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Written By Author ऋतुपर्ण दवे

क्या प्रियंका गांधी बदल पाएंगी 2019 का समीकरण?

क्या प्रियंका गांधी बदल पाएंगी 2019 का समीकरण? - Priyanka Gandhi 2019 loksabha election
यक़ीनन उनमें इंदिरा गांधी का अक्स दिखता है, धीरे और नपा-तुलना बोलना, पहनावा भी वैसा ही सादगी भरा। वक्ता के रूप में भी गजब का संवाद, बिना समय गंवाएं कुछ इस कदर घुलना-मिलना जैसे अपनों के ही बीच में हों, बरसों से जानती हों। हिन्दी में जितनी गब की महारत ठेठ उतना ही मजाकिया लहजा भी। अनजान महिला से भी गले मिल हाथ पकड़कर कुछ यूं पेश आना जैसे पुरानी पहचान हो। यही करिश्माई व्यक्तित्व प्रियंका गांधी को कभी गूंगी गुड़िया कही जाने वाली इंदिरा गांधी सा दिखने को मानने मजबूर करता है।
 
प्रियंका की यही शख्सियत और लोकप्रियता सत्ता संघर्ष के लिए जूझ रहे दावेदारों के लिए उगलत लीलत पीर घनेरी जैसी हो गई। भाजपा तो परिवारवाद की आड़ में खुलकर वार कर रही है लेकिन सपा, बसपा ने मजबूरन ही सही चुप्पी ही साध रखी है। हालांकि प्रियंका को कांग्रेस महासचिव बनाकर राजनीति में एकाएक लाने का फैसला सबके लिए चौंकाने वाला रहा हो पर हकीकत यह है कि इसकी स्क्रिप्ट काफी पहले लिखी जा चुकी थी और इंतजार सही वक्त का
था।
 
जैसे ही उप्र में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ और कांग्रेस को दरकिनार रखा गया तो राहुल ने भी मास्टर स्ट्रोक के रूप में प्रियंका का नाम आगे कर छक्का जड़ दिया। दिल्ली की राजनीतिक नब्ज के कुछ जानकारों से मेरी अक्सर चर्चा होती रहती है। इसी में बीते सप्ताह ही राहुल की वह बात भी पता लगी जिसमें उन्होंने अपने कुछ खास नेताओं से कहा था कि उप्र को लेकर धमाका करूंगा। तब किसी को अंदाजा नहीं था कि वह प्रियंका को कुछ इस तरीके से लाकर सबको चौंकाएंगे।
 
कयास लगाए जा रहे थे कि या तो अध्यक्ष या प्रभारी बदला जाएगा। लेकिन उनके एक तीर ने कई निशाने साधे। जहां पूर्वी उप्र की कमान प्रियंका को दी वहीं
पश्चिमी उप्र में ज्योतिरादित्य को मप्र में उनके करिश्में का भले ही कांटों भरा लेकिन ताज पहनाया गया। इससे जहां उप्र में कांग्रेस में जान फुंकी वहीं पूरे देश में राहुल की राजनीतिक परिपक्वता पर शक करने वालों को भी बैकफुट पर ला खड़ा किया।
 
यकीनन प्रियंका की यह सक्रियता उप्र ही नहीं देश की आधी आबादी यानी महिलाओं पर खास असरकारक होगी जो कांग्रेस के लिए संजीवनी है। प्रियंका की क्षमता और कार्यशैली पर भी कोई संदेह नहीं है। केवल 16 साल की थीं तब उन्होंने पहला सार्वजनिक भाषण दिया। जब भी मां या भाई के संसदीय क्षेत्र गईं उनका दिन सुबह दिन सुबह छह बजे ही शुरू होता। थोड़ी सी कसरत, योग के बाद वह अपने मिशन पर निकल पड़तीं। रोटी या परांठे ही खातीं वह भी सब्जी और नींबू या आम के अचार के साथ।
 
चुनावी प्रचार की शुरुआत प्रियंका ने रायबरेली से 2004 में की थी और बतौर मेहमान रमेश बहादुर सिंह के घर पर पूरी सादगी से एक महीने ठहरीं। वो अपने पिता राजीव गांधी के साथ उनके संसदीय क्षेत्र बचपन से आती रहीं। उनके छोटे-छोटे बालों के चलते उन्हें भइया कहा जाता था जो बाद में भइयाजी हो गया। याददाश्त की तगड़ी प्रियंका कार्यकर्ताओं को खूब पहचानती और याद रखती हैं। यह भी उनकी लोकप्रियता का बड़ा कारण है।
 
प्रियंका गांधी के आने से कांग्रेस की मजबूती तय है पर कितनी यह देखने वाली बात होगी क्योंकि पार्टी का परंपरागत मतदाता इधर-उधर छिटक हुआ है। कई क्षेत्रीय दलों ने जबरदस्त पैठ बना ली है। संगठन खुद मजबूत नहीं है। प्रियंका को नजदीक से जानने वाले यह बताते हैं कि उनकी सहजता, प्रभावी व्यक्तित्व, कार्यकर्ताओं से सीधे जुड़ाव की खूबी निचले स्तर के कार्यकर्ताओं को जोड़ने में मददगार होगी। पूर्वी उप्र का प्रभार भी बहुत ही सोची, समझी रणनीति की ओर इशारा कर रहा है।
 
आबादी के लिहाज से पूर्वी उप्र में बुनकर, मुसलमान, ब्राह्मण, दलित-पिछड़ों की संख्या बहुत है जो प्रियंका के निजी प्रभाव के चलते फिर से कांग्रेस के साथ आ सकते हैं। इंदिराजी ने भी हमेशा उप्र पर सबसे ज्यादा भरोसा कर ज्यादा प्रधानमंत्री देने वाला राज्य बनाया। ऐसे में उप्र को जानने वालों का मानना है कि वहां के लोगों का आज भी नेहरू-गांधी परिवार से खासा लगाव है। प्रियंका भी बहुत कुछ इंदिराजी जैसी लगती हैं। इसका प्रभाव मतदाताओं पर न पड़े यह नामुमकिन है।
 
अब राजनीतिक गलियारों में यह चर्चा भी चल पड़ी है कि काऊ बेल्ट के ब्राम्हण उप्र सहित मप्र और दूसरे हिन्दी पट्टी के क्षेत्रों में बहुतायत हैं जो नेहरूजी को असली ब्राम्हण मानते हैं। यदि इनका झुकाव प्रियंका की तरफ हुआ तो नुकसान भाजपा का ही होगा। वहीं उप्र की सभी 80 सीटों पर राहुल गांधी ने चुनाव
लड़ने की बात के बावजूद साफ कर दिया है कि सपा-बसपा गठबंधन से कोई मतभेद नहीं है। ऐसे में उप्र की गठबंधन राजनीति में कांग्रेस को अछूत मानना जल्दबाजी होगी।
 
प्रियंका की सक्रियता और कुछ निजी चैनलों का सर्वे साथ-साथ आना भले ही संयोग रहा हो लेकिन इसने 2019 के आम चुनाव का बड़ा संकेत जरूर दे दिया है। इंडिया टुडे-कार्वी इनसाइट् का यूपी पर सर्वे कहता है कि यदि कांग्रेस भी गठबंधन में शामिल होती है भाजपा की 73 की बजाय महज 5 पर सिमट जाएगी तथा 75 सीटें बीएसपी, एसपी, आरएलडी और कांग्रेस के खाते में चली जाएंगी। वहीं एबीपी न्यूज और सी-वोटर का राष्ट्रीय सर्वे बताता है कि सबसे अधिक लोकसभा सीटों वाले उप्र और महाराष्ट्र में भाजपा को मुश्किल हो सकती है। वहीं गुजरात और बिहार में एनडीए को सबसे अधिक सीटें हासिल हो सकती हैं। सर्वे की मानें तो एनडीए को चुनावों में 233 सीटें मिल सकती हैं, जबकि यूपीए के खाते में 167 सीटें जा सकती हैं। वहीं अन्य पार्टियां 143 सीटों पर अपना परचम लहरा सकती हैं।
 
हो सकता है कि अब आने वाले सर्वे प्रियंका के चलते कांग्रेस की और मजबूती का दावा करें कुछ और आंकड़ें दें। बहरहाल प्रियंका की राजनीति के मैदान में  एंट्री ने एक बार फिर राजनीति को नया मोड़ जरूर दे दिया है जिसने मोदी के कांग्रेस मुक्त भारत के सपने को खोखला जरूर कर दिया है। इतना तो तय है कि सत्ता के ताले की फिर कई चावी होंगी और देखना बस यही है कि अगले आम चुनाव में प्रियंका का जादू मोदी के मैजिक पर कितना असर डालेगा।