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हारे हुए राहुल-प्रियंका को अपने उपनाम ‘गांधी’ के जख्‍मी अवशेषों के तौर पर ही जाना जाएगा

हारे हुए राहुल-प्रियंका को अपने उपनाम ‘गांधी’ के जख्‍मी अवशेषों के तौर पर ही जाना जाएगा - Rahul-Priyanka will be known as the wounded remnants of their surname 'Gandhi'
एक वक्‍त था जब ‘गांधी’ उपनाम राजनीति के प्रतीक के तौर पर जाना जाता रहा है, लेकिन अब एक वक्‍त यह भी है, जब एक राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस के पतन की वजह भी यही उपनाम है।

अब उन वजहों को खोजा जाना चाहिए, जिनकी वजह से कांग्रेस में सोनिया गांधी, राहुल गांधी और प्रियंका गांधी के होने के बावजूद यह दल देश की शीर्ष सत्‍ता के साथ ही राज्‍य सरकारों से भी हाथ धो बैठा। हालांकि अब कांग्रेस के पास इस तरह के चिंतन का भी समय नहीं रहा। फिर भी देश की आजादी से लेकर 70 सालों तक सत्‍ता संचालित करने वाली पार्टी के पतन के कारणों को कुरेदकर देखना भी कोई व्‍यर्थ का काम नहीं होगा।

ऐसा नहीं है कि कांग्रेस के पतन में अकेली कांग्रेस का हाथ है, इसमें ठीक सही वक्‍त पर भाजपा द्वारा कांग्रेस की नाजुक नस को कुचल देना भी एक कारण रहा है। यह सही है कि जैसे-जैसे कांग्रेस ढहती गई, वैसे-वैसे भाजपा उसे और ज्‍यादा कुचलती गई। लेकिन अपना गला घोंटने का पहला काम तो खुद कांग्रेस ने ही किया, और भाजपा के लिए सत्‍ता तक पहुंचने की राह को और ज्‍यादा आसान बनाया।

अब सवाल यह है कि कैसे देश में ‘राजनीति की नीवं’ रखने वाली ‘गांधी’ के विचारों का दम भरने वाली पार्टी को उसके अपने ही लोगों ने उसे डूबो दिया।

दरअसल, आजादी के बाद पिछले 75 सालों में सबकुछ बदल गया। इंटरनेट क्रांति से लेकर मानवीय सभ्‍यता, स्‍वभाव, चाल, चरित्र, राजनीति, समाज और इस समाज में रहने वाले लोगों के मूल्‍य तक सबकुछ बदला।

पिछले दो साल से कोरोना की वैश्‍विक महामारी ने भी समाज और राजनीति की दशा- दिशा बदली। जैसे- जैसे ये बदलाव होते गए, मानव चरित्र भी स्‍वभागत तरीके से बदलता गया। भाजपा जैसी राजनीतिक पार्टी ने अपनी चाल, चरित्र, चेहरे, मोहरे और तौर तरीके सबकुछ बदले। भाजपा ने देश, काल और परिस्‍थिति के मुताबिक खुद को ढाला, बदलाव किए और समय की मांग के मुताबिक आपूर्ति भी की।

कांग्रेस भी इसी काल में उपस्‍थित थी, लेकिन उसमें बदलाव की कहीं कोई आहट नहीं थी।

कांग्रेस ने न अपने चेहरे बदले, न चाल और न ही रणनीति। एक राजनीतिक दल के तौर पर कांग्रेस के पास पहले से सारे तत्‍व मौजूद थे, एक पूरा पॉलिटिकल सेटअप था, उसे बस अपनी राजनीतिक ताकतों और रणनीतियों का इस्‍तेमाल करना था। चेहरे बदलना थे। चालें बदलना थीं। आखिरकार राजनीति एक चाल-भर ही तो है, सही समय पर सही चाल।

लेकिन वे गांधी परिवार नाम की उस कैद से भी बाहर नहीं आ सके, जिसने उन्‍हें सबसे ज्‍यादा नुकसान पहुंचाया।दूसरी तरफ भाजपा लगातार उनके ऊपर परिवारवाद का आरोप लगाती रही, और अंतत: उसने परिवारवाद की इस धारणा को उनके खिलाफ सही साबित भी कर दिखाया।

जब भाजपा उन पर परिवारवाद का आरोप लगा रही थी तो कांग्रेस को उसे अपने लिए नसीहत के तौर पर लेना चाहिए था और बदलाव करना चाहिए था, लेकिन उसने इसे सिर्फ राजनीतिक आरोप के तौर पर देखा और आंख बंद कर के चलती रही। कई बार चुपके से अपने राजनीतिक दुश्‍मन की सलाह भी स्‍वीकार कर ली जाना चाहिए, लेकिन इतने साल में कांग्रेस अपनी ये राजनीतिक समझ भी संभवत: खो चुकी है।

नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस में जवान होते नए भारत के दौर में उम्रदराज नेताओं की ताकत बढ़ती गई और नई जनरेशन और वक्‍त पर पकड़ रखने वाले युवा नेताओं के कद घटते गए। परिणाम यह था कि ज्‍योतिरादित्‍य सिंधिया, जतिन प्रसाद और मिलिंद देवड़ा जैसे नेता देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस से विदा हो गए। शशि थरूर और सचिन पायलट किनारे कर दिए गए। ऐसे और भी कई अनजान युवा नाम और चेहरे हैं, जिनकी उपस्‍थिति को कांग्रेस ने कभी नहीं स्‍वीकारा। यही नहीं, इतने सालों में कांग्रेस ने अब तक कोई नेता पैदा नहीं किया।

दूसरी तरह भाजपा नए नेता पैदा करती रही। और अपनी ताकत बढाती रही। उसने हर राज्‍य में अपने नेता पैदा किए, उन्‍हें चेहरों के रूप में पूरे देश में प्रोजेक्‍ट किया। चाहे कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आए सिंधिया हो, महाराष्‍ट्र के देवेन्‍द्र फड़नवीस हो, मध्‍यप्रदेश के शिवराज सिंह चौहान हो या राष्‍ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका के लिए उभरते हुए उत्‍तर प्रदेश के योगी आदित्‍यनाथ हो। ठीक इसी कतार में नितिन गडकरी हो या कैलाश विजयर्गीय। भाजपा में विकल्‍प की कतार बहुत लंबी है। कांग्रेस में दूर तक कोई नजर नहीं आता।

कांग्रेस में तो राहुल गांधी के विरोध में कई बार स्‍वर उठ चुके हैं। दूसरी तरफ ‘पॉलिटिकल स्‍पार्क’ के तौर पर देखी जाने वाली और कांग्रेस की आखिरी उम्‍मीद प्रियंका गांधी तक को कांग्रेस ने उत्‍तर प्रदेश में लाकर खत्‍म कर दिया। उन्‍हें इंदिरा गांधी बनाना तो दूर सिर्फ इंदिरा गांधी की नाक तक ही सीमित कर के रख दिया।

जहां तक कांग्रेस में उम्रदराज और अनुभवी नेताओं की बात है, जिनमें कपिल सिब्‍बल, सलमान खुर्शीद, गुलाम नबी आजाद, आनंद शर्मा, अंबिका सोनी, दिग्‍विजय सिंह, अशोक गेहलोत और कमलनाथ के नाम आते हैं, ये सभी राजनीतिक तौर पर थक चुके हैं। इन्‍हीं सब पर भरोसा कर के राहुल गांधी की पूरी टीम को दरकिनार किया गया था। ऐसे में अब कांग्रेस के पास न युवाशक्‍ति रही और न ही उम्रदराज अनुभव का साथ रहा।

हाल ही में देश के पांच राज्‍यों में हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने एक तरह से अपनी आखिरी चुनावी लड़ाई लड़ी है। एक ऐसी लड़ाई, जिसमें वे हार गए हैं। दुखद यह है कि हारे हुए राहुल और प्रियंका को अपने उपनाम ‘गांधी’ के जख्‍मी अवशेषों के तौर पर ही जाना जाएगा।

(आलेख में व्‍यक्‍त विचार लेखक के निजी अनुभव हैं, वेबदुनिया से इसका कोई संबंध नहीं है।)
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