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Written By Author सुरेश एस डुग्गर
Last Updated : गुरुवार, 5 मार्च 2020 (19:13 IST)

LoC : दुआ के लिए उठते हाथ मांगते हैं पाक गोलाबारी से राहत की मांग

LOC Resident | एलओसी पर रहने वालों को लगता नहीं कि सीजफायर जारी है
जम्मू। एलओसी से सटे मनकोट की रुबीना कौसर की बदस्मिती यह थी कि पाक गोलाबारी से बचने की खातिर उसके घर के आसपास कोई बंकर नहीं था। नतीजतन उसके 2 बच्चे और वह खुद भी मौत की आगोश में इसलिए सो गई, क्योंकि पाक सेना ने रिहायशी बस्तियों को निशाना बना गोले बरसाए थे।
 
रुबीना की तरह 814 किमी लंबी भारत-पाकिस्तान को बांटने वाली एलओसी पर अभी भी ऐसे हजारों परिवार हैं, जो उन सरकारी 14 हजार से अधिक बंकरों के बनने की प्रतीक्षा कर रहे हैं जिनके प्रति घोषणाएं-दर-घोषणाएं अभी भी रुकी नहीं हैं।
 
लाइन ऑफ कंट्रोल पर पाक गोलाबारी से जीना मुहाल हुआ है जिन लोगों का, उनके लिए स्थिति यह है कि खुदा की बंदगी में जब दुआ के लिए हाथ उठते हैं तो वे सुख-चैन या अपने लिए व्यक्तिगत रूप से कुछ नहीं मांगते। अगर वे कुछ मांगते भी हैं तो उस पाक गोलाबारी से राहत ही मांगते हैं जिसने इतने सालों से उनकी नींदें खराब कर रखी हैं और उन्हें घरों से बेघर कर दिया है।
 
1971 के भारत-पाक युद्ध के बाद से सुख-चैन के दिन काटने वाले कश्मीर सीमा के लाखों नागरिकों के लिए स्थिति अब यह है कि न उन्हें दिन का पता है और न ही रात की खबर है। कब पाक तोपें आग उगलने लगेंगी, कोई नहीं जानता।
 
जिंदगी थम-सी गई है उनके लिए। सभी प्रकार के विकास कार्य रुक गए हैं। बच्चों का जीवन नष्ट होने लगा है, क्योंकि जिस दिनचर्या में पढ़ाई-लिखाई कामकाज शामिल था, अब वह बदल गई है और उसमें शामिल हो गया है पाक गोलाबारी से बचाव का कार्य।
 
इतना ही नहीं, 5 वक्त की नमाज अदा करने वालों की दुआएं भी बदल गई हैं। पहले जहां वे अपनी दुआओं में खुदा से कुछ मांगा करते थे, सुख-चैन और अपनी तरक्की मगर अब इन दुआओं में मांगा जा रहा है कि पाक गोलाबारी से राहत दे दी जाए, जो बिना किसी उकसावे के तो है ही, बिना घोषणा के कश्मीर सीमा पर युद्ध की परिस्थितियां बनाए हुए हैं।
 
इन सीमावर्ती गांवों की स्थिति यह है कि जहां कभी दिन में लोग कामकाज में लिप्त रहते थे और रात को चैन की नींद सोते थे अब वहीं दिन में पेट भरने के लिए अनाज की तलाश होती है तो रातभर आसमान ताका जाता है। आसमान में वे उन चमकने वाले गोलों की तलाश करते हैं, जो पाक सेना तोप के गोले दागने से पूर्व इसलिए छोड़ती है, क्योंकि वह निशानों को स्पष्ट देख लेना चाहती है।
 
ऐसा भी नहीं है कि 814 किमी लंबी कश्मीर सीमा से सटे क्षेत्रों में रहने वाले सीमावासी अपने घरों में रह रहे हों। वे जितना पाक गोलाबारी से घबराकर खुले आसमान के नीचे मौत का शिकार होने को मजबूर हैं, उतनी ही परेशानी उन्हें भारतीय पक्ष की जवाबी कार्रवाई से है। भारतीय पक्ष की जवाबी कार्रवाई से उन्हें परेशानी यह है कि जब वे बोफोर्स जैसी तोपों का इस्तेमाल करते हैं तो उनके मकानों में दरारें पड़ जाती हैं, जो कभी-कभी खतरनाक भी साबित होती हैं।
 
स्थिति यह है कि ये हजारों लोग न घर के हैं और न ही घाट के। पाक तोपों के भय के कारण वे घरों में नहीं जा पाते तो भयानक सर्दी उन्हें मजबूर कर रही है कि वे खतरा बन चुके घरों में लौट जाएं। आगे कुआं और पीछे खाई वाली स्थिति बन गई है इन लोगों के लिए, जो खुदा से पाक गोलाबारी से राहत की दुआ और भीख तो मांग रहे हैं, मगर वह उन्हें मिल नहीं पा रही है।
 
हालांकि सेना ने अपनी ओर से कुछ राहत पहुंचानी आरंभ की है इन हजारों लोगों को। लेकिन उसकी भी कुछ सीमाएं हैं। वह पहले से ही तिहरे मोर्चे पर जूझ रही है जिस कारण इनकी ओर पूरा ध्यान नहीं दे पा रही है। उसके लिए मजबूरी यह है कि उसे भी सीमा पर अघोषित युद्ध से निपटना पड़ रहा है जिसका जवाब वह युद्ध के समान नहीं दे सकती है।
 
फिर भी जो जवाब वह पाक सेना को दे रही है, उसका परिणाम उन पाक नागरिकों को भुगतना पड़ रहा है, जो सीमा से सटे क्षेत्रों में रहते हैं और इसके लिए भारतीय सेना अपने आपको नहीं बल्कि पाक सेना को ही दोषी ठहराती है जिसके कारण एलओसी पर ऐसी परिस्थितियां पैदा हुई हैं।
 
यह भी सच है कि पिछले करीब 3 सालों से 14,460 के करीब व्यक्तिगत तथा कम्युनिटी बंकरों को बनाने की प्रक्रिया कछुआ चाल से चल रही है। यह कितनी धीमी है इसका अंदाजा इसी से लगा सकते हैं कि इस अवधि में 102 बंकर ही राजौरी तथा पुंछ में तैयार हुए और तकरीबन 800 इंटरनेशनल बॉर्डर के इलाकों में।
 
यह संख्या ऊंट के मुंह में जीरे के समान है, क्योंकि 1 बंकर में 10 से अधिक लोग एकसाथ नहीं आ सकते। हालांकि एलओसी के इलाकों में रहने वालों ने अपने खर्चों पर कुछ बंकरों का निर्माण किया है, पर वे इतने मजबूत नहीं कहे जा सकते और इंटरनेशनल बॉर्डर के इलाके में बनाए जाने वाले आधे से अधिक बंकरों में अक्सर बारिश का पानी घुस जाता है।
 
अभी भी यही हुआ। पुलवामा हमले के बदले की खातिर सर्जिकल स्ट्राइक 2.0 हुई तो लोगों को 2 दिन बंकरों से पानी निकालने में लग गए। 'साहब बम तो जान लेगा ही, बंकर में घुसा हुआ पानी और उसमें अक्सर रेंगने वाले सांप-बिच्छू सबसे पहले जान ले लेंगे', पुंछ के झल्लास का रहने वाला आशिक हुसैन कहता था।
 
कुछ प्रशासनिक अधिकारियों का मानना था कि बंकरों को बनाने का काम बहुत ही धीमा है। कारण बताने में वे अपने आपको असमर्थ बताते थे। जबकि जिन बंकरों में बारिश का पानी अक्सर घुसकर जान के लिए खतरा पैदा करता है उसके लिए जांच बैठाई गई तो साथ ही यह फैसला हुआ था कि अब आगे का निर्माण रक्षा समिति के अंतर्गत होगा।
 
एलओसी के उड़ी इलाके को ही लें, पुराने बंकर वर्ष 2005 के भूकंप में नेस्तनाबूद हो गए थे, पर सरकार अभी भी नए बनाने को राजी नहीं है। जबकि इसे भूला नहीं जा सकता कि राजौरी व पुंछ की ही तरह उड़ी अक्सर पाक गोलाबारी के कारण सुर्खियों में रहता है।
 
एलओसी पर रहने वालों का आरोप था कि इन बंकरों की आवश्यकता इंटरनेशनल बॉर्डर से अधिक एलओसी के इलाकों में है। उनकी बात में दम भी है, क्योंकि अगर इंटरनेशनल बॉर्डर पर साल में औसतन 50 दिन गोलाबारी होती है तो एलओसी पर सीजफायर के बावजूद गोलाबारी का औसतन प्रतिदिन 3 से 4 रहा है, पर उनकी सुनने वाला कोई नहीं है।
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