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Last Modified: मंगलवार, 16 नवंबर 2021 (00:30 IST)

विदेशी आकर्षण के चक्कर में फंसी चिंताजनक शिक्षा व्यवस्था

विदेशी आकर्षण के चक्कर में फंसी चिंताजनक शिक्षा व्यवस्था - Worrying education system caught in the circle of foreign attraction
हवाला देना हज़ार फ़ीसदी सही है कि शिक्षा के मामले में भारत कभी विश्व गुरु हुआ करता था। दुनिया के पहले आठ नंबर के शिक्षा केन्द्र भारत में ही हुआ करते थे। पुष्पगिरि, जो ओडिशा राज्य में स्थित है,उसे विश्व का प्राचीनतम शिक्षा केन्द्र माना जाता रहा। तक्षशिला विश्वविद्यालय तो पाकिस्तान में चला गया, लेकिन नालंदा को मिलाकर सात विश्वविद्यालय भारत में ही स्थित थे। उस वक्त पूरा दक्षिण एशिया भारत ही हुआ करता था।

चीन के लोग तक नालंदा में न सिर्फ़ पढ़े, बल्कि कुछ सालों तक इसमें पढ़ाया भी। अब तो बच्चे चीन तक जाने की ख्वाहिश रखते हैं। यूजीसी का ताजा आंकड़ा कहता है कि इस समय लगभग 10 लाख छात्र विदेशों में पढ़ रहे हैं, जबकि भारत आने वाले छात्रों की संख्त 50 हजार से ज्यादा नहीं है। इस पूरे परिदृश्य को बदलने की राजनीतिक,सामाजिक,आर्थिक स्तर पर ईमानदार कोशिश नहीं की गई,तो शिक्षा से जुड़ी रोजगार,गरीबी, भुखमरी,कुपोषण,सामाजिक अपराध की समस्याओं को जड़ों से उखाड़कर फेंका नहीं जा सकेगा।

संविधान निर्माता डॉ. भीमराव आंबेडकर ने बात तो कड़वी कही थी,लेकिन वे यहां तक कहने को मजबूर हो गए थे कि एक अशिक्षित समाज नारकीय जीवन जीने को अभिशप्त होता है।इसमें स्त्री शिक्षा का भी बराबरी का हिस्सा होना चाहिए।फ्रांस,और सिंगापुर में तो शिक्षा मंत्री का दर्ज़ा राजनीतिक रूप से दूसरा होता है।अंग्रेजी के बहु संस्करणीय दैनिक इंडियन एक्सप्रेस के अक्टूबर 21 के अंक में छपे एक लेख में कहा गया है कि चालू वर्ष के अकेले अगस्त माह में देश के विदेशी मुद्रा भंडार से 1.8 खरब डॉलर की राशि विदेशों में चली गई,जिसमें से बड़ा हिस्सा तो बच्चों की फीस के रूप में अमेरिका,ऑस्ट्रेलिया,ब्रिटेन,कतर, संयुक्त अरब अमीरात,यहां तक कि चीन में चला गया।

इस दुःखद और चिंतनीय परिदृश्य के लिए किसी एक वर्ग विशेष को दोषी ठहराना उचित नहीं होगा। सबसे बड़ा दोष कदाचित समाज का है। जैसा समाज होता है,वैसी ही राजनीति भी हो जाती है। कोविड-19 की महाबला को छोड़ दें तो मध्यम वर्ग की आय में इधर खासा इज़ाफ़ा हुआ है।इसी कारण जीवनशैली भी बदली। बच्चों को पढ़ाई के लिए बाहरी देश भेजना सोशल स्टेटस,सोशल सिंबल या फैशन ऑइकन बन गया।

आस पड़ोस और रिश्तेदारों की देखादेखी कमोबेश प्रत्येक माता-पिता विदेश में पढ़ाई के बाद बड़े पैकेज और तमाम आधुनिक सुख-सुविधाओं के सपने देखने लगे। बात यहां जा पहुंची कि या तो पुश्तैनी ज़मीन-जायदाद बेची जाने लगी या बैंक से कर्ज़ उठाया जाने लगा। बच्चे भी विदेश में पढ़ने की ज़िद में ऐसी वैसी धमकियां तक देने लगे। वैसे आजकल के बच्चे उम्र से पहले समझदार होने लगे हैं।

ये लोग बेसाख्ता ताना देते हैं कि भारत में न अच्छे शिक्षा केन्द्र हैं,न आधुनिक पाठ्यक्रम है,न नए पुस्तकालय हैं,न स्टडी रूम हैं,न किताबों के आधुनिक संस्करण,न प्रयोगशालाएं,न कम्प्यूटर, न इतर आधुनिक तकनीकी सुविधाएं हैं।जेएनयू,बीएचयू,और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी भी राजनीतिक प्रयोगशालाएं हो गई हैं।सबसे विचारणीय शिकायत तो बच्चे यह करते हैं कि कोरोना आतंक को जाने भी दें,तो भी देश में अकादमिक माहौल है कहां? उच्चकोटि के प्राध्यापक ही नहीं हैं।

विजिटिंग फेकल्टी से काम चलाया जाता है। ये प्रोफेसर अक्सर रिटायर्ड होते हैं और पढ़ाना उनके लिए दायित्व और ज़ज़्बे से बढ़कर फुर्सत काटने के साथ ही अतिरिक्त कमाई का साधन होते हैं।सभी लोग पूर्व राष्ट्रपति,महान वैज्ञानिक,मिसाइलमैन और भारत रत्न स्व. एपीजे अब्दुल कलाम तो होते नहीं हैं,जो राष्ट्रपति के पद से अलग होने के बाद खासकर आईआईएम में लेक्चर लेने जाते रहें।

जहां तक शिक्षा में राजनीति की घुसपैठ का सवाल है,तो लगभग दो साल पहले का एक किस्सा बड़ा रोचक है। एक हिंदी प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री ने विश्वविद्यालय के कार्यक्रम के मुख्य अतिथि के रूप में भाषण की शुरुआत की,तो प्रारंभ का ही वाक्य था,आई एम नॉट कम्प्लीट इन इंग्लिश।इसी विश्वविद्यालय में जब पत्रकारिता और जन संचार का डिप्लोमा और डिग्री शुरू की गई,तो उक्त विभाग का अध्यक्ष उस व्यक्ति को बना दिया गया,जो शिक्षा महाविद्यालय के विभागाध्यक्ष थे।

जान लें कि उक्त यूनिवर्सिटी एजुकेशन हब कही जाती है।कुल मिलाकर इस परेशान करने वाले माहौल में रोशनी की किरणें भी दिखाई देने लगी हैं।नया प्रयोग यह होने लगा है कि मनीपाल,एसीटी, एसडी पाटील शिक्षा केन्द्रों ने नेपाल,मॉरीशस,मलेशिया,एंटीगुआ आदि देशों में अपने खुद के शिक्षा केन्द्र खोलने प्रारंभ कर दिए हैं,ताकि उक्त देशों में रहने वाले प्रवासी भारतीय छात्रों को आकर्षित किया जा सके।

विदेशी छात्रों को छह हज़ार रुपए का प्रतिमाह वजीफा भी दिया जाने लगा है,जिसके कारण अमेरिका और यूरोप तक के छात्र योग,आयुर्वेद, भारतीय दर्शन,साहित्य,ध्यान,वैदिक गणित सीखने भारत आ रहे ही महाराष्ट्र, कर्नाटक,तमिलनाडु, पंजाब जैसे राज्यों को प्राथमिकता दी जा रही है। शहरों में बेंगलुरु,मैसूर, मुंबई और चंड़ीगढ़ के नाम आगे रखे जाते हैं।

यह अभियान प्रखर होता जाता है,भारत भले ही विश्व गुरु की भूमिका में न लौट सके,लेकिन वैश्विक शिक्षा मंच पर अपनी दमदार उपस्थिति पुनः दर्ज़ करा सकेगा। केंद्र सरकार ने 2020 में जो नई शिक्षा नीति बनाई है उसके तहत कम से कम 2 लाख छात्रों को विदेश से आमंत्रित करने की योजना है।(इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
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