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Last Modified: शुक्रवार, 18 दिसंबर 2020 (15:56 IST)

क्या वाकई किसान विरोधी हैं नए कृषि कानून..?

क्या वाकई किसान विरोधी हैं नए कृषि कानून..? - Are new agricultural laws really anti-farmer ..?
-शाम्भवी सिंह
मोदी सरकार के नए तीन कृषि कानून, किसानों को रास नही आ रहे, खासतौर पर पंजाब के किसानों को। इन में से एक कानून है कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का। सरकार कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग को किसानों की किस्मत बदलने वाला बता रही है। दूसरी ओर, विपक्ष की कई पार्टियां और कुछ किसान संगठनों का कहना है कि इस कृषि कानून से खेती पर कॉरपोरेट हावी हो जाएंगे, किसान मजदूर बनकर रह जाएंगे।

दरअसल, भारत में पिछले 30 वर्षों से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग जारी है और लाखों हेक्टेयर में खेती की जा रही है। गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण भारत में बड़े पैमाने पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग होती है। पंजाब में भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कई वर्षों से जारी है, जहां का किसान सबसे ज्यादा आंदोलित लगता हैं। पंजाब ने तो 2013 में राज्य स्तर पर कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का क़ानून भी बनाया था।
पेप्सी कोला बनाने वाली पेप्सिको उन पहली कंपनियों में से थी जिसने सबसे पहले पंजाब में कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में हाथ आजमाए। कंपनी आज भी वहां कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर रही है। पंजाब में पेप्सिको अकेली कंपनी नहीं जो कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में जुटी है, इसके अलावा एलटी फूड, EBRO फूड और सन स्टार ओवरसीज जैसी अनेकों कंपनियां वहां ठेके पर खेती करवा रही हैं।

ITC, पतंजलि, डाबर, गोदरेज एग्रोवेट आदि कंपनियां भी कॉन्ट्रैक्ट फॉर्मिंग से जुड़ी हैं। आंदोलनकारियों का कहना है कि नए कानूनों से खेती पर भी अंबानी समूह का कब्जा हो जाएगा, लेकिन रिलायंस का दावा है कि ग्रुप की कोई भी कंपनी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग नहीं कर रही है।

आज बहुत से संभावनाओं पर आधारित मुद्दों के साथ किसान कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का भी विरोध कर रहे हैं। बताया जा रहा है कि इन विरोध करने वालों में वे लोग भी शामिल हैं, जिन्होंने कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग का खूब फायदा उठाया है। पिछले 30 सालों में एक भी किसान ने अपनी जमीन किसी कॉरपोरेट के हाथों गंवाई हो इसके भी कोई सबूत सामने नहीं आए हैं। खासतौर पर पंजाब में जो किसान ठेके पर खेती कर रहे हैं उनकी इनकम बाकी किसानों से अधिक है साथ ही जोखिम भी कम है।
कुदरत के रहम पर निर्भर भारत में किसान दो प्रकार के जोखिम उठाते हैं, एक मार्केट रिस्क दूसरा प्रोटेक्शन रिस्क। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत कंपनियां काफी हद तक ये रिस्क अपने सिर ले लेती हैं। किसानों को इस बात की चिंता नहीं रहती है, उनका माल किस रेट पर किस मार्केट में बिकेगा। यह सब पहले ही तय हो जाता है।

कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के तहत यह स्पष्ट होता है कि किसी भी सूरतेहाल में कंपनी, किसान की जमीन की न तो खरीद-बिक्री कर सकती है और न ही गिरवी रख सकती है। अतः इस लिहाज से किसानों के हित यहां पर संरक्षित है। अतः जो लोग कह रहे हैं कि कॉरपोरेट किसानों की जमीनें हथिया लेंगे, वह बस लोगों को बरगला रहे हैं, इसके अलावा कुछ भी नहीं है।

नए कृषि कानूनों में किसानो के सुझावों को शामिल करने या कानूनों की धाराओं में संशोधन की बात भी सरकार मान चुकी है। कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के फायदों के बीच सबसे बड़ी चुनौती इसके समान बंटवारे की है। बड़े किसानों की तरह छोटे किसानों को भी कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के दायरे में लाना होगा। सरकार को छोटे किसानों को कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से जोड़ने के तरीके निकालने होंगे। ताकि बड़े किसानों की तरह ठेके पर खेती कर छोटा किसान भी अपने जोखिम कंपनियों को शिफ्ट कर सके।
हालांकि सरकार संशोधन की बात मान चुकी है, लेकिन फिर भी यदि किसानों की कुछ आशंकाएं हैं तो सरकार की जिम्मेदारी बनती है कि वह उन्हें दूर करे। यदि वे कानून में संशोधन चाहते हैं या फिर वे लिखित गारंटी चाहते हैं तो निश्चित ही उनकी मांग पूरी होनी चाहिए।
 
दूसरी ओर किसानों को भी इस बात पर विचार करना चाहिए कि सिर्फ संभावनाओं या आशंकाओं के आधार अभी से विरोध का झंडा उठाना कहां तक उचित है। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव की उदारीकरण की नीति का भी उस समय काफी विरोध हुआ था, लेकिन उसका देश को कितना फायदा हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। (यह लेखिका के अपने विचार है, वेबदुनिया का इससे सहमत होना जरूरी नहीं है।)
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