इमरोज साहित्य में ओवररेटेड रहे, क्योंकि साहित्य में उनका कोई अवदान कहीं बहुत ज्यादा नजर आता नहीं। शायद इसके पीछे यह वजह रही हो कि उन्होंने खुद को पूरी तरह से अमृता की यादों में सरेंडर कर दिया था। इमरोज का जिक्र तभी आता है, जब अमृता प्रीमत और उनके साहित्य की बात चलती है। चाहते और न चाहते हुए भी इमरोज अमृता के किस्सों में छलक आते हैं।
वे अमृता और साहिर लुधियानवी के प्रेम में एक त्रिकोण की भूमिका में रहे। गहरे प्रेम में डूबे दो लोगों के बीच इमरोज एक
तीसरे आदमी की तरह उम्रभर अमृता का इंतजार करते रहे।
ए मैन इन अ क्यू... अपनी इस प्रतीक्षा में इमरोज चाहते तो बहुत कुछ लिख सकते हैं, लेकिन वे अमृता के प्रेम से खुद को दूर खड़ा नहीं कर सके। शायद यह वो अवस्था थी जिसमें उनका
सेल्फ, उनकी इन्डिविजुलिटी भी कहीं खो सी गई। प्यार में वे खुद को मिटा देने की स्थिति में थे शायद। यह एक तरह से रूहानी या आलौकिक प्रेम की अवस्था थी।
जिसे कबीर की इस बात से कुछ थोड़ा और बेहतर तरीके से समझा जा सकता है—
प्रेम गली अति सांकरी जा में दो न समाए. शायद इमरोज के ख्याल में इमरोज और अमृता एक ही हो गए हों, दो नहीं बचे हों।
मुझे तुम्हारे साथ रहना है : एक किस्सा काफी मशहूर है जिसका जिक्र यहां बनता है। एक बार इमरोज ने इच्छा जाहिर की थी कि वे अमृता के साथ रहना चाहते हैं— इस पर अमृता ने इमरोज़ से कहा था कि पूरी
दुनिया घूमकर आओ फिर भी तुम्हें लगे कि तुम्हें मेरे साथ रहना है तो मैं यहीं तुम्हारा इंतज़ार करती मिलूंगी। इस बात पर इमरोज़ ने अपने कमरे के सात चक्कर लगाने के बाद कहा कि लो घूम लिया पूरी दुनिया, मुझे अभी भी तुम्हारे ही साथ रहना है।
एक किस्सा जो सोशल मीडिया का मजाक बना : अमृता और इमरोज़ का एक किस्सा ऐसा भी है जो आज के नए दौर में कई बार सोशल मीडिया का मजाक या मीम्स बनता रहा है। दरअसल, इमरोज जब भी अमृता को स्कूटर पर ले जाते तो अमृता अक्सर पीछे बैठी बैठी उंगलियों से इमरोज की पीठ पर कुछ लिखती रहती थीं। इमरोज़ भी इस बात से अच्छे से वाक़िफ़ थे कि उनकी पीठ पर वो जो शब्द लिख रहीं हैं वो साहिर हैं।
इमरोज का साहित्य अमृता : इमरोज के साहित्य में भी अमृता ही प्रवेश कर गई थी, जिससे वे मुक्त न हो सके। साल 2008 में इमरोज की एक किताब प्रकाशित हुई- जिसका शीर्षक था-
'अमृता के लिए नज्म जारी है'। यह किताब भी पूरी तरह से अमृता पर लिखी गई थी। 2005 में अमृता प्रीतम के निधन के बाद इमरोज ने पूरी तरह खुद को समेट लिया। अमृता और इमरोज करीब 40 सालों तक साथ रह चुके थे। हालांकि अपने इस रिश्ते को उन्होंने कोई नाम नहीं दिया था। बावजूद इसके चित्रकार इमरोज का अमृता के प्रति प्यार साहित्य के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गया।
इमरोज़ का मुंबई में शुक्रवार को निधन हो गया। वह 97 साल के थे। 26 जनवरी 1926 को अ-विभाजित भारत के लाहौर से 100 किलोमीटर दूर एक गांव चक नंबर 36, लायलपुर (फैसलाबाद) में जन्मे इमरोज पिछले कुछ समय से उम्र संबंधी बीमारियों का सामना कर रहे थे और एक महीने पहले भी उन्हें अस्पताल में भर्ती कराया गया था।
इमरोज़ का असल नाम इंद्रजीत सिंह था। सबसे ज्यादा वे मशहूर लेखिका अमृता प्रीतम के साथ अपने संबंधों को लेकर ही सुर्खियों में बने रहे। अपने रिश्ते को नाम दिए बगैर दोनों करीब चालीस साल तक एक दूसरे के साथ रहे।
अमृता और उनके पति प्रीतम : अमृता प्रीतम के निधन के बाद इमरोज अपनी पुत्रवधू अल्का क्वात्रा के साथ मुंबई में रह रहे थे। जिस अल्का के साथ इमरोज अभी रह रहे थे, वो अमृता प्रीतम और उनके दिवंगत पति प्रीतम सिंह के बेटे नवराज की पत्नी हैं। बता दें कि नवराज का भी निधन हो चुका है। साहिर लुधयानवी से उनके रिश्तों के पहले ही करीब 15 साल की उम्र में अमृता की शादी प्रीतम सिंह से हो गई थी।
अमृता और इमरोज़ के जीवन को करीब से देखने वाली साहित्य संपादक निशा निशांत ने बताया कि अमृता के जीवन में इमरोज़ के आने के बाद, प्रीतम जो कि खुद पंजाबी साहित्य के एक नामी हस्ताक्षर थे, अमृता की जिंदगी से अलग हो गए, लेकिन दोनों के बीच दोस्ताना संबंध हमेशा बने रहे।
दिलचस्प है कि अलगाव के बावजूद अमृता और उनके पति प्रीतम के बीच के रिश्तों में सहजता इस कदर थी कि आखिर तक उन्होंने अपने नाम के साथ साथ प्रीतम का नाम जोड़े रखा। बावजूद इसके कि वे बाद में साहिर के साथ भी रिश्तों में आईं और लंबे वक्त तक इमरोज के साथ भी रहीं।
अमृता को कैसे मिले इमरोज : कहा जाता है कि अमृता को अपनी पत्रिका 'नागमनी' के कवर डिजाइन के लिए एक कलाकार की तलाश थी और इसी तलाश के दौरान उनकी चित्रकार इमरोज़ से मुलाकात हुई थी। अमृता और इमरोज़ ने मिलकर 37 वर्षों तक इस पत्रिका का संपादन किया। इस पत्रिका ने गुरदयाल सिंह, शिव कुमार बटालवी और अमितोज जैसे लेखकों को प्रोत्साहित किया।
दोनों 40 साल तक एक-दूसरे के साथ रहे, लेकिन अपने रिश्ते पर किसी नाम की तख्ती टांगने की कोशिश नहीं की। अमृता के लिए इमरोज़, जीत थे और वह उन्हें प्यार से इसी नाम से बुलाती थीं। अंतिम दिनों में जब अमृता बीमारी से जूझ रही थीं तो इमरोज़ कई-कई दिनों तक उनके बिस्तर के पास से हिलते नहीं थे।
अमृता प्रीतम ने अपनी आत्मकथा
'रसीदी टिकट' में साहिर लुधियानवी के अलावा अपने और इमरोज़ के बीच के आत्मिक रिश्तों पर बहुत डूबकर लिखा है।
31 अक्टूबर 2005 को अमृता प्रीतम इस संसार से चली गईं और इमरोज़ खुद को पूरी दुनिया से काट कर केवल अमृता की यादों में डूब गए। जब अमृता बीमार थीं, तब उन्होंने ये कविता इमरोज के लिए लिखी थी।
मैं तैनू फ़िर मिलांगी कित्थे? किस तरह पता नई शायद तेरे ताखियल दी चिंगारी बण के तेरे केनवास ते उतरांगी।