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Written By Author श्रवण गर्ग
Last Modified: सोमवार, 28 दिसंबर 2020 (19:42 IST)

हम अटल जी को इतना याद क्यों करना चाह रहे हैं?

हम अटल जी को इतना याद क्यों करना चाह रहे हैं? - atal bihari vajpayee
ईसा मसीह के जन्मदिन पच्चीस दिसम्बर को पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी का स्मरण इस बार इतना ज़्यादा क्यों किया गया? अटल जी का जन्मदिन तो पिछले साल भी आया था, अगले वर्ष फिर आएगा। अटल जी को उन लोगों ने भी बहुत याद किया जो उनकी पार्टी के समर्थक नहीं हैं। ये लोग ऐसा हरेक नेता के मामले में नहीं करते। यह भी संयोग ही है कि अटल जी के जन्मदिन के चालीस दिन पहले 14 नवम्बर को भारत रत्न जवाहर लाल नेहरू को भी इस बार कुछ ज़्यादा ही याद किया गया। नेहरू जी ने ही भविष्यवाणी की थी कि अटल जी कभी देश के प्रधानमंत्री बनेंगे। नेहरू जी, कांग्रेस के अटल बिहारी या लोहिया-जयप्रकाश नहीं थे पर अटल जी में नेहरू भी समाए हुए थे और लोहिया-जयप्रकाश भी।

अटलजी को उनके दो वर्ष पूर्व हुए निधन (16 अगस्त 2018) और उसके भी तेरह वर्षों पहले सक्रिय राजनीति से संन्यास ले लेने के बाद इतनी आत्मीयता और भावुकता से याद करने के पीछे कुछ ईमानदार कारण अवश्य होने चाहिए। कहा जाता है कि प्रतिकूल राजनीतिक परिस्थितियों में दिवंगत महापुरुषों का स्मरण समय सापेक्ष होता है। राजनीति जब अपने वर्तमान में घुटन महसूस करने लगती है तो वह जीवित रहने के लिए अतीत में लौटकर सांसें तलाश करती है।
वे तमाम लोग जो इतनी शिद्दत के साथ अटलजी को याद करना चाहते हैं कभी किसी से पूछना भी चाहेंगे कि 2004 के चुनावों में उन्हें हराया क्यों गया? किन वजहों और किनकी वजहों से वे हारे होंगे? जीतने की अपार संभावनाओं के चलते ही निर्धारित समय से छह महीने पहले चुनाव करवाने का जोखिम उन्होंने उठाया था। लोकसभा चुनावों के ठीक पहले राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में भाजपा की सरकारें बन चुकी थीं। कोई जानना चाहेगा कि जिस एनडीए को उनके नेतृत्व में 1999 के चुनावों में 543 में से 303 सीटें प्राप्त हुईं थीं, उसे 2004 में सिर्फ़ 185 सीटें ही क्यों मिलीं! केवल सात सीटें भाजपा (138) से ज़्यादा पाकर कांग्रेस (145) सबसे बड़ी पार्टी और 33 सीटें अधिक पाकर यूपीए (218 ) कैसे बड़ा गठबंधन हो गया?

क्या भाजपा में 2004 के चुनावों में पार्टी को कम सीटें मिलने और एनडीए की हार के कारणों की कोई निष्पक्ष पड़ताल हुई थी? देश ने अगर 2004 में अटलजी को जिता दिया होता तो केवल कल्पना ही की जा सकती है कि आज भाजपा क्या होती! कांग्रेस क्या होती! विपक्ष क्या होता और देश में लोकतंत्र को लेकर चुनौतियों का स्वरूप क्या होता! अटलजी की खोज के लिए 2004 के चुनाव परिणामों में नए सिरे से जाना पड़ेगा। पूछना पड़ेगा कि अटलजी को लगे सदमे के पीछे क्या कारण रहे होंगे कि चुनावों के ठीक बाद उन्होंने सक्रिय राजनीति से मुंह फेर लिया।
वर्ष 1999 के लोकसभा चुनावों के दौरान केशूभाई गुजरात के मुख्यमंत्री थे। भाजपा को तब छब्बीस में से बीस सीटें हासिल हुईं थीं। 2004 के चुनावों तक मोदी का गुजरात में एकछत्र साम्राज्य स्थापित हो चुका था और वे गोधरा कांड पर विजय प्राप्त कर चुके थे। अटलजी की ‘राष्ट्र धर्म’ वाली गुजरात यात्रा भी तब तक सम्पन्न हो चुकी थी। इस सबके बावजूद 2004 के चुनावों में गुजरात में भाजपा की सीटें घटकर चौदह रह गईं, कांग्रेस को बारह सीटें मिल गईं।

अविभाजित बिहार की 54 सीटों में से 1999 के चुनावों में भाजपा को 23 और जद (यू) को 18 सीटें मिलीं थीं। 1999 से 2004 के बीच नीतीश कुमार अटलजी की सरकार में कई प्रमुख विभागों के क़ाबीना मंत्री रहे। पर वर्ष 2004 के चुनावों में विभाजित बिहार और झारखंड दोनों में भाजपा और जद (यू) को केवल छह-छह सीटें ही मिलीं।

अविभाजित उत्तर प्रदेश की 85 सीटों में 1999 के चुनावों में भाजपा को 29 सीटें मिलीं थीं। विभाजन के बाद हुए 2004 के चुनावों में उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड दोनों को मिलाकर उसे सिर्फ़ 13 सीटें प्राप्त हुईं। महाराष्ट्र में 1999 के मुक़ाबले 2004 में भाजपा की एक भी सीट नहीं बढ़ी और एनडीए की सहयोगी शिवसेना की तीन सीटें कम हो गईं। ऊपर उल्लेखित राज्यों में ही सीटों की कुल संख्या 213 है और इनमें से भाजपा को केवल 46 सीटें प्राप्त हुईं।
अपने कार्यकाल में पोखरण-दो, कारगिल विजय, लाहौर की बस यात्रा आदि ऐतिहासिक उपलब्धियों और तमाम बाधाओं के बावजूद आर्थिक विकास की दर आठ प्रतिशत बनाए रखने में कामयाब अटलजी देश पर अपने भरोसे के बल पर ही 2004 के चुनाव में उतरे थे पर अंत में उन्हें क्या प्राप्त हुआ? राजनीतिक संन्यास!

देश ने अटलजी को अपने बीच से चुपचाप गुम हो जाने दिया। 2005 में सक्रिय राजनीति से अपने को मुक्त करने की घोषणा के बाद जब वे 2009 में बीमार पड़ गए तो हमें कितना याद पड़ता है कि उनके लिए देश भर में कितनी प्रार्थनाएं की गईं! बीमार पड़ने के बाद भी वे हमारे बीच कोई नौ वर्षों तक रहे। नेहरू जी तो 1964 में अचानक से चले गए थे पर अटलजी को तो सभी ने अपनी आंखों के सामने ओझल होने दिया।

जो देश कंधार विमान अपहरण हादसे के दौरान बंधक यात्रियों को छुड़ाने के बदले खूंखार आतंकवादियों की रिहाई का दबाव अपने प्रधानमंत्री पर बनाने में सफल हो गया उसने अटलजी पर इस बात के लिए कोई दबाव नहीं डाला कि वह उन्हें राजनीति से ‘विश्राम’ नहीं लेने देगा। अटलजी का जन्म भी 25 दिसंबर के दिन ही हुआ था। क्या ईसा मसीह की तरह ही उन्हें भी उनके कुछ शिष्यों के कारण ही तो इतने कष्ट नहीं उठाने पड़े थे? उत्तर किससे मांगे जाएं? (इस लेख में व्यक्त विचार/विश्लेषण लेखक के निजी हैं। 'वेबदुनिया' इसकी कोई ज़िम्मेदारी नहीं लेती है।)
 
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