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योगी आदित्यनाथ के संन्यासी बनने की कहानी, खुद उनकी जुबानी...

योगी आदित्यनाथ के संन्यासी बनने की कहानी, खुद उनकी जुबानी... - The story of Yogi Adityanath becoming a monk, in his own words
Chief Minister Yogi Adityanath: नौ साल पहले। तारीख थी, 14 सितंबर 2014। इसी दिन गोरक्ष पीठाधीश्वर ब्रह्मलीन महंत अवैद्यनाथ की जगह पीठ के तब के उत्तराधिकारी योगी आदित्यनाथ गोरखपुर स्थित पीठ के पीठाधीश्वर बने थे। तब मैं वहां के एक प्रमुख अखबार में रिपोर्टर था। इस रूप में मैं अब तक की उनकी इस यात्रा को जानने के लिए गोरखनाथ मंदिर पंहुचा। बेहद भावुक माहौल था। पहले ही सवाल के बाद लगा शायद बातचीत संभव नहीं। कुछ देर की खामोशी के बाद वह संयत हुए। फिर बातचीत का सिलसिला शुरू हुआ। पीठाधीश्वर के रूप में यह उनका पहला इंटरव्यू था। उसी के कुछ अंश जरूरी संशोधनों के साथ-
 
बकौल योगी (अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री) मैं विज्ञान का छात्र रहा हूं। 1990 में मैं गुरुदेव (महंत अवैद्यनाथ) के संपर्क में आया। मकसद था, योग और अध्यात्म के गूढ़ रहस्यों को जानना। राम मंदिर आंदोलन के दौरान उनके नेतृत्व में हुए कई धर्म सम्मेलनों में गया। मुझे उनकी उपस्थिति औरों से अलग दिखती थी। उनकी मौजूदगी ही सम्मेलन की सफलता का पैमाना होती थी। मुझे लगा कि नेतृत्व का स्वाभाविक गुण योग और अध्यात्म के बल पर ही संभव है, जो उनमें था। फिर तो उनसे मिलने कई बार दिल्ली गया। गोरखपुर भी आया। मैं संन्यासी नहीं बनना चाहता था, लेकिन गुरुदेव के सम्मोहन से इस रास्ते पर चल पड़ा। यही भगवान की भी मर्जी थी।
 
घर छोड़कर सन्यासी बनने का फैसला आपने कैसे और क्यों लिया?
छात्र जीवन में ही मैं राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ा था। सोचा था इसी से जुड़कर जीवन समाज की सेवा में लगाऊंगा। 1993 में मुरादाबाद के धर्मसम्मेलन में महराज (महंत अवैद्यनाथ) को दिल का दौरा पड़ा। वे एम्स (दिल्ली) ले जाए गए। सूचना पाकर मैं भी वहां पहुंचा। मिलने के बाद निकल रहा था तो फिर बुलाया। पूछा कैसे आए हो? मैंने कहा दर्शन करने। उन्होंने कहा कि मेरी हालत देख रहे हो, कल को कुछ हो गया तो लोग कहेंगे कि यह साधु खुद के मंदिर का बंदोबस्त नहीं कर सका और राम मंदिर के निर्माण की बात करता है।
 
मेरा कोई उत्तराधिकारी नहीं। तुमको तीन वर्षों से देख रहा हूं। मेरे शिष्य बन जाओ। मैंने कहा, मैं तो जिस दिन आपके संपर्क में आया, तभी से आपको गुरु मानता हूं। आप स्वस्थ होकर गोरखपुर पहुंचे वहीं मिलूंगा। यहां आया तो उनका पहला सवाल था, तुमने क्या सोचा? मैंने उन्हें बताया कि इसके लिए मुझे परिवार से पूछना होगा। इसके बाद उनका चेहरा देखकर मुझे लगा कि मेरी बातों से उन्हें दुख पहुंचा है। मैं घर लौट गया, पर चैन नहीं था। विजयदशमी के बाद नवंबर 1993 में बिना घर वालों को बताए मन में संन्यासी बनने का संकल्प लेकर यहां आ गया।
आपने उनके सानिध्य में क्या सीखा। क्या खूबी थी ब्रह्मलीन महंतजी की? 
देखिए योग और दर्शन संत परंपरा की अलग-अलग विधाएं हैं। पहला अंतर्मुखी और दूसरा बहिर्मुखी। दोनों पर उनका समान अधिकार था। वे साधना और योग के गूढ़तम रहस्यों से भी वाकिफ थे। भारतीय दर्शन, संस्कृति और परंपरा के कठिन से कठिन सवालों को बेहद सरलता व सहजता से समझा देते थे। ज्ञान और सामाजिक सरोकार से गहरा जुड़ाव उनकी खूबियां थीं। सामाजिक समरसता के लिए उन्होंने अनेक अनूठे कार्य किए। सामाजिक समरसता, शिक्षा और स्वास्थ्य आदि उनके प्रिय विषय थे।
 
आपकी प्राथमिकताएं क्या होंगी?
उनके सपने अब मेरे सपने हैं। पीठ की विचारधारा से कोई समझौता स्वीकार्य नहीं। जिनसे पीठ और पंथ के संबंध रहे हैं उनको प्रयासपूर्वक और प्रगाढ़ किया जाएगा।