जनता से भी तो पूछिए कि वह क्या चाहती है!
पूर्व सेना प्रमुख और वर्तमान में केंद्रीय सड़क, परिवहन एवं राष्ट्रीय राजमार्ग राज्य मंत्री जनरल वीके सिंह का एक साक्षात्कार हाल ही में एक अंग्रेज़ी अख़बार में प्रकाशित हुआ है। बहुत कम लोगों की नज़र उस पर गई होगी क्योंकि सबसे महत्वपूर्ण सवाल साक्षात्कार के आख़िर में है।
सवाल था : ‘प्रधानमंत्री ने कहा है कि सैनिकों का बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा। आपकी राय में चीन को उपयुक्त जवाब क्या हो सकता है?’ जनरल सिंह के उत्तर का सार यह निकाला जा सकता है कि 'चीनी सामान के बहिष्कार की बात उठी है, उसी से शुरुआत की जा सकती है। चीन को सबसे पहले आर्थिक रूप से चोट पहुंचाई जाए। बाक़ी उपाय बाद में हो सकते हैं। युद्ध और बल का प्रयोग अंतिम विकल्प के रूप में किया जा सकता है। जब बाक़ी सारी युक्तियां असफल हो जाती हैं तब आप इसका उपयोग करते हैं। अभी कई विकल्प उपलब्ध हैं।’
आश्चर्य व्यक्त किया जा सकता है कि भारतीय सेना के पूर्व प्रमुख गलवान घाटी में चीन के द्वारा एक सोची-समझी साज़िश के तहत प्रारम्भ की गई हिंसक झड़प के बारे में तो विकल्पों की बात कर रहे हैं पर पाकिस्तान को लेकर उनका नज़रिया इसके ठीक विपरीत है। सिर्फ़ महीने भर पहले ही एक मीडिया संस्थान के कार्यक्रम में उन्होंने कहा था कि पाक के क़ब्ज़े वाले कश्मीर को पाकिस्तान के क़ब्ज़े से वापस लेने की योजना तैयार है और समय आने पर भारतीय सेना उस पर अपनी कार्रवाई कर देगी। वे पूर्व में यह भी कह चुके हैं कि पाकिस्तान को दोस्त समझना देश की सबसे बड़ी कमजोरी होगी।
ऐसा पहले कभी नहीं हुआ होगा कि किसी एक बीमारी या महामारी और सीमाओं पर तनाव से निपटने के विकल्पों को लेकर इतने लम्बे समय तक भ्रम की स्थिति बनी रही हो या बनाकर रखी गई हो। कोरोना के इलाज की किट में जैसे एलोपैथी, आयुर्वेदिक और होम्योपैथी यानी सभी तरह की दवाएं रखने के साथ-साथ योग की महत्ता भी प्रतिपादित की जा रही है वैसे ही देश को पता नहीं है कि सीमा के तनाव का इलाज किस पद्धति से किया जा रहा है। सभी विकल्पों पर एकसाथ काम चल रहा है। दूसरे यह भी कि एक ही रोग के दो भिन्न स्थानों पर प्रकट हो रहे समान लक्षणों का इलाज अलग-अलग तरीक़ों से करने की बात की जा रही है जैसा कि सरकारी अस्पतालों में ग़रीबों और प्रभावशाली मरीज़ों के बीच फ़र्क़ किया जाता है। किससे पूछें कि क्या पाकिस्तान के मामले में सारे ही विकल्प समाप्त हो चुके हैं?
क्या जनता से भी पूछ लिया गया है कि वह पाकिस्तान के साथ केवल युद्ध और चीन के साथ सभी विकल्पों के लिए अपने आप को तैयार रखे? युद्ध या बातचीत के बारे में क्या वे ही लोग सबकुछ तय कर लेंगे जो पीएमओ और नई दिल्ली के साउथ ब्लॉक में बैठे हुए हैं? जनता को क्या सिर्फ़ तालियां और थालियां ही बजाते रहना है? दूसरे यह भी तो बताया जाना चाहिए कि चीन के साथ सीमा पर पिछले पैंतालीस सालों से जो यथास्तिथि क़ायम थी वह देखते ही देखते टकराव के बिंदु पर कैसे पहुंच गई और इतने सैनिकों को शहादत क्यों देना पड़ी!
सवाल तो यह भी है कि युद्ध और शांति का माहौल आख़िर बनाता कौन है? जनता तो निश्चित ही नहीं बनाती। जो हम देख रहे हैं वह यही है कि किसी एक देश के साथ युद्ध का वातावरण भी सत्ता में बैठे हुए वे लोग ही बना रहे हैं जो दूसरे मुल्क के साथ सभी विकल्पों पर काम कर रहे हैं। जनता कहीं से और किसी से युद्ध नहीं चाहती। कोई न तो पूछता है और न ही कोई बताता है कि क्या देश के बीस प्रतिशत अनुसूचित जाति और नौ प्रतिशत जनजाति के गरीब लोग, तेरह प्रतिशत से ज़्यादा मुसलमान, करोड़ों बुजुर्ग और बच्चे, करोड़ों बेरोज़गार, सैनिकों के परिवार क्या किसी भी तरह का युद्ध और तनाव चाहते हैं?
सीमाओं पर तनाव को सत्ता में वापसी या उसे बचाए रखने के बीच विकल्पों में बांटकर जनता की प्रतिरोधक क्षमता (इम्युनिटी ) की टेस्टिंग नहीं की जानी चाहिए। देश प्रधानमंत्री से उनके ‘मन की बात’ सुनने की उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहा है। (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। इसमें शामिल तथ्य तथा विचार/विश्लेषण 'वेबदुनिया' के नहीं हैं और 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)