योग हिन्दू जाति की सबसे प्राचीन तथा सबसे समीचीन संपत्ति है। यही एक ऐसी विद्या है जिसमें वाद-विवाद को कहीं स्थान नहीं, यही वह एक कला है जिसकी साधना से अनेक लोग अजर-अमर होकर देह रहते ही सिद्ध-पदवी को पा गए। यह सर्वसम्मत अविसंवादि सिद्धांत है कि योग ही सर्वोत्तम मोक्षोपाय है। भवतापतापित जीवों को सर्वसंतापहर भगवान से मिलाने में योग अपनी बहिन भक्ति का प्रधान सहायक है। जिसको अंतरदृष्टि नहीं, उसके लिए शास्त्र भारभूत है। यह अंतरदृष्टि बिना योग के संभव नहीं। अत: इसमें संदेह नहीं कि भारतीय तत्वज्ञान के कोश को पाने के लिए योग की कुंजी पाना परमावश्यक है।
इस काल में सर्वसाधारण जन को योग का ज्ञान बहुत ही कम है। पंडित समाज को जो कुछ ज्ञान है, वह पातंजल योग का और वह भी दुरधीत तथा दुरध्यापित शास्त्ररूपेण। योगचर्या तथा योगाभ्यास से हमारा सभ्य संघ उतना ही संपर्क रखता है जितना माया-परिष्वक्त जीव सर्वदु:खहर महेश्वर से रखता है। यही एक प्रधान कारण है कि इस समय योग के संबंध में विचित्र-विचित्र बातें विद्वज्जन के मुख से भी सुनने में आती है। अस्तु। इस समय इसकी कैसी भी दुर्दशा अनात्मज्ञ लोगों में क्यों न हो, भारतवर्ष के आध्यात्मिक इतिहास में योग का सर्वदा विशिष्ट स्थान रहा है।
दार्शनिक मत-मतांतरों के परस्पर इतने भिन्न रहने पर भी योगाभ्यास में किसी की विप्रतिपत्ति सुनने में नहीं आती। वेदबाह्य बौद्ध, जैन आदि भी योग पर उतनी ही आस्था रखते थे जितनी श्रद्धा वेदसम्मतमतानुयायी आर्य जनता रखती थी। अनेक विलक्षण आचारसंपन्न साधकगण भी योग को परमालंबन मानते थे। कहां तक कहें, हिन्दुओं के नित्य- नैमित्तक कर्मों में भी योग के कितने अंग-आसन, प्राणायाम आदि व्याप्त देखे जाते हैं। यह एक बड़ी विशिष्ट बात है कि योग का यह प्राधान्य प्राचीनतम काल से चला आया है। डायसन इसी को 'भारत को धर्मजीवन की एक सबसे विलक्षण बात' कहते हैं।
अन्यत्र हम यह दिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं कि वैदिक संहिताओं के काल में भी योगचर्या अच्छी तरह से ज्ञात थी। वेद ही हमारे- क्या संसारभर के- सबसे प्राचीन ग्रंथ हैं। यदि यह दिखाया जा सकता है कि वेद के प्रत्येक विभाग में योग के विषय में बहुत कुछ मिलता है, तब यह बात कभी अत्युक्ति नहीं कही जा सकती कि योग हमारी सबसे पुरानी संपत्ति है। इस उद्देश्य को सामने रखकर यहां हम उपनिषदों में आए हुए योग-वर्णन की कुछ चर्चा करते हैं।
वेद के दो विभाग हैं- मंत्र और ब्राह्मण। 'मंत्र ब्राहणात्म को वेद:।' मंत्रों के संग्रह का नाम संहिता है। मंत्रों के विनियोग आदि विषयों को बतलाने वाला ग्रंथ ब्राह्मण कहा जाता है। ब्राह्मणों का अंतिम भाग बहुधा आरण्यक होता है। आरण्यकों का अंतिम अंश बहुत करके उपनिषद होता है। यही कारण है कि उपनिषद वेदांत कहे जाते हैं। उपनिषद का अर्थ है- 'रहस्य, गुप्त उपदेश।' वेद का सारभूत विषय जो परम अधिकार प्राप्त शिष्यों को ही बताया जाता था, वही उपनिषदों में भरा हुआ है। ऐसा माना जाता है कि वेद की जितनी शाखाएं थीं उतनी ही संहिताएं, ब्राह्मण, आरण्यक तथा उपनिषद थे। ऋग्वेद की 21, यजुर्वेद की 109, सामवेद की 1,000 तथा अथर्ववेद की 50 शाखाएं थीं। सब मिलाकर 1180 शाखाएं थीं। अत: इतने ही उपनिषद भी होने चाहिए। किंतु संहिता, ब्राह्मणों के साथ-साथ उपनिषद भी लुप्त हो गए। मुक्तिकोपनिषद में भगवान श्रीरामचन्द्र सारतर 108 उपनिषदों के नाम यों कहते हैं-
ईशकेनकठप्रश्नमुण्डमाण्डूक्यतित्तिरि:।
ऐतरेय च छान्दोग्यं बृहदारण्यकं तथा।।
ब्रहमकैवल्यजाबालश्वेताश्वो हंस आरुणि:।
गर्भो नारायणो ब्रह्मबिन्दुनादशिर: शिखा।।
मैत्रायणी कौषीतकी बृहज्जाबालतापनी।
कालाग्निरुद्रमैत्रेयी सुबालक्षुरिमन्त्रिका।।
सर्वसारं निरालम्बं रहस्यं वज्रसूचिकम्।
तेजोनादध्यानविद्यायोगतत्त्वात्मबोधकम्।।
परिव्राट् त्रिशिखी सीता चूड़ा निर्वाणमण्डलम्।
दक्षिणा शरभं स्कन्दं महानारायणाद्वयम्।।
रहस्यं रामतपनं वासुदेवं च मुद्गलम्।
शाण्डिल्यं पैंगलं भिक्षुमहच्छारीरकं शिखा।।
तुरीयातीतसंन्यासपरिव्राजाक्षमालिका।
अव्यक्तैकाक्षरं पूर्णा सूर्याक्ष्यध्यात्मकुण्डिका।।
सावित्र्यात्मा पाशुपतं परं ब्रह्मावधूतकम्।
त्रिपुरा तपनं देवी त्रिपुरा कठभावना।।
हृदयं कुण्डली भस्म रुद्राक्षगणदर्शनम्।।
तारसारमहावाक्यपंचब्रह्माग्निहोत्रकम्
गोपालतपनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम्।।
शाठ्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम्।
कलिजाबालिसौभाग्यरहस्यऋचमुक्तिका।।
इन 108 उपनिषदों के अतिरिक्त और भी अनेक उपनिषद उपलब्ध हैं। ऐसे उपनिषदों का एक संग्रह दो वर्ष हुए अड्यार लाइब्रेरी (मद्रास, अब चेन्नई) से निकला है। इस संग्रह में 71 उपनिषद संगृहीत हैं। उनके नाम ये हैं-
1. योगराजोपनिषत्
2. अद्वैतोपनिषत्
3. आचमनोपनिषत्
4. आत्मपूजोपनिषत्
5. आर्षेयोपनिषत्
6. चतुर्वेदोपनिषत्
7. इतिहासोपनिषत्
8. चाक्षुषोपनिषत्
9. छागलेयोपनिषत्
10. तुरीयोपनिषत्
11. द्वयोपनिषत्
12. निरुक्तोपनिषत्
13. पिण्डोपनिषत्
14. प्रणवोपनिषत्
15. प्रणवोपनिषत्
16. वाष्कलमन्त्रोपनिषत्
17. वाष्कलमन्त्रोनिषत् (सवृत्तिका)
18. मठाम्नायोपनिषत्
19. विश्रामोपनिषत्
20. शौनकोपनिषत्
21. सूर्यतापिन्युपनिषत्
22. स्वसंवेद्योपनिषत्
23. ऊर्ध्वपुण्ड्रोपनिषत्
24. कात्यायनोपनिषत्
25. गोचन्दनोपनिषत्
26. तुलस्युपनिषत्
27. नारदोपनिषद्
28. नारायणपूर्वतापिनी
29. नारायणोत्तरतापिनी
30. नृसिंहषट्चक्रोपनिषत्
31. पारमात्मिकोपनिषत्
32. यज्ञोपवीतोपनिषत्
33. राधोपनिषत्
34. लाङ्गूलोपनिषत्
35. श्रीकृष्णपुरुषोत्तम-सिद्धांतोपनिषत्
36. संकर्षणोपनिषत्
37. सामरहसस्योपनिषत्
38. सुदर्शनोपनिषत्
39. नीलरुद्रोपनिषत्
40. पारायणोपनिषत्
41. बिल्वोपनिषत्
42. मृत्युलांगूलोपनिषत्
43. रुद्रोपनिषत्
44. लिंगोपनिषत्
45. वज्रपंजरोपनिषत्
46. बटुकोपनिषत्
47. शिवसंकल्पोपनिषत्
48. शिवसंकल्पोपनिषत्
49. शिवोपनिषत्
50. सदानंदोपनिषत्
51. सिद्धांतशिखोपनिषत्
52. सिद्धांतसारोपनिषत्
53. हेरम्बोपनिषत्
54. अल्लोपनिषत्
55. आथर्वणाद्वितीयोपनिषत्
56. कामराजकीलितोद्धारोपनिषत्
57. कालिकोपनिषत्
58. कालीमेधादीक्षितोपनिषत्
59. गायत्रीरहस्योपनिषत्
60. गायत्र्युपनिषत्
61. गुह्यकाल्युपनिषत्
62. गुह्यषोढान्योपनिषत्
63. पीताम्बरोपनिषत्
64. राजश्यामलारहस्योपनिषत्
65. वनदुर्गोपनिषत्
66. श्यामोपनिषत्
67. श्रीचक्रोपनिषत्
68. श्रीविद्यातारकोपनिषत्
69. षोढोपनिषत्
70. सुमुख्युपनिषत्
71 . हंसषोढोपनिषत्
पूर्वोल्लिखित 179 उपनिषदों के अतिरिक्त और भी अनेक उपनिषद हैं किंतु अभी तक अप्रकाशित हैं। उपलब्ध उपनिषदों की संख्या दो शत- तीन शतके मध्य में हैं। डॉ. डायसन ने स्वकल्पित विनिगमक द्वारा परीक्षा कर इन उपनिषदों का समय क्रम से चार विभाग किया है।
1. प्राचीन गद्य उपनिषद-
बृहदारण्यक
छान्दोग्य
ऐतरेय
कौषीतकि
तैत्तिरीय
केन
2. प्राचीन छंदोबद्ध उपनिषद
काठक अथवा कठ
ईश या ईशावास्य
श्वेताश्वर
महानारायण
3. पीछे के गद्य उपनिषद-
प्रश्न
मैत्रायणी (य) या मैत्री
माण्डूक्य
4. आथर्वण-उपनिषद
संन्यास उपनिषद
योग उपनिषद
सामान्य वेदांत उपनिषद
वैष्णव उपनिषद
शैव, शाक्त तथा अन्य छोटे उपनिषद
इस विभाग में प्रकृतोपयोगी बात यह है कि योगोपनिषद डॉ. डायसन के मतानुसार बिलकुल अर्वाचीन हैं। ये उपनिषद ऐसे हैं कि इनको देखते ही विद्वान समझ सकते हैं कि ये योग के सभी अंगों से भरे पड़े हैं। पीछे के योग विषयक ग्रंथ- हठयोगप्रदीपिका, गोरक्षपद्धति, शिवसंहिता आदि- इन्हीं उपनिषदों के आधार पर बने हुए हैं। इन योगोपनिषदों का संग्रह भी ए. महादेव शास्त्री द्वारा संपादित मद्रास (चेन्नई) की अड्यार लाइब्रेरी से निकला है। इसमें निम्नलिखित 20 उपनिषद, उपनिषद ब्रह्मयोगीकृत टीका सहित दिए हुए हैं।
1. अद्वयतारकोपनिषत् (शु.य.)
2. अमृतनादोपनिषत् (कृ.य.)
3. अमृतबिंदूपनिषत् (कृ.य.)
4. क्षुरिकोपनिषत् (कृ.य.)
5. तेजोबिंदूपनिषत् (कृ.य.)
6. त्रिशिखिब्राह्मणोपनिषत् (शु.य.)
7. दर्शनोपनिषत् (सा.वे.)
8. ध्यानबिंदूपनिषत् (कृ.य.)
9. नादबिंदूपनिषत् (ऋ.वे.)
10. पाशुपतपब्रह्मोपनिषत् (अ.वे.)
11. ब्रह्मविद्योपनिषत् (कृ.य.)
12. मण्डलब्राह्मणोपनिषत् (शु.य.)
13. महावाक्योपनिषत् (अ.वे.)
14. योगकुण्डल्युपनिषत् (कृ.य.)
15. योगचूड़ामण्युपनिषत् (सा.वे.)
16. योगतत्त्वोपनिषत् (कृ.य.)
17. योगशिखोपनिषत् (कृ.य.)
18. वराहोपनिषत् (कृ.य.)
19. शाण्डिल्योपनिषत् (अ.वे.)
20. हंसोपनिषत् (शु.य.)
अप्रकाशित उपनिषदों के संग्रह में योगराजोपनिषद भी एक है। इस तरह ये 21 उपनिषद योगोपनिषद कहे जाते हैं। नीचे हम प्रत्येक के प्रतिपादित विषय का उल्लेख संक्षेप से करते हैं-
1. अद्वयतारकोपनिषद- इसमें लक्ष्यत्रय के अनुसंधान द्वारा तारक योग का साधन कहा गया है।
2. अमृतनादोपनिषद- इसमें षडंगयोग का वर्णन है। ये षडंग प्रसिद्ध षडंग जरा भिन्न हैं। यहां के षडंग ये हैं-
प्रत्याहारस्तथा ध्यानं प्राणायामोऽथ धारणा।
तर्कश्चैव समाधिश्च षडंगो योग उच्यते।।
'प्रत्याहार, ध्यान, प्राणायाम, धारणा, तर्क और समाधि- यह षडंगयोग कहाता है।
- लेखक पं. श्री बटुकनाथजी शर्मा, एमए, साहित्याचार्य
- कल्याण के दसवें वर्ष का विशेषांक योगांक से साभार