भारतीय राजनीति में लंबे अर्से से, बल्कि कहें कि स्वतंत्रता के बाद से यह कहा जा रहा है कि दिल्ली दरबार का रास्ता उत्तर प्रदेश से होकर निकलता है।
लेकिन यह भी सच है कि भारत की राजनीति की तासीर का असल थर्मामीटर बिहार ही है। भले ही कुछ बरस पहले विभाजन के बाद बिहार से टूटकर झारखण्ड अस्तित्व में आ गया हो लेकिन देश की राजनीति का रुख अभी भी बिहार के मिजाज से परखा जाता है।
इसके पीछे वजहें बताने वालों के अपने-अपने तर्क हो सकते हैं। लेकिन हकीकत यही है कि बिहार की माटी की ताकत अपने मेहनत के दम पर ही पूरे देश में अपना प्रभाव और अधिकार रखती है जिससे शायद ही कोई इंकार कर पाए। बस इसीलिए भारत की राजनीति में बिहार के महत्व को कभी कमतर नहीं आका जा सकता। देश ही नहीं दुनिया में बिहार की मौजूदगी सहजता से दिख जाती है।
भारत के हर कोने में बिहार के निवासी अपनी एक अलग पहचान और मुकाम बनाए हुए हैं। कम से कम निर्माण के क्षेत्र में जो खास दबदबा बिहार के राजमिस्त्रियों और कारीगरों का है वह दूसरों को हासिल नहीं है। देश की सबसे प्रतिष्ठित सिविल सर्विसेज हो इंजीनियरिंग, माइनिंग या कॉर्पोरेट क्षेत्र हों बिहार की धाक देखते ही बनती है। कहने का मतलब यह कि भारत के हर कोने में बड़े से लेकर छोटे गांव तक में बिहार के लोगों की मौजूदगी देश में राजनीतिक संवाहक भी बनती है।
मैंने बचपन से मप्र में अपने नगर में देखा है। जहां साउथ ईस्टर्न कोलफील्ड्स का धनपुरी स्थित कोयला क्षेत्र है तो महज चंद फर्लांग दूर कभी एशिया का सबसे बड़ा कहलाने वाला अमलाई का कागज कारखाना। अमलाई में तो एक समय 90 प्रतिशत से ज्यादा कामगार बिहार प्रान्त के रहे हैं जो अभी भी 50 प्रतिशत से ज्यादा हैं। इसी तरह कोयलांचल धनपुरी में भी पूर्वांचल के लोगों का काफी दबदबा था और है।
मुझे याद है कि आज से तीन-चार दशक पहले चुनावों के वक्त हर दल के नेताओं का जमावड़ा बजाए पूरे चुनाव क्षेत्र के, इन्हीं कामगारों के कैम्पों, कॉलोनियों में हुआ करता था। तब न तो संचार के इतने तेज साधन थे और फोन लगना भी बड़ी दूर की बात होती थी। उन दिनों हर किसी को बस डाकिये का इंतजार रहता था। सब एक दूसरे से पूछते थे कि देश से कोई चिट्ठी आई! चिट्ठी यानी उसमें संदेश होता था कि होने जा रहे चुनाव में बिहार और पूर्वांचल का मिजाज क्या है? बस सैकड़ों मील दूर मौजूद यह तबके प्रवासी राजनीति की फिजा बदल देते थे और पूरे चुनावी क्षेत्र में एक नया माहौल देखते ही देखते बन जाता था।
स्थानीय स्तर पर की गई सारी की सारी मेहनत धरी रह जाती थी और यह जहां भी रहते हवा का रुख बदल देते। इसीलिए चुनावों के दौरान, बजाए चुनावी तैयारियों के हर कहीं बस यही चर्चा होती थी कि बिहारियों और गोरखपुरियों के कैम्प में चिट्ठी आने दो। देखते ही देखते नई हवा चल पड़ती जिसका असर भी होता। इन्हीं के दम पर मैने देखा है विन्ध्य की राजनीति के पुरोधाओं में से एक मप्र के दबंग समाजवादी नेता व गुजरात के राज्यपाल रहे स्व. कृष्णपाल सिंह किस तरह बेफिक्र रहते थे। चूंकि मैं उनका करीबी था इसलिए उनकी रणनीति और राजनीति को जानता, समझता था। यूं तो उन दिनों उनका चुनाव क्षेत्र काफी विस्तृत था लेकिन ज्यादा फोकस बजाए स्थानीय गांवों व कस्बों के वो कोयलांचल और कागज कारखाने वाले क्षेत्रों में करते थे जो नतीजे को एकतरफा बदलने वाला होता था।
चुनावी रणनीति में उनका यह कॉन्फीडेंस और तरीका ही था जो वह अक्सर विरोधियों को शिकस्त दे देते थे जिसके पीछे उन्हें बिहार और पूर्वांचल से मिलने वाला समर्थन और वहां से उनके समर्थन में आने वाली कथित चिट्ठी होती थी। तभी जब मतदान पेटियां खुलती थीं तो 60 प्रतिशत क्षेत्र में उनकी जीत-हार का अंतर बहुत कम और धड़कनें बढ़ाने वाला होता था लेकिन वह आश्वस्त रहते थे और कहते थे कि आखिर में धनपुरी और अमलाई की पेटियाँ तो खुलने दो। होता भी यही था एकमुश्त उनके पक्ष में पड़े वोट उनकी धाकदार जीत दर्ज कराती थी।
धीरे-धीरे बिहार में क्षेत्रीय पार्टियों का वर्चस्व जरूर बढ़ता गया और राष्ट्रीय स्तर की पार्टियां दूसरे दर्जे की होती गईं। लेकिन देश की राजनीति में भाजपा या कांग्रेस का दूसरी जगहों पर फैसला भी इसी में छुपे संदेशों से होता रहा। इसको भी मैंने 2014 के आम चुनावों से पहले महसूस किया। तब मैं करीब एक पखवाड़े गोवा में था। वहां मैं पणजी सहित आसपास के वहां के दूर दराज ग्रामीण इलाकों में भी गया था। वहां भी मुझे चाहे क्रूज पर हों या बीच पर, होटल-रेस्टॉरेन्ट हों फिर टैक्सी हर जगह बिहार के लोग मिल ही जाते थे। वहां भी अपने इलाके जैसी लजीज चाट, पकौड़े और चाय का स्वाद इन्हीं की सड़क किनारे खासकर मीरा मार बीच के पास की दूकानों पर ही मिलता था। मुझे भी थोड़ी बहुत पूर्वांचल की बोली आती है तो मैंने गोवा में भी जहां भी यह मिलते राजनीति की बात जरूर करता। तभी मुझे चुनावों से काफी पहले समझ आ गया था कि 2014 में किस तरह की मोदी लहर चलने वाली है। हुआ भी वही।
इतना सब लिखने का मतलब बस यही कि भारत की राजनीति में दक्षिण से ज्याद उत्तर उसमें भी पूर्वांचल उसमें भी खास बिहार की खनक से इंकार नहीं किया जा सकता।
अब सारे देश की निगाहें इसी बिहार पर चुनावों की घोषणा होते ही आ टिकी हैं। कोई माने या माने लेकिन यही बड़ा सच है कि बिहार की राजनीति भले ही गठबंधन में उलझ क्षेत्रीय दलों तक सीमित दिखती हो लेकिन उसका असर पूरे देश में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के भविष्य को बड़ा संकेत भी देने वाली है। वैसे भी बिहार के चुनाव राजनीति में बदलाव के संकेतक होते हैं। इस बार वहां पर दो बड़े राजनीतिज्ञ या तो पूरी तरह से गायब हैं या फिर कमान अपनी संतानों को सौंप चुके हैं। लालू यादव जहां अदालत के फैसले के बाद परिदृश्य से दूर जेल में बैठे हैं तो रामविलास पासवान स्वास्थ्य और उम्र का हवाला देकर बेटे पर निर्भर हैं।
चुनाव दो पुराने गठबन्धनों के बीच ही होगा जिसमें एक के मुखिया नितिश कुमार तो दूसरी के तेजस्वी यादव होंगे। हां चिराग पासवान को लेकर वैसी ही दुविधा है जैसी कि उनके पिता के साथ रहती थी क्योंकि देश की राजनीति में हवा के रुख को भांपने और उसी अनुरूप चलने में रामविलास पासवान का अब तक को कोई सानी भी नहीं है।
यूं तो बिहार में विधानसभा की कुल 243 सीटें हैं जिसमें बहुतमत के लिए 122 सीटें जरूरी हैं। अभी वहां जनता दल (यूनाइटेड) और भाजपा की सरकार है।
जेडीयू नेता नीतीश कुमार मुख्यमंत्री हैं तो भाजपा के सुशील मोदी उप-मुख्यमंत्री हैं। रोचक यह है कि 2015 में नीतीश के नेतृत्व में जेडीयू ने लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) के साथ चुनाव लड़ा। तब जेडीयू, आरजेडी, कांग्रेस और अन्य दलों का एक महागठबंधन बना जिसमें जेडीयू को 69 और आरजेडी को 73 सीटें मिली थीं। जेडीयू और आरजेडी ने मिलकर सरकार बनाई जिसमें मुख्यमंत्री नीतीश कुमार बने और लालू यादव के बेटे उप मुख्यमंत्री। लेकिन 2017 में नीतीश ने आरजेडी से गठबंधन तोड़ भाजपा के साथ दोबारा सरकार बनाई।
यहां बीजेपी के पास 54 विधायक थे। कांग्रेस को 23 सीटें ही मिलीं जबकि रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पार्टी 2 सीट पर सिमट गई। अब जीतनराम मांझी फिर से एनडीए शामिल हो गए हैं जबकि इससे पहले वो आरजेडी में चले गए थे। रोचक यह है कि इस लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को 1 सीट मिली जबकि जबकि आरजेडी का खाता तक नहीं खुला। चूंकि बिहार में दलबदल की संभावनाएं बहुत ज्यादा है इसलिए कई स्थानीय क्षत्रप यहां से वहां हो सकते हैं।
हां बिहार में समाप्त हो रही मौजूदा विधानसभा की सबसे बड़ी रोचकता और विशेषता यह रहेगी कि सिवाय 3 विधायकों के जो भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) दल से हैं को छोड़कर इस बार सारे के सारे विधायक सरकार चला चुके हैं। चाहे वह किसी भी दल से क्यों न रहे हों। लेकिन इस बार बिहार में ऊंट किस करवट बैठेगा इस पर पूरे देश की फिर से निगाहें हैं क्योंकि बिहार में स्थानीय दल और गठबन्धनों के बावजूद राष्ट्रीय राजनीति के लिए भी एक संदेश निकलता है जिसे अपनी-अपनी तरह से देखा जाता है और यही राष्ट्रीय राजनीति में हवा के रुख का भी भान कराता है। बहरहाल अभी तो चुनाव का आगाज है अंजाम तक पहुंचते-पहुंचते फिर कितने रिकॉर्ड बनेंगे यही देखने लायक होगा।
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