एक तरफ राजनीति की रपटीली राह तो दूसरी तरफ साहित्य का सहज पथ, दोनों पर एक साथ संतुलन साधना सबके लिए संभव नहीं। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी अपने नाम रूप अनुरूप ही अटल व्यक्तित्व के धनी रहे। काजल की कोठरी कहे जाने वाली राजनीति की राह को ऐसा साधा कि लोकतांत्रिक व्यवस्था के सर्वोच्च पद पर ना सिर्फ पहुंचे, बल्कि व्यक्तित्व को बिल्कुल अछूता बनाए रख सके।
राजनीति में सत्ता पक्ष से विपक्ष कम ही मुद्दों पर सहमत हो पाता है। कई बार आरोप-प्रत्यारोप के दौर निजी स्तर तक पहुंच जाते हैं। लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी का व्यक्तित्व इस संदर्भ में अलग था। राजनीति की दुनिया में तकरीबन वे अजातशत्रु रहे।
विपक्ष में रहते हुए कई मौकों पर उन्होंने सरकार की आलोचना की, लेकिन व्यक्तिगत जिंदगी में कभी कटुता नहीं आने दी। सत्ता में आने के बाद भी उन्होंने खुद भी यह परंपरा बनाए रखी। निजी रिश्तों पर कभी राजनीतिक विरोध को हावी नहीं होने दिया। उनके न रहने पर आज सबकी आंखों में आंसू हैं तो इसकी बड़ी वजह यही है।
25 दिसंबर 1924 को ग्वालियर में एक सामान्य परिवार में जन्मे अटल बिहारी वाजपेयी की भारतीय लोकतंत्र में गहरी आस्था रही। प्रधानमंत्री के तौर पर लालकिले की प्राचीर से राष्ट्र के नाम अपने पहले संबोधन में उन्होंने इस लोकतंत्र का गुणगान करते हुए कहा था, कि भारतीय लोकतंत्र की यह ताकत ही है कि एक गरीब स्कूल मास्टर का बेटा लालकिले की प्राचीर से आपको संबोधित कर रहा है।
अटल बिहारी वाजपेयी की प्रारंभिक शिक्षा ग्वालियर में हुई। इसके बाद उन्होंने कानपुर में वकालत की पढ़ाई की। वाजपेयी जी जिंदगी में वकील और पत्रकार बनना चाहते थे, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था। 1951 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने जब भारतीय जनसंघ का गठन किया तो अटल बिहारी वाजपेयी उसमें शामिल हो गए। तब उन्होंने श्यामा प्रसाद मुखर्जी के सहायक का दायित्व संभाला था।
अटल जी को कविता लिखने का शौक किशोरावस्था से ही लग गया था। उन्होंने सबसे पहली कविता ताजमहल पर लिखी थी। बच्चों की एक पत्रिका को 1985 में दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया था कि वे पत्रकार बनना चाहते थे, लेकिन कश्मीर के जेल में 23 जून 1953 को हुई श्यामा प्रसाद मुखर्जी की मृत्यु ने उन्हें झकझोर डाला और राजनीति की राह को चुन लिया।
अटल बिहारी वाजपेयी ने 1957 के दूसरे आम चुनाव में भारतीय जनसंघ के टिकट पर मथुरा, लखनऊ और बलरामपुर सीट से मैदान में उतारा था। इस चुनाव में उन्हें जहां बलरामपुर सीट से जीत मिली, वहीं बाकी दोनों जगहों से उनकी जमानत जब्त हो गई। वाजपेयी जी बाद में नई दिल्ली, लखनऊ, विदिशा, ग्वालियर और गांधीनगर से भी सांसद रहे। 1979 में जनता पार्टी की टूट के बाद वाजपेयी ने लालकृष्ण आडवाणी और दूसरे नेताओं के साथ मिलकर 6 अप्रैल 1980 को मुंबई में भारतीय जनता पार्टी का गठन किया।
बहरहाल इस जीत के बाद संसद पहुंचने के बाद उनकी भाषणकला की संसद मुरीद हो गई। कहा जाता है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू भी उनके भाषण के मुरीद थे। उन्होंने अटल जी का एक विदेशी राजनयिक से परिचय कराते हुए कहा था कि यह युवक एक दिन प्रधानमंत्री जरूर बनेगा।
भारतीय राजनीति के शिखर पुरूष अटल बिहारी वाजपेयी पहली बार 1977 में केंद्र में बनी जनता पार्टी की सरकार में विदेश मंत्री बने। विदेश मंत्री रहते उन्होंने इसी साल पहली बार संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा को हिंदी में संबोधित किया था। अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया था कि संयुक्त राष्ट्रसंघ में 4 अक्टूबर 1977 को हिंदी में दिया उनका भाषण उनके जीवन के गर्वोन्नत क्षणों में से एक था। आपातकाल के बाद हुए आम चुनावों में भारतीय जनसंघ का जनता पार्टी में विलय हो गया था।
वाजपेयी नौ बार लोकसभा और दो बार राज्यसभा के सांसद रहे। उन्हें आपातकाल में बंगलुरू से गिरफ्तार किया गया था। अपनी भाषण कला से सबका दिल जीत लेने वाले अटल जी पहली बार 16 मई 1996 को प्रधानमंत्री बने, लेकिन बहुमत ना साबित कर पाने के चलते उनकी यह सरकार सिर्फ तेरह दिन तक ही चल सकी।
इसके बाद 1998 में हुए आम चुनाव में उनकी अगुआई में गठित राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को बहुमत मिला और वाजपेयी दोबारा प्रधानमंत्री बने। 1999 में अन्नाद्रमुक की समर्थन वापसी के बाद उनकी सरकार एक वोट से गिर गई। उसके बाद हुए आम चुनावों में एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी की अगुआई वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को जीत मिली। इस जीत के बाद वाजपेयी तीसरी बार प्रधानमंत्री बने।
पंडित जवाहर लाल नेहरू के बाद वाजपेयी दूसरे प्रधानमंत्री रहे, जिन्होंने लगातार तीन लोकसभाओं में प्रधानमंत्री पद का दायित्व संभाला। साल 2004 के आम चुनावों में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की हार के बाद वाजपेयी ने एक बार फिर विपक्षी सांसद की भूमिका संभाली। लेकिन 2007 आते-आते उनका स्वास्थ्य जवाब दे गया। उसके बाद से सार्वजनिक जगहों पर उनकी मौजूदगी खत्म हो गई।
जिस वाजपेयी को देश सुनता था, उस वाजपेयी की आवाज सुनने के लिए देश तरस गया था। इसी साल जून में उन्हें एम्स में भर्ती कराया गया था। जहां उन्होंने .....तारीख को आखिरी सांस ली।
वाजपेयी जी कवि हृदय राजनेता थे। उन्होंने अपनी कविताओं से भी लोगों का भरपूर दिल जीता। वाजपेयी के न रहने के बाद उनकी एक कविता बार-बार याद आ रही है,
प्राण-पण से करेंगे प्रतिकार
समर्पण की माँग अस्वीकार
दाँव पर सब कुछ लगा है, रुक नहीं सकते
टूट सकते हैं मगर हम झुक नहीं सकते
मृत्यु के बारे में उन्होंने एक कविता लिखी थी। मृत्यु अटल है, अब जबकि वे इस संसार में नहीं है, लगता है, जैसे उन्होंने आज ही के दिन के लिए यह रचा था,
जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।
मौत की उमर क्या है? दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी सिलसिला, आज कल की नहीं।