1. निर्धन ब्राह्मण
महावीर मुक्तिपथ पर दृढ़ कदमों से बढ़े जा रहे थे। तभी पीछे से उन्हें एक करुण पुकार सुनाई दी। उनके कदम ठिठक गए। पीछे मुड़कर देखा तो एक दुर्बल ब्राह्मण लाठी के सहारे गिरता-पड़ता दौड़ा आ रहा था। कुछ पल बाद ही वह महावीर के कदमों में आकर गिर पड़ा। उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। फिर लड़खड़ाती जुबान से वह बोला- 'मेरी सहायता कीजिए राजकुमार वर्द्धमान। मुझे कुछ दीजिए। मेरी निर्धनता दूर कीजिए।'
वह बूढ़ा ब्राह्मण सोम शर्मा था, जो प्राय: उनसे दान-दक्षिणा लेने आता रहता था। वे भी आवश्यकतानुसार उसकी मदद करते रहते थे। उसकी हालत देखकर महावीर सहानुभूति से द्रवित हो गए। लेकिन आज देने के लिए उनके पास कुछ नहीं था। तभी उन्हें कंधे पर पड़े हुए दिव्य वस्त्र का ध्यान आया।
उन्होंने उसे आधा फाड़कर सोम शर्मा को दे दिया। वह खुशी से भर उठा और उसे एक जौहरी के पास ले गया। जौहरी उसे देखकर बोला- 'इसका आधा भाग कहां है? यदि तुम वह हिस्सा भी ले आओ तो मैं तुम्हें एक लाख स्वर्ण मुद्राएं दे सकता हूं।'
लालच में डूबा ब्राह्मण वापस महावीर के पीछे भागा और जहां-जहां वे गए, उनका पीछा करता रहा। लगभग एक साल बाद महावीर के कंधे से कपड़े का वह टुकड़ा गिरा तो सोम शर्मा उसे ले भागा और एक लाख स्वर्ण मुद्राओं में बेच दिया।
2. ग्वाले की क्षमायाचना
एक दिन संध्या के समय महावीर गांव के निकट पहुंचे तो वहां एक वृक्ष के नीचे निश्चल खड़े होकर ध्यान करने लगे। तभी एक ग्वाला अपनी कुछ गायों को लेकर वहां आया और उन्हें संबोधित करके बोला- 'हे मुनि! मैं गांव में दूध बेचने जा रहा हूं। मेरे लौटने तक मेरी गायों का ध्यान रखना।'
इतना कहकर उनका जवाब सुने बिना वह वहां से चला गया। कुछ समय बाद वह लौटा तो देखा कि महावीर स्वामी ज्यों के त्यों खड़े हैं लेकिन गायें वहां नहीं हैं। उसने पूछा- 'मुनि! मेरा पशु-धन कहां हैं?'
महावीर ने कोई उत्तर नहीं दिया तो इधर-उधर देखते हुए वह जंगल में घुस गया और पूरी रात वहां अपनी गायें तलाश करता रहा। इसी बीच गायें चरकर लौट आईं और महावीर को घेरकर बैठ गईं। सुबह थका-मांदा ग्वाला लौटा तो गायों को वहां देखकर आगबबूला हो उठा- 'इस मुनि ने मुझे तंग करने के लिए मेरी गायों को छिपा दिया था। अभी इसकी खबर लेता हूं।'
यह कहकर उसने गायों को बांधने वाली रस्सी अपनी कमर से खोली और महावीर पर वार करने को हुआ। तभी एक दिव्य पुरुष ने वहां प्रकट होकर उसे रोक लिया- 'ठहरो मूर्ख! यह क्या अपराध करने जा रहे हों। तुम बिना इनका उत्तर सुने अपनी गायें इनकी रखवाली में छोड़कर गए। अब पूरी गायें पाकर भी इन्हें दोष दे रहे हो। मूर्ख! ये भावी तीर्थंकर हैं।' यह सुनकर ग्वाला महावीर के चरणों में गिर पड़ा और क्षमायाचना करके वहां से चला गया।
3. शूलपाणि का उद्धार
घूमते हुए महावीर वेगवती नदी के किनारे स्थित एक उजाड़ गांव के निकट पहुंचे। गांव के बाहर एक टीले पर एक मंदिर बना हुआ था। उसके चारों ओर हड्डियों और कंकालों के ढेर लगे थे।
महावीर ने सोचा, यह स्थान उनकी साधना के लिए ठीक रहेगा। तभी कुछ ग्रामीण वहां से गुजरे और उनसे बोले- यहां अधिक देर मत ठहरो मुनिराज। यहां जो भी आता है, उसे मंदिर में रहने वाला दैत्य शूलपाणि चट कर जाता है। ये हड्डियां ऐसे ही अभागे लोगों की हैं। यह गांव कभी भरापूरा हुआ करता था। उस दैत्य ने इसे उजाड़कर रख दिया है।'
यह कहकर ग्रामीण तेज कदमों से वहां से चले गए। महावीर ने ग्रामवासियों के मन का भय दूर करने की ठानी और उस मंदिर के प्रांगण में एक स्थान पर खड़े होकर ध्यान करने लगे। जल्दी ही वे अंतरकेंद्रित हो गए।
अंधेरा घिरते ही वातावरण में भयंकर गुर्राहट गूंजने लगी। हाथ में भाला लिए शूलपाणि दैत्य वहां प्रकट हुआ और महावीर को सुलगते नेत्रों से घूरते हुए भयंकर क्रोध से गुर्राने लगा। उसे आश्चर्य हो रहा था कि उससे भयभीत हुए बिना उसके सामने खड़े होकर ही एक मानव ध्यान-साधना में लीन था।
वह मुंह से गड़गड़ाहट का शोर करते हुए मंदिर की दीवारों को हिलाने लगा। लेकिन महावीर मुनि न तो भयभीत हुए, न ही उनकी तंद्रा टूटी। अपने छल-बल से शूलपाणि ने वहां एक पागल हाथी प्रकट किया। वह महावीर को अपनी पैनी सूंड चुभोने लगा। फिर उन्हें उठाकर चारों ओर घुमाने लगा। जब महावीर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा तो वहां एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ। वह तीखे नख और दांतों से उन पर प्रहार करने लगा।
अगली बार एक भयंकर विषधर उन पर विष उगलने लगा। इतने पर भी महावीर ध्यानमग्न रहे तो शूलपाणि भाले की नुकीली नोक उनकी आंखों, कान, नाक, गर्दन और सिर में चुभोने लगा। लेकिन महावीर ने शरीर से बिलकुल संबंध-विच्छेद कर लिया था अत: उन्हें जरा दर्द का अनुभव नहीं हुआ। यह सहनशीलता की पराकाष्ठा थी, जो केवल तीर्थंकर में ही हो सकती थी।
शूलपाणि समझ गया कि वह मनुष्य निश्चित ही कोई दिव्य प्राणी है। वह भय से थर्राने लगा। तभी महावीर के शरीर से एक दिव्य आभा निकलकर दैत्य के शरीर में समा गई और देखते ही देखते क्रोध पिघल गया, गर्व चूर-चूर हो गया। वह महावीर के चरणों में लोट गया और क्षमा मांगने लगा।
महावीर ने नेत्र खोले और उसे आशीर्वाद देते हुए करुणापूर्ण स्वर में बोले- 'शूलपाणि! क्रोध से क्रोध की उत्पत्ति होती है और प्रेम से प्रेम की। यदि तुम किसी को भयभीत न करो तो हर भय से मुक्त रहोगे। इसलिए क्रोध की विष-बेल को नष्ट कर दो।' शूलपाणि के नेत्र खुल गए। उसका जीवन बदल गया।
4. उन्मत हाथी
राजा सिद्धार्थ की गजशाला में सैकड़ों हाथी थे। एक दिन चारे को लेकर दो हाथी आपस में भिड़ गए। उनमें से एक हाथी उन्मत्त होकर गजशाला से भाग निकला। उसके सामने जो भी आया, वह कुचला गया। उसने सैकड़ों पेड़ उखाड़ दिए, घरों को तहस-नहस कर डाला और आतंक फैलाकर रख दिया।
महाराज सिद्धार्थ के अनेक महावत और सैनिक मिलकर भी उसे वश में नहीं कर सके। वर्द्धमान को यह समाचार मिला तो उन्होंने आतंकित राज्यवासियों को आश्वस्त किया और स्वयं उस हाथी की खोज में चल पड़े।
प्रजा ने चैन की सांस ली, क्योंकि वर्द्धमान की शक्ति पर उसे भरोसा था। वह उनके बल और पराक्रम से भली-भांति परिचित थी। एक स्थान पर हाथी और वर्द्धमान का सामना हो गया। दूर से हाथी चिंघाड़ता हुआ भीषण वेग से दौड़ा चला आ रहा था मानो उन्हें कुचलकर रख देगा। लेकिन उनके ठीक सामने पहुंचकर वह ऐसे रुक गया मानो किसी गाड़ी को आपातकालीन ब्रेक लगाकर रोक दिया गया हो।
महावीर ने उसकी आंखों में झांकते हुए मीठे स्वर में कहा- 'हे गजराज! शांत हो जाओ! अपने पूर्व जन्मों के फलस्वरूप तुम्हें पशु योनि में जन्म लेना पड़ा। इस जन्म में भी तुम हिंसा का त्याग नहीं करोगे तो अगले जन्म में नर्क की भयंकर पीड़ा सहनी होगी। अभी समय है, अहिंसा का पालन कर तुम अपने भावी जीवन को सुखद बना सकते हो।'
वर्द्धमान के उस उपदेश ने हाथी के अंतर्मन पर प्रहार किया। उसके नेत्रों से आंसू बहने लगे। उसने सूंड उठाकर उनका अभिवादन किया और शांत भाव से गजशाला की ओर लौट गया।
पुष्कलावती नामक देश के एक घने वन में भीलों की एक बस्ती थी। उनके सरदार का नाम पुरूरवा था। उसकी पत्नी का नाम कालिका था। दोनों वन में घात लगाकर बैठ जाते और आते-जाते यात्रियों को लूटकर उन्हें मार डालते। यही उनका काम था।
एक बार सागरसेन नामक एक जैनाचार्य उस वन से गुजरे तो पुरूरवा ने उन्हें मारने के लिए धनुष तान लिया। ज्यों ही वह तीर छोड़ने को हुआ, कालिका ने उसे रोक लिया- 'स्वामी! इनका तेज देखकर लगता है, ये कोई देवपुरुष हैं। ये तो बिना मारे ही हमारा घर अन्न-धन से भर सकते हैं।'
पुरूरवा को पत्नी की बाच जंच गई। दोनों मुनि के निकट पहुंचे तो उनका दुष्टवत व्यवहार स्वमेव शांत हो गया और वे उनके चरणों में नतमस्तक हो गए।
मुनि ने अवधिज्ञान से भांप लिया कि वह भील ही 24वें तीर्थंकर के रूप में जन्म लेने वाला है अत: उसके कल्याण हेतु उन्होंने उसे अहिंसा का उपदेश दिया और अपने पापों का प्रायश्चित करने को कहा।
भील ने उनकी बात को गांठ में बांध लिया और अहिंसा का व्रत लेकर अपना बाकी जीवन परोपकार में बिता दिया।