डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को बलात्कार के मामले में पंचकूला की सीबीआई अदालत द्वारा दोषी ठहराए जाने के बाद बड़े पैमाने पर उपद्रव, आगजनी और हिंसा का जो नजारा देखने में आया, वह देश के लिए दुखद एवं त्रासद स्थिति है। आखिर कब तक तथाकथित बाबाओं की अंध-भक्ति और अंध-आस्था कहर बरपाती रहेगी और कब तक जनजीवन लहूलुहान होता रहेगा?
कब तक इन धर्म की विकृतियां से राष्ट्रीय अस्मिता घायल होती रहेगी? कब तक सरकारें इन बाबाओं के सामने नतमस्तक बनी रहेगी? कब तक कानून को ये बाबा लोग अंगूठा दिखाते रहेंगे? कब तक जनता सही-गलत का विवेक खोती रहेगी? ये ऐसे प्रश्न हैं जिनका समाधान खोजे बिना इन बाबाओं के खूनी, त्रासद एवं विडंबनापूर्ण अपराधों से मुक्ति नहीं पा सकेंगे।
विशेष सीबीआई अदालत ने शुक्रवार को डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम को रेप के मामले में दोषी करार दिया। उन पर 15 साल पहले अपने आश्रम की एक साध्वी से बलात्कार करने का आरोप है। इसके अलावा बाबा पर एक मुकदमा जान से मारने की धमकी देने का भी दर्ज किया गया था। इस खास मामले में फैसले से भी ज्यादा महत्वपूर्ण वह घटनाक्रम है, जो फैसला सुनाए जाने से पहले और बाद में देखने को मिला। जिस तरह की स्थितियां देखने को मिली हैं, वे निश्चित ही शर्मनाक एवं खौफनाक हैं।
ज्यों ही बाबा को दोषी करार दिए जाने की खबर आई, तोड़फोड़ और आगजनी शुरू हो गई जिसमें बड़े पैमाने पर जनहानि हुई है। सवाल यह है कि प्रशासन ने इतना बड़ा जमावड़ा होने ही क्यों दिया? क्या इसलिए कि खासकर हरियाणा का प्रशासन खुद भी बाबा के आभामंडल में जी रहा था और बाबा समर्थकों की नाराजगी से बचना चाहता था? इस मामले ने हमारे राजनीतिक नेतृत्व के नकारेपन एवं वोट की राजनीति को एक बार फिर उभारा है।
हमारे नेतागण किसी समुदाय विशेष का समर्थन हासिल करने के लिए उसका सहयोग लेते हैं और बदले में उसे अपना संरक्षण देते हैं। इसी के बूते ऐसे समुदायों के प्रमुख अपना प्रभाव बढ़ाते चले जाते हैं। प्रभाव ही नहीं, अपना पूरा साम्राज्य बनाते जाते हैं। बात चाहे रामपाल की हो, आसाराम बापू की हो या फिर राम रहीम की- ऐसे धर्मगुरुओं की एक बड़ी जमात हमारे देश में खड़ी है। धर्म के नाम पर इस देश में ऐसा सबकुछ हो रहा है, जो गैरकानूनी होने के साथ-साथ अमानवीय एवं अनैतिक भी है।
राम रहीम प्रकरण जहां कानून-व्यवस्था की भयानक दुर्गति और राज्य सरकार की घोर नाकामी आदि के अलावा भी अनेक सवालों पर सोचने को विवश करता है, वहीं यह धर्म या अध्यात्म का कौन-सा रूप विकसित हो रहा है जिसमें बेशुमार दौलत, तरह-तरह के धंधे, अपराध, प्रचार की चकाचौंध और सांगठनिक विस्तार का मेल दिखाई देता है। इसमें सब कुछ है, बस धर्म या अध्यात्म का चरित्र नहीं है।
इस तरह के धार्मिक समूह अपने अनुयायियों या समर्थकों और साधनों के सहारे चुनाव को भी प्रभावित कर सकने की डींग हांकते हैं और विडंबना यह है कि कुछ राजनीतिक उनके प्रभाव में आ भी जाते हैं। यह धर्म और राजनीति के घिनौने रूप का मेल है। फटाफट बेशुमार दौलत एवं सत्ता का सुख भोगने की लालसा एवं तमाम अपराध करते हुए उन पर पर्दा डालने की मंशा को लेकर आज अनेक लोग धर्म को विकृत एवं बदनाम कर रहे हैं। स्वार्थांध लोगों ने धर्म का कितना भयानक दुरुपयोग किया है, राम रहीम का प्रकरण इसका ज्वलंत उदाहरण है।
यह कैसी धार्मिकता है? यह कैसा समाज निर्मित हो रहा है जिसमें अपराधी महिमामंडित होते हैं और निर्दोष सजा एवं तिरस्कार पाते हैं? राष्ट्र में यह कैसा घिनौना नजारा निर्मित हुआ है। अपने ही डेरे की दो साध्वियों के यौन शोषण में पंचकूला की सीबीआई अदालत के फैसले की घड़ी करीब आने के 3-4 दिन पहले ही राम रहीम के समर्थक डेरा मुख्यालय सिरसा और साथ ही पंचकूला में जमा होने शुरू हो गए थे। अपराध का साथ देने, दोषी को बचाने की यह मुहिम संपूर्ण मानवता एवं धार्मिकता पर भी एक कलंक है।
ये कैसे धार्मिक लोग हैं, जो बाबा के यहां अपनी जवान लड़कियों को साध्वी बनने के लिए छोड़ जाते हैं। बाबा ऐसी लड़कियों का शोषण करता, नारी की अस्मिता से खेलता, अपनी गुफा में ले जाता था, वहां उसे माफी मिल जाती थी। यहां 'माफी' का खास अर्थ है। खुद को रॉकस्टार समझने वाले बाबा के डेरे में 'माफी' बलात्कार शब्द के लिए एक कोड वर्ड के रूप में उपयोग होता है। बाबा अपनी गुफा में जिन महिलाओं के साथ अश्लील हरकतें करता था, उसे बाबा की ओर से मिली ‘माफी’ कहा जाता था। जब भी किसी महिला या युवती को बाबा की गुफा में भेजा जाता था, तो बाबा के चेले उसे ‘बाबा की माफी’ बताते थे।
खास बात यह है कि बाबा की गुफा में सेवा के लिए केवल महिला सेवकों की तैनाती की जाती थी। बाबा की शिकार बनी महिलाओं ने पुलिस के सामने अपना दर्द बयां करते हुए बाबा की इन करतूतों का खुलासा किया है। 15 वर्ष पहले एक ऐसी ही साध्वी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी को एक खत लिखकर अपना दर्द बयां किया। बताया गया कि डेरा प्रमुख अपने आवास में महिलाओं के साथ रेप करता था। कई लड़कियां तो सिर्फ इस वजह से बाबा के डेरे में रहती थीं, क्योंकि उनके घरवाले बाबा के भक्त थे। यही कारण था कि वे डेरा नहीं छोड़ सकती हैं।
एक साध्वी ने बताया कि जब वे राम रहीम के आवास से बाहर आईं तो उनसे कई लोगों ने पूछा कि क्या तुम्हें बाबा की 'माफी' मिली? पहले उन्हें समझ नहीं आया, लेकिन बाद में पता लगा कि 'माफी' का मतलब क्या होता है। इससे अधिक धर्म का क्या विकृत स्वरूप होगा?
राम-रहीम प्रकरण धर्म एवं राजनीति के अनुचित घालमेल का घिनौना रूप है। धर्म जब अपनी मर्यादा से दूर हटकर राज्यसत्ता में घुल-मिल जाता है तब वह विष से भी अधिक घातक बन जाता है। यही घातकता हमने देखी है। हिंसा, आगजनी एवं रक्तपात ने न केवल हरियाणा और पंजाब बल्कि राजस्थान, दिल्ली और उत्तरप्रदेश में भी व्यापक तबाही मचाई है। राजनीति अपना प्रयोजन सिद्ध करने के लिए अक्सर धर्म की आड़ में हिंसा की सवारी करती रही है। इस बार भी ऐसा ही हुआ है।
यह मानने के अच्छे-भले कारण हैं कि राम रहीम और साथ ही उनके उग्र समर्थकों के प्रति हरियाणा सरकार द्वारा जान-बूझकर नरमी बरती गई। इस नरमी के कारण ही धारा 144 के बाद भी डेरा सच्चा सौदा के संचालक राम रहीम सैकड़ों गाड़ियों के काफिले के साथ नजर आए। इस आत्मघाती नरमी का एक मात्र कारण बाबा के समर्थकों में वोट बैंक नजर आना ही हो सकता है। कब तक वोट की राजनीति इन त्रासदियों को कारण बनती रहेगी। हरियाणा और पंजाब के साथ-साथ पड़ोसी राज्यों के सीमांत इलाकों में अराजकता की जैसी भीषण आग फैलाई गई और जिसके चलते दर्जनों लोग मारे गए उससे केवल विधि के शासन का उपहास ही नहीं उड़ रहा, बल्कि देश को भी शर्मिंदगी का सामना करना पड़ रहा है। इसके लिए जिम्मेदार लोगों को जवाबदेह बनाया ही जाना चाहिए।
यह सर्वथा उचित है कि पंजाब और हरियाणा हाईकोर्ट ने खुद को इंसां कहलाने वाले राम रहीम के उत्पाती समर्थकों के कारण हुई क्षति डेरा सच्चा सौदा से वसूलने के आदेश दिए। यह एक सूझबूझपूर्ण निर्णय है। अगर इसका सख्ती से पालन हुआ तो देश में राष्ट्रीय संपदा को क्षति पहुंचाने की तथाकथित आंदोलनकारी स्थितियों में ठहराव आएगा। यह भी जरूरी है कि पंजाब और हरियाणा की सरकारें किस्म-किस्म के डेरों का नियमन और साथ ही उनकी उचित निगरानी करें, न कि उनके समक्ष नतमस्तक होकर वोट बैंक बनाने की कोशिश करें।
यह देखा जाना भी समय की मांग है कि तथाकथित धर्मगुरु, धर्म का पाठ पढ़ाते हैं या फिर अपने समर्थकों की फौज को धर्मांध बनाते हैं? धर्म एवं धर्मगुरुओं में व्याप्त विकृतियों एवं विसंगतियों से राष्ट्र को मुक्ति दिलाना वक्त की सबसे बड़ी जरूरत है।