महाकुंभ चाहे प्रयाग का हो, हरिद्वार का हो या फिर नासिक का या उज्जैन का। करोड़ों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं। साधुओं का मेला लगता है, श्रद्धालुओं का मेला लगता है, विचारों का मेला लगता है, समस्याओं का मेला लगता है और समाधान का भी। हर व्यक्ति कुंभ में नदी के तट पर स्नान कर यहां अमृत प्राप्त करना चाहता है। साधु-संन्यासियों के दर्शन कर धन्य हो जाना चाहता है। यहां आने वाले करोड़ों लोगों के मन में यह सवाल तो उठता ही है कि धर्म आखिर है क्या? आखिर महाकुंभ का आयोजन कब से हो रहा है, इसे महोत्सव का रूप क्यों दिया गया और आज उसकी क्या उपयोगिता है? इन सवालों का समाधान किया गोवर्धनपुरी पीठ के शंकराचार्य जगदगुरु स्वामी निश्चलानंद सरस्वती महाराज ने।
धर्म पर चर्चा करते हुए स्वामीजी ने कहा कि किसी भी व्यक्ति और वस्तु का अस्तित्व और उसकी उपयोगिता जिस पर निर्भर है, वही वेदादि शास्त्र सम्मत धर्म माना गया है। उन्होंने कहा कि पृथ्वी जब तक द्वंदयुक्त है तब तक धर्म का अस्तित्व और उसकी उपयोगिता सिद्ध है।
उन्होंने कहा कि मनुष्य में जब तक मानवोचित शील, देह, सेवाभाव, संयम आदि गुण विद्यमान हैं तभी तक वह मनुष्य कहलाने योग्य है। जिससे लोक और परलोक में उत्कर्ष हो और मन तथा मृत्यु की अनादि परंपरा का अत्यंत उच्छेद हो वही वेद, शास्त्र सम्मत यज्ञदान, तप आदि धर्म मान्य है।
इसलिए होता है कुंभ : सिंहस्थ के बारे में चर्चा के दौरान उन्होंने बताया कि जितना प्राचीन सूर्य ग्रहण और चंद्र ग्रहण है, उतनी ही प्राचीन कुंभ की प्रथा है। वेदादि शास्त्रों के ममर्ज्ञ, मनीषी, कुंभ के अवसर पर प्रयाग, हरिद्वार, उज्जैन और नासिक में निवास करते हैं। धार्मिक दृष्टि से संपादन करते हुए वे विचारक परस्पर सद्भावपूर्ण संवाद के माध्यम से देश, काल, परिस्थिति के अनुरूप दार्शनिक, वैज्ञानिक और व्यावहारिक धरातल पर राष्ट्र के हित में समाधान खोजते हैं और उसे उनके संपर्क में आने वाले लोगों को बताकर सबके हित का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
ऐसा हो कुंभ का माहौल : स्वामी ने कहा कि चार पांच किमी की परिधि में कुंभ में शांत वातावरण होना चाहिए। जैसा विद्यालयों और चिकित्सालयों के आसपास होता है। कुंभ क्षेत्र में निश्चित समय पर माइक का उपयोग होना चाहिए। पर ज्यादातर लोग घंटे कीर्तन आदि करना ही धर्म मानते हैं, यह धर्म नहीं धर्म का अंग है पर चार पांच किलोमीटर की परिधि के बाहर हो।
इस मौके पर अन्य देशों के राजदूत, राष्ट्राध्यक्षों को भी बुलाया जाए। देश-विदेश की सभी ज्वलंत समस्याओं को हमारे सामने रखें। उनके मस्तिष्क में इन समस्याओं का जो समाधान है, वो भी प्रस्तुत करें। फिर वेदादि शास्त्रों के आधार पर हम जो समाधान प्रस्तुत करेंगे वो दार्शनिक, वैज्ञानिक, व्यावहारिक धरातल पर अचूक होगा। तब ऋषियों ने कुंभ को महोत्सव का रूप दिया था, जो कि सफल भी हुआ। मगर अभी कोलाहल, शोरगुल, झमेला है, इससे विकृति आ रही है। स्वामी जी ने सरकार को यह सलाह दी थी, जिसे मानकर सरकार ने विचार महाकुंभ को रूप रेखा बनाई, हालांकि यह भी एक राजनीतिक पार्टी को पुष्ट करने का एक माध्यम बन गया।
कौन शंकराचार्य असली, कौन है नकली : उन्होंने कहा कि आदि शंकराचार्यजी ने जो संविधान बनाया उसमें उन्होंने स्वयं लिखा है कि चार मठ हैं, चार आचार्य हैं। इसका मतलब एक मठ, एक आचार्य उससे कम नहीं, उससे ज्यादा नहीं। एक मठ पर एक से ज्यादा आचार्य नहीं और एक मठ पर एक आचार्य अवश्य। द्वारका, ज्योतिर्मठ, पुरी, श्रृंगेरी के अतिरिक्त जो कोई शंकराचार्य के रूप में घूम रहे हैं या तो वे पागल हैं या अराजक हैं। यदि पागल हैं तो उनको चिकित्सा मिलनी चाहिए और यदि अराजक हैं तो सजा मिलनी चाहिए।
यदि यह बात प्रशासन द्वारा मीडिया के माध्यम से आम जनता तक पहुंचा दी जाए तो कोई भी नकली शंकराचार्य दिखाई नहीं देगा। अब बात उपपीठ की। मान लीजिए इलाहाबाद में हाईकोर्ट है और लखनऊ में खंडपीठ है। खंडपीठ को पता है कि हाईकोर्ट कौन है। अगर कोई शंकराचार्य अपने क्षेत्र में काम सुगमतापूवर्क करने के लिए उपपीठ की स्थापना करता है तो वे शंकराचार्य के रूप में नहीं उनके सहयोगी उपाचार्य के रूप में स्थापित होंगे।