प्रभाकर मणि तिवारी
पूर्वोत्तर में म्यांमार और बांग्लादेश की सीमा से सटे पर्वतीय राज्य मिजोरम में सात नवंबर को विधानसभा चुनाव होने हैं। यहां पारंपरिक रूप से मुकाबला मिजो नेशनल फ्रंट और कांग्रेस के बीच होता रहा है।
मिजो नेशनल फ्रंट बीते दस साल से सत्ता में है, लेकिन इस बार राज्य के राजनीतिक समीकरण बदले हुए नजर आ रहे हैं। इस बार जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) सत्तारूढ़ एमएनएफ को कड़ी टक्कर दे कर मुकाबले को तिकोना बनाती नजर आ रही है।
मिजोरम पीपुल्स फोरम
राज्य में होने वाला हर चुनाव यंग मिजो एसोसिएशन और चर्च की भूमिका के लिए भी सुर्खियां बटोरता रहा है। वर्ष 2006 में चर्च और यंग मिजो एसोसिएशन (वाईएमए) जैसे असरदार संगठनों के प्रतिनिधियों को लेकर बना मिजोरम पीपुल्स फोरम (एमपीएफ) ही अब चुनावी आचार संहिता को कड़ाई से लागू करने का काम करता है। यह ना सिर्फ चुनावी रैली की जगह और समय सीमा तय करता है बल्कि झंडों और पोस्टरों की संख्या और साइज भी तय कर देता है। चुनावी आचार संहिता के मामले में फोरम के निर्देशों की अनदेखी किसी उम्मीदवार की हार की वजह बन सकता है। इस मामले में फोरम की भूमिका चुनाव आयोग से कहीं ज्यादा असरदार है।
चुनावी आचार संहिता के जमीनी स्तर पर बेहद कड़ाई से लागू होने के कारण यहां चुनावी तस्वीर देश के दूसरे राज्यों को मुकाबले भिन्न नजर आती है। लगभग 15 साल तक केंद्र शासित प्रदेश रहने के बाद फरवरी 1987 में मिजोरम को भारत के पूर्ण राज्य का दर्जा मिला था। वर्ष 2018 में एमएनएफ ने 26, जेडपीएम ने आठ और यूपीए ने पांच सीटें जीती थी। तब बीजेपी को महज एक सीट मिली थी।
जोरम पीपुल्स मूवमेंट
इस बार जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेडपीएम) सत्तारूढ़ एमएनएफ के लिए एक मजबूत चुनौती के तौर पर उभरा है। यह संगठन वर्ष 2017 में बना था और 2018 के चुनाव में पहली बार ही उसने आठ सीटें जीती थी। हालांकि एमएनएफ प्रमुख और मुख्यमंत्री जोरमथांगा दावा करते हैं कि विकास की दिशा में किए गए कामकाज के कारण इस बार उनकी पार्टी कम से कम 25 सीटें जीत कर सत्ता की हैट्रिक लगाएगी।
मुख्यमंत्री जोरमथंगा के नेतृत्व वाला मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) एनडीए का सहयोगी है। हालांकि बीजेपी और एमएनएफ अलग-अलग चुनाव मैदान में हैं। राज्य की 87 फीसदी आबादी ईसाई है। पड़ोसी मणिपुर में हुई हिंसा और वहां से कुकी समुदाय के लोगों के भारी तादाद में पलायन ने राज्य में बीजेपी के प्रति नाराजगी बढ़ा दी है। ऐसे में उसके साथ रह कर जोरमथंगा ईसाई वोटरों को नाराज करने का खतरा नहीं उठा सकते। तीसरी बार जोरमथंगा की सत्ता में वापसी हुई तो रिकॉर्ड बनेगा लेकिन यह ईसाई वोटरों के समर्थन पर ही निर्भर है।
मणिपुर की हिंसा का असर
उन्होंने बीते सप्ताह एक इंटरव्यू में कहा था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राज्य के दौरे में आने पर वे उनके साथ मंच पर मौजूद नहीं रहेंगे। जोरमथंगा मणिपुर में हिंसा की शुरुआत से ही कुकी शरणार्थियों के समर्थन में खड़े रहे हैं। उनकी सरकार कुकी तबके के अलावा सीमा पार म्यांमार से आने वाले चिन समुदाय के शरणार्थियों के लिए रहने और खाने की व्यवस्था कर रही है। खुद को बीजेपी से अलग दिखाने के लिए राज्य सरकार ने शरणार्थियों का बायोमेट्रिक आंकड़ा जुटाने के केंद्रीय गृह मंत्रालय का निर्देश भी मानने से इंकार कर दिया है।
कांग्रेस सांसद राहुल गांधी बीते सप्ताह मिजोरम का दो-दिवसीय दौरा कर चुके हैं। उन्होंने इस दौरान कहा कि पार्टी अबकी यहां सत्ता हासिल करने के प्रति बेहद गंभीर है। मिजोरम के कांग्रेस अध्यक्ष लालसावता कहते हैं कि हमने बीजेपी से मुकाबले के लिए इस बार दो क्षेत्रीय दलों के साथ मिल कर मिजोरम सेक्युलर एलायंस (एमएसए) का गठन किया है।
बीजेपी का जोर
बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में मिजोरम में सत्ता में आने की स्थिति में युवा उद्यमियों को पांच-पांच लाख रुपए की सहायता देने का ऐलान किया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष वामलालमुआका कहते हैं कि हमारा मकसद इस राज्य में विकास की गति को तेज कर इसे राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है।
अबकी चुनाव प्रचार के दौरान सीमा पार म्यांमार और बांग्लादेश के अलावा पड़ोसी मणिपुर से भारी तादाद में शरणार्थियों का आना, मणिपुर की हिंसा और असम के साथ सीमा विवाद ही प्रमुख चुनावी मुद्दे के तौर पर उभरे हैं।
राजनीतिक पर्यवेक्षक के। वानलालुरेट कहते हैं, "मिजोरम का चुनाव अबकी दिलचस्प है। इस बार यहां सत्ता के तीनों दावेदारों यानी एमएनएफ, जेडपीएम और कांग्रेस की साख दांव पर लगी है। उधर, बीजेपी भी अपनी सीटों की तादाद बढ़ाने के लिए जोर लगा रही है। शरणार्थियों के मुद्दे पर आम लोगों की राय चुनावी नतीजे में निर्णायक भूमिका निभाएगी।"