -'एंगेज' करना, वो कभी नहीं किया। सिर्फ़ एक बार, जब इंडियन एयरलाइन्स के विमान का चरमपंथियों ने अपहरण कर लिया था और उसे कंधार ले गए थे, तब पहली और आख़िरी बार भारत ने तालिबान के कमांडरों से औपचारिक बातचीत की थी। फिर भारत ने हमेशा ख़ुद को तालिबान से दूर ही रखा।
अमेरिकी फ़ौजों के हटने की प्रक्रिया से पहले, जब दोहा में तालिबान के नेताओं के साथ वार्ता के दौर चले, तब भी भारत ने उनक साथ 'एंगेज' नहीं करने का ही फ़ैसला किया। पीछे के दरवाज़े से भी तालिबान के नेतृत्व से बातचीत का भारत ने खंडन ही किया है।
गुप्ता मानते हैं कि तालिबान के आने के बाद जम्मू कश्मीर के रास्ते भारत में चरमपंथियों के घुसपैठ की घटनाएं बढ़ सकती हैं क्योंकि पकिस्तान ऐसा करने की पूरी कोशिश करता रहेगा।
'पूरी दुनिया के लिए चिंताजनक'
वहीं अफ़ग़ानिस्तान के विदेश मंत्रालय में कई सालों तक काम करने वाले गुलशन सचदेवा कहते हैं कि तालिबान के साथ पाकिस्तान का होना भारत के लिए बड़ी चुनौती बना रहेगा। सचदेवा फ़िलहाल दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के 'स्कूल फॉर इंटरनेशनल स्टडीज़' के प्रोफ़ेसर हैं।
प्रोफ़ेसर गुलशन सचदेवा ने बीबीसी से कहा, 'तालिबान कौन हैं? ये तहरीक जब शुरू हुई थी तो पाकिस्तान के एबटाबाद के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को सबसे पहले इसमें भेजा गया। इन्हें हथियारबंद किया गया था। ये शुरुआत थी, लेकिन उनकी जड़ें अभी भी वही हैं जो चिंता की बात न केवल भारत के लिए है बल्कि पूरी दुनिया के लिए भी ये उतनी ही चिंताज़नक है।'
सचदेवा का कहना है कि पकिस्तान की विभिन्न संस्थाओं - जैसे सेना और गुप्तचर एजेंसियों - का संबंध भी तालिबान से हमेशा गहरा ही रहा है। लेकिन 2001 में तालिबान के ठिकानों पर जब अमेरिकी सेनाओं ने हमला किया और उन्हें ध्वस्त किया और फिर अफ़ग़ानिस्तान में लोकतांत्रिक सरकार ने बागडोर संभाली तो लगा कि अब कभी तालिबान मज़बूत नहीं हो पाएगा।
उन्हें लगता है कि जो कुछ अफ़ग़ानिस्तान में हो रहा है उसमें अमेरिका, अफ़ग़ानिस्तान में अशरफ़ गनी का नेतृत्व और तालिबान - सब मिले हुए नज़र आते हैं।
वो कहते हैं, 'अगर ऐसा नहीं है तो फिर बिना प्रतिरोध के सरकार ने तालिबान के सामने क्यों घुटने टेक दिए? ये बड़ा सवाल बना रहेगा क्योंकि अमेरिका भी कहता रहा कि तालिबान को क़ाबुल तक पहुंचने में 3 महीनों से भी ज़्यादा का समय लग सकता है। लेकिन ये 3-4 दिनों में ही हो गया।'
सचदेवा का यह भी कहना है, ''तालिबान के पिछले शासनकाल और इस शासनकाल का सिर्फ़ इतना सा फ़र्क़ है कि पहले वाले में उसे मान्यता नहीं मिली थी। लेकिन इस बार विश्व के दो ताक़तवर देश जैसे रूस और चीन उसे मान्यता दे रहे हैं। यूरोप के देश भी ऐसा ही करेंगे क्योंकि इससे उन्हें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता। इसलिए वो मानते हैं कि इस बार अपनी सुरक्षा और संप्रभुता को देखते हुए भारत के लिए तालिबान से 'डील' करना बेहद ज़रूरी हो जाएगा।''
सचदेवा कहते हैं कि भारत को देर नहीं करनी चाहिए क्योंकि जितनी देर भारत तालिबान के साथ 'एंगेज' करने में करेगा, उसका सीधे तौर पर पाकिस्तान फ़ायदा उठाने की कोशिश करेगा। क्या भारत को अपना राजदूत वापस अफ़ग़ानिस्तान भेजना चाहिए? सामरिक हलकों में भी इस बात को लेकर चर्चा हो रही है कि क्या भारत को भी अफ़ग़ानिस्तान में अपने दूतावास को जल्द ही फिर से शुरू कर देना चाहिए? सामरिक मामलों के जानकार और वरिष्ठ पत्रकार अभिजीत अय्यर मित्रा भी यही मानते हैं।
वो कहते हैं, 'न सिर्फ़ राजदूत को वापस भेजना चाहिए बल्कि भारत को चाहिए कि अपने सभी सलाहकारों को भी दूतावास में तैनात करे। रूस, चीन, इरान और पकिस्तान के दूतावास वहां बंद नहीं हुए हैं। भारत को तालिबान के साथ 'एंगेज' करना हित में उठाया गया क़दम होगा।'
पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान
मित्रा का मानना है कि अभी तक भारत ने जिस तरह का रुख़ अपनाया है वो बिलकुल सही रहा। लेकिन अब बदले हुए हालात में भारत को भी अपनी नीति में फ़ेरबदल करना चाहिए। वो कहते हैं कि पहले के तालिबान और अब के तालिबान में इतना फ़र्क़ है कि अब उनका 'वैश्वीकरण' हो चुका है।
उनका कहना था, 'पहले वाला तालिबान पूरी तरह से पकिस्तान के नियंत्रण में रहा। लेकिन संगठन के दूसरे सबसे बड़े नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरादर अखुंद ने आठ सालों तक पकिस्तान की जेल में यातनाएं सहीं। इसके बाद तालिबान का अब पाकिस्तान के प्रति पहले जैसा रुख़ हो ये ज़रूरी नहीं। इसके संकेत तब मिलने लगे जब तालिबान ने इतनी तेज़ी के साथ अफ़ग़ानिस्तान के सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया।'
भरोसे की बात
सत्ता हथियाने के साथ ही तालिबान के द्वारा दिए गए संकेतों को सामरिक विश्लेषक गंभीरता से देख रहे हैं।
मसलन महिलाओं को बुर्क़े की जगह हिजाब पहन कर काम करने की अनुमति, अफ़ग़ानिस्तान की धरती का किसी भी देश के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं करने दिया जाना, गुरुद्वारे में सिख और हिन्दुओं को आश्वासन, भारत की वहां शुरू की गयीं परियोजनाओं को पूरा करने का आग्रह और शिया समुदाय के साथ बेहतर संबंध बनाने के भरोसे का भी बारीक़ी से अध्ययन किया जा रहा है।
जहां तक रही बात अफ़ग़ानिस्तान में शरियत क़ानून लागू करने की, तो अभिजीत अय्यर मित्रा कहते हैं कि काबुल और कुछ प्रांतीय शहरों को छोड़कर अफ़ग़ानिस्तान में कोई क़ानून सख्ती से लागू ही नहीं रहा।
मित्रा कहते हैं, 'प्रांतों और सुदूर इलाकों में घर का जो बड़ा है या जो कुनबे का सरदार है, जो उसने कह दिया वही क़ानून है। शरियत लागू होने से कोई प्रणाली तो आ जाएगी जिसके तहत मामलों को सुलझाया जा सकेगा। ये व्यवस्था काबुल के लिए ठीक नहीं हो सकती है, मगर अफ़ग़ानिस्तान के बड़े इलाके में इस बहाने कोई क़ानून तो लागू होगा।'
वो कहते हैं कि ये सही है कि तालिबान को पाकिस्तान के संरक्षण ने ही मज़बूत किया है। मगर आम अफ़ग़ान की भावनाएं पाकिस्तान के ख़िलाफ़ ही हैं। इसका भारत को फ़ायदा उठाना चाहिए क्योंकि तालिबान भी बड़ी आबादी की भावनाओं के ख़िलाफ़ जाने का जोख़िम नहीं उठा सकता।