सीटू तिवारी, बीबीसी संवाददाता, अररिया
बिहार अलग-अलग वजहों से देशभर में सुर्ख़ियों में रहता है। हाल के दिनों में एक के बाद एक कई 'गिरते हुए पुल' देशभर में चर्चा का विषय बने थे। ऐसे पुलों का वीडियो भी ख़ूब वायरल हुआ।
इन सबके बीच बिहार में कुछ ऐसे भी पुल हैं, जो 'अजूबे' के तौर पर देखे जाने लगे हैं। हाल ही में बिहार के अररिया का ऐसा ही पुल चर्चा में आया। बीबीसी ने इसके और ऐसे ही कुछ और पुलों के बनने और फिर 'वायरल' हो जाने की कहानी जानी है।
बिहार की राजधानी पटना से क़रीब 350 किलोमीटर दूर अररिया के रानीगंज प्रखंड (ब्लॉक) का परमानंदपुर गाँव। घनी आबादी वाले इलाक़े से जैसे ही आप खेतों की तरफ़ बढ़ेंगे, वहाँ आपको खेत में खड़ा एक पुल दिखाई देगा।
ये वही पुल है, जिसकी हम बात कर रहे थे। कुछ दिन पहले सोशल मीडिया पर 'खेत के बीच बने अजूबा पुल' के तौर पर मशहूर हुआ। पानी से भरे खेतों से होते हुए जब आप पुल के पास पहुँचेंगे, तो उसके नीचे से नदी की धारा बहती दिखेगी। ये दुलारदई नदी है, जिस पर पुल परमानंदपुर के ग्रामीणों की मांग के बाद बनाया गया था।
गाँव के युवा संजय कुमार मंडल बीबीसी को बताते हैं, "हम लोग चार साल से दो पुल का डिमांड सरकार से कर रहे थे। सरकार ने इस साल जनवरी में एक पुल बना दिया लेकिन पुल पर चढ़ने के लिए सड़क ही नहीं बनाई। कोई कैसे चढ़ेगा? सरकार हम लोगों को ओलंपिक की ट्रेनिंग दे दे।"
क्या है वायरल पुल की कहानी?
दरअसल, ये पुल जहां बना है, वो पूरा इलाक़ा परमानंदपुर गाँव के लोगों की खेती की ज़मीन है। इन्हीं खेतों के बीच से दुलारदई नाम की नदी बहती है। ग्रामीणों को आने-जाने के साथ साथ ट्रैक्टर आदि वाहन ले जाने में दिक़्क़त होती थी। इसलिए पुल बनाने की मांग हो रही थी।
मुख्यमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के तहत 3।20 करोड़ की लागत से परमानंदपुर लक्ष्मी स्थान से कुपारी बॉर्डर तक सड़क बनने की योजना साल 2023 में बनी। ये पुल इसी 3।20 किलोमीटर लंबी सड़क का हिस्सा है।
ग्रामीण कार्य विभाग के फारबिसगंज एग्जीक्यूटिव इंजीनियर प्रवीण कुमार बीबीसी से बताते हैं, “ये पुल इसी साल अप्रैल माह में बन गया था और जब बना तो ग्रामीणों ने सहयोग दिया। लेकिन जब पुल के पहुंच पथ (एप्रोच) बनाने के लिए जेसीबी से मिट्टी गिराई जाने लगी तो असामाजिक तत्वों ने निजी ज़मीन बताकर काम में बाधा डाली।”
क्या कहते हैं गाँव वाले
परमानंदपुर गाँव वाले दो बातें कहते हैं। पहला तो ये कि पुल का निर्माण जनवरी 2024 में शुरू हुआ और इसी महीने पूरा हो गया। दूसरा ये कि ग्रामीणों को एप्रोच रोड बनाने के लिए निजी ज़मीन देने के लिए सरकार ने संपर्क नहीं किया।
दरअसल पुल का ढांचा और एक तरफ़ की एप्रोच रोड तो सरकारी ज़मीन पर है। लेकिन दूसरी तरफ़ की एप्रोच रोड में अर्जुन मंडल और उदयकांत झा नाम के दो ग्रामीणों की ज़मीन आती है।
उदयकांत झा की दो डेसीमल से ज़्यादा ज़मीन इस एप्रोच रोड में आ रही है। वो बताते हैं, “मुझसे सात अगस्त 2024 से पहले तक किसी अधिकारी ने ज़मीन के लिए संपर्क ही नहीं किया। जब न्यूज़ आई तो सीओ (अंचलाधिकारी) साहब ने बुलाया। हमको सरकार मुआवज़ा दे दे, तो बहुत अच्छी बात है, लेकिन नहीं भी देगी तो हम ज़मीन दे देंगें।”
इस बीच ये सवाल अहम है कि क्या योजना का डीपीआर (डिटेल्ड प्रोजेक्ट रिपोर्ट) बनाते समय इन बातों का ध्यान नहीं रखा जाता? इस सवाल के जवाब में एग्जीक्यूटिव इंजीनियर प्रवीण कुमार कहते हैं, “ये बहुत छोटी सी बात है। योजनाओं में ऐसा होता है और इन मामलों को बाद में सुलझा लिया जाता है।”
यहां आदमी की जान की कोई वैल्यू है?
पुल की तस्वीर वायरल होने के बाद सरकारी ज़मीन वाले हिस्से की एप्रोच रोड पर मिट्टी भराई का काम शुरू हो गया है। यानी ग्रामीण एक तरफ़ से पुल पर इस मिट्टी के सहारे चढ़ जाते हैं लेकिन दूसरी तरफ़ उतरने के लिए उन्हें पुल से कूदना पड़ता है।
भारी सामान लिए ग्रामीण दुलारदई नदी से ही पार होते हैं। जिसमें अभी पानी उनकी कमर से ऊपर तक आता है। बारिश ज़्यादा होने की सूरत में ये नदी पार करना भी मुश्किल होगी।
कल्पना देवी अपनी भैंसों को चराने के लिए पुल के पास आई है। वो कहती हैं, “ ये पुल थोड़ी बारिश में ही गिर जाएगा। सरकार ने पुल बना दिया और रोड दी ही नहीं। पानी में चलते चलते पाँव पक गए।”
पुल पर चढ़ने के लिए लोगों को बेहद मुश्किल से चढ़ना पड़ता है जो किसी दीवार पर चढ़ने जैसा है। बुज़ुर्ग पुरूषों से लेकर बच्चे ऐसे ही चढ़ते हैं।
अपने जीवन के 70 बसंत देख चुके जोगिंदर मंडल कहते हैं, “यहाँ के आदमी की जान की कोई वैल्यू नहीं है। यहां पुल बनने से ये ख़तरनाक जगह हो गई है। पुल बनेगा नहीं तो आदमी ऐसे ही जाते रहेगा, मरता डूबता रहेगा। पुल बस टांग दिया है सरकार ने।”
अररिया में और भी हैं ऐसे पुल
अररिया ज़िले में ऐसे और भी पुल हैं, जिनमें कई साल बीत जाने के बाद एप्रोच रोड ही नहीं बनी है। ज़िले के पलासी प्रखंड (ब्लॉक) से क़रीब 20 किलोमीटर दूर ब्रहमकुंभा पंचायत में ऐसा ही पुल है।
ब्रहमकुंभा पंचायत के बेलपरा वॉर्ड नंबर 4 में बकरा नाम की नदी की धार पर ऐसा ही एक पुल बना है। ये पुल जुलाई 2021 में बनना शुरू हुआ था और जुलाई 2022 में बनकर तैयार हो गया था। लेकिन इस पुल में भी कोई एप्रोच रोड नहीं है। यानी पुल पर चढ़ने का रास्ता ग़ायब है।
इस पुल के आसपास जमा मिट्टी और कुछ कूद-फांद कर लोग चढ़ते उतरते हैं। पुल पर लोग साइकिल हाथ में उठाकर चढ़ाते है या पैदल चढ़ते हैं।
पुल पार कर रही शोभा देवी कहती हैं, “चढ़ाई उतराई में बहुत ज़्यादा परेशानी होती है। रोड बन जाती तो परेशानी नहीं होती। सरकार पैसा देती है कि पुल बनाओ, रास्ता बनाओ लेकिन पब्लिक को तो कुछ मिलता नहीं है।”
वहीं मोहम्मद गुड्डू कहते है, “बहुत सारे लोगों के घर में मोटरसाइकिल है, गाड़ी है लेकिन पुल पर चल ही नहीं सकते।”
इसी तरह का पुल अररिया के कुर्साकांटा ब्लॉक के कुआरी बाज़ार के पास है। ये पुल मसना नाम की नदी पर बना है। इस पुल की ऊँचाई इतनी ज़्यादा है कि इस पर लोगों का चढ़ना मुश्किल है।
पुल के बारे में मोहम्मद शहाबुद्दीन बताते हैं, “नया पुल जो बना है। उस पर कोई चढ़ ही नहीं सकता। लोग नीचे से ही पानी पार करके आते जाते हैं।”
बिना एप्रोच रोड वाले पुल-पुलिया की सूची मांगी गई : डीएम
ये पुल पहसी, ललोखर, कुआरी, कुर्साकांटा को जोड़ता है। ललोखर पंचायत के मुखिया मक़तूब आलम बताते है कि ये पुल साल 2017 से ऐसे ही बना पड़ा है।
वो बताते है, “ ये पुल बिहार सरकार ने बनवाया। हम लोग नेपाल के पास है तो बाद में इस रोड को बार्डर रोड बना दिया। अब कुछ हो ही नहीं रहा। हम लोग एमपी, एमएलए, डीएम सब से कह चुके है। बारिश ज़्यादा होगी तो सारा संपर्क टूट जाएगा। नदी पार करना मुश्किल होगा।”
अररिया की डीएम इनायत ख़ान इस बारे में कहती हैं,“ हम लोगों ने अररिया और फारबिसगंज डिवीजन के कार्यपालक अभियंताओं से ऐसे सभी पुल-पुलिया की सूची मांगी है जिसमें एप्रोच रोड नहीं बनी है। ये सूची मिलने के बाद आवश्यक कार्रवाई की जाएगी।”
बिहार सरकार की ग्रामीण कार्य विभाग की वेबसाइट के मुताबिक़, ग्रामीण क्षेत्र में बारहमासी सड़कों के जुड़ाव वाले राज्यों में बिहार पिछड़ा राज्य है।
आर्थिक सर्वेक्षण 2023-24 के मुताबिक़ साल 2005 -06 से सितंबर 2023 तक ग्रामीण कार्य विभाग ने 1910 पुलों का निर्माण किया गया है
बिहार की 85 फ़ीसदी आबादी ग्रामीण इलाक़ों में रहती है। ऐसे में ये देखना ज़रूरी है कि सरकारी दावों से इतर इस ग्रामीण आबादी के लिए बने ये पुल कितने जन उपयोगी हैं।
पुल गिरने की घटनाएँ
बिहार में पिछले दिनों कई पुल गिरने से सरकार की किरकिरी हुई है। 18 जून से 6 जुलाई, 2024 के बीच बिहार में पुल गिरने की 13 घटनाएं हुई थीं। इसमें सिर्फ गंडकी नदी पर 7 पुल गिरे थे। जिसके बाद बिहार सरकार ने प्रेस विज्ञप्ति जारी करके इसे इंजीनियरों की लापरवाही माना है।
दरअसल सिवान, सारण और गोपालगंज में बहने वाली गंडकी नदी (इसे छाड़ी नदी भी कहते है) में नदी जोड़ परियोजना के तहत गाद निकासी का काम होना था। इससे पहले अररिया जिले में बकरा नदी पर गिरे पुल की जांच के लिए
बिहार अभियंत्रण सेवा संघ ने भी दो सदस्यीय जांच टीम गठित की थी। इस जांच दल ने पुल की डिज़ाइनिंग, बिल्डिंग मैटेरियल, सराउंडिंग आदि पक्षों पर जांच की है।
संघ के महासचिव राकेश कुमार ने बीबीसी को बताया कि बकरा नदी पर गिरे पुल की जांच में दो वजहे निकली हैं। पहला तो ये कि पुल की नींव के पास बालू उत्खनन हुआ और दूसरा ये कि डिजाइनर ने नदी की धारा बदलने की प्रवृति को पुल डिजाइनिंग में ध्यान नहीं रखा। इस मामले में जांच दल ने अनुशंसा की है।
राकेश कुमार बताते हैं, " सरकार ने जब पुल निर्माण निगम बनाया है तो ग्रामीण कार्य विभाग सहित जो विभाग पुल बनाते है, उनको पुल निगम के एक्सपर्ट से सलाह लेनी चाहिए। दूसरा ये कि परामर्शी सेवाए जो सरकार बाहर से ले रही है वो बाहर या मार्केट से नहीं लेकर खुद के विभागीय इंजीनियर को ही ट्रेनड करना चाहिए।"
बिहार में पुल निर्माण की जिम्मेदारी पथ निर्माण विभाग, ग्रामीण कार्य विभाग, पंचायती राज विभाग सहित कई विभागों की है।
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